इतिहासराजस्थान का इतिहास

जयपुर में जन आंदोलन

जयपुर में जन आंदोलन – जयपुर में सर्वप्रथम जन जागृति का कार्य अर्जुनलाल सेठी ने किया। तत्पश्चात् जमनालाल बजाज ने जयपुर में अपने रचनात्मक कार्यों से जन जागृति पैदा की। सेठ जमनालाल बजाज सीकर ठिकाने के एक गाँव के मूल निवासी थे। 1927 ई. में उन्होंने एक चरखा संघ स्थापित किया और थोङे समय में ही खादी उत्पादन का कार्य काफी बढ गया। 1931 ई. में कपूरचंद पाटनी ने जयपुर प्रजा मंडल की स्थापना की, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से यह अधिक प्रभावशाली नहीं हुआ। कुछ वर्षों तक इस संगठन का कार्य समाज सुधार और खादी के प्रचार तक सीमित रहा।

हरिपुरा प्रस्ताव के पारित होने के बाद जमनालाल बजाज की प्रेरणा से और पंडित हीरालाल शास्री के सक्रिय सहयोग से जयपुर राज्य प्रजा मंडल का पुनर्गठन किया गया, जिसका प्रथम अधिवेशन 9 मई, 1938 ई. को जयपुर में, सेठ जमनालाल बजाज की अध्यक्षता में किया गया। इसका मूल उद्देश्य राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना और कुछ नागरिक अधिकार प्राप्त करना था। जयपुर दरबार ने एक नियम पारित किया जिसके अनुसार किसी नागरिक के लिये ऐसी संस्था का सदस्य बनना गैर कानूनी ठहराया गया, जिसका सरकार के साथ पंजीकरण न हुआ हो। चूँकि सरकार ने सेठ जमनालाल बजाज के जयपुर प्रदेश पर प्रतिबंध लगा दिया था, अतः जयपुर सरकार ने प्रजा मंडल का पंजीकरण करने से, यह कहकर इन्कार कर दिया कि इसका अध्यक्ष राज्य की सीमाओं में नहीं रहता है। सेठजी ने राज्य द्वारा लगाये प्रतिबंध को तोङकर 11 फरवरी, 1939 ई. को जयपुर राज्य में प्रवेश किया, किन्तु बैराठ के निकट उन्हें बंदी बना लिया गया। वस्तुतः सेठजी, जब तक ब्यूचेम्प राज्य मंत्रिमंडल का अध्यक्ष रहा, राज्य प्रशासन के काफी आलोचक रहे थे। सेठजी की गिरफ्तारी के दिन ही, जब रात्रि में शास्री सदन में जयपुर में प्रजा मंडल की कार्य समिति की बैठक चल रही थी, पुलिस ने सर्वश्री हीरालाल शास्री, चिरंजीलाल अग्रवाल, कपूरचंद पाटनी आदि को बंदी बना लिया। अब सत्याग्रह का संचालन गुलाबचंद कासलीवाल और दौलतमल भंडारी ने किया। कुछ ही दिनों में आंदोलन ने जोर पकङ लिया। जयपुर शहर में जबरदस्त हङताल हुई। वहाँ लगभग 600 लोगों को बंदी बनाया गया। सरकार के दमन की सर्वत्र आलोचना हुई। गाँधीजी ने कहा कि वे सेठ जमनालाल के बंदी बनाये जाने के प्रश्न को अखिल भारतीय प्रश्न बना देंगे। ऐसी स्थिति में जयपुर दरबार ने समस्या का हल करना ही उचित समझा। प्रजा मंडल के नेताओं और सरकार के बीच कुछ औपचारिक बातचीत के बाद 7 अगस्त, 1939 ई. को समझौता हो गया। प्रजा मंडल को मान्यता मिल गयी, सेठ जी सहित प्रजा मंडल के कार्यकर्त्ता रिहा कर दिये गये और मार्च, 1940 ई. में प्रजा मंडल का पंजीकरण हो गया। ब्युचेम्प जयपुर छोङकर चला गया।

1940 ई. में शास्रीजी प्रजा मंडल के अध्यक्ष बने। प्रजा मंडल के कार्यकर्त्ताओं में आंतरिक झगङे आरंभ हो गये। फिर भी शास्त्रीजी ने इस संंस्था में सामंजस्यपूर्ण प्रणाली स्थापित की। शास्त्रीजी ने प्रजा मंडल को एक सुदृढ आधार प्रदान कर समूचे राज्य में इनकी शाखाएँ स्थापित कर दी। नवम्बर, 1941 ई. में प्रजा मंडल का तीसरा अधिवेशन हुआ। इस समय तक प्रजा मंडल की लोकप्रियता, जो पहले आंतरिक झगङों के कारण कम हो गयी थी, पुनः स्थापित हो गयी। 1942 ई. में भारत छोङो आंदोलन का प्रभाव सभी भारतीय राज्यों पर भी पङा। प्रजा मंडल ने उत्तरदायी शासन स्थापित करने की माँग की। जब जयपुर महाराजा ने इसका अनुकूल उत्तर भेज दिया, तब राज्य में आंदोलन छेङने का कोई प्रश्न नहीं रह गया था। किन्तु जयपुर प्रजा मंडल में एक ऐसा वर्ग भी था जो काँग्रेस के अखिल भारतीय आंदोलन से जयपुर को अलग नहीं रखना चाहता था। इस वर्ग के नेता बाबा हरिश्चंद्र, रामकरण जोशी, दौलतमल भंडारी तथा हंस डी.राय थे। इस गुट की ओर से श्री भंडारी, शास्रीजी से मिले और अपने साथियों के दृष्टिकोण से अवगत कराया। 17 अगस्त, 1942 को जयपुर में एक सार्वजनिक सभा की गयी जिसमें शास्त्रीजी ने राज्य सरकार के साथ चल रही बातचीत पर प्रकाश डाला। चूँकि शास्त्रीजी आंदोलन करने के पक्ष में नहीं थी, अतः बाबा हरिश्चंद्र वाले गुट ने एक अलग आजाद मोर्चा स्थापित कर, आंदोलन छेङ दिया। शास्त्रीजी की समझौतावादी नीति की सर्वत्र आलोचना हुई। तब 16 सितंबर, 1942 ई. को शास्त्रीजी ने जयपुर के प्रधानमंत्री सर मिर्जा इस्माइल को आंदोलन छेङने का अल्टीमेटम भेज दिया। मिर्जा ने शास्त्रीजी को बातचीत के लिये बुलाया। दोनों की बातचीत के बाद एक समझौता हो गया, जिसकी मुख्य शर्तें इस प्रकार थी – 1.) युद्ध के लिये राज्य सरकार अँग्रेजों को जन-धन की सहायता नहीं देगी, 2.) प्रजा मंडल को राज्य में शांतिपूर्वक युद्ध-विरोधी अभियान चलाने की स्वतंत्रता होगी, 3.) ब्रिटिश प्रान्तों के किसी आंदोलनकारी को जयपुर में प्रवेश करने से नहीं रोका जायेगा और प्रजा मंडल ऐसे लोगों को सहायता देने में स्वतंत्र रहेगा, 4.) राज्य द्वारा जनता को उत्तरदायी शासन देने के लिए शीघ्रातिशीघ्र कार्यवाही की जायेगी, 5.) प्रजा मंडल महाराजा के विरुद्ध किसी प्रकार की सीधी कार्यवाही नहीं करेगा।

इस समझौते का परिणाम यह हुआ कि जन-सामान्य को प्रदर्शन और जुलूसों में भाग लेने की कोई प्रेरणा नहीं मिली। शास्त्रीजी का तर्क था कि वे इसे व्यवहारिक नहीं समझते कि राजा अँग्रेजों से संबंध विच्छेद कर ले, जैसा कि गाँधीजी ने भारत छोङो आंदोलन की पूर्व संध्या को कहा था। आजाद मोर्चे के नेताओं ने शांतिपूर्वक आंदोलन चलाया। शास्त्रीजी के साथ हुए समझौते का उल्लंघन करते हुए राज्य सरकार ने आजाद मोर्चे के अनेक कार्यकर्त्ताओं को गिरफ्तार कर लिया। शास्त्रीजी के समकालीन दो नेताओं – माणिक्यलाल वर्मा और जयनारायण व्यास – ने शास्त्रीजी की इस नीति के संबंध में भिन्न – भिन्न मत व्यक्त किये। वर्मा जी ने शास्त्री जी को दोषी समझा, उन्हें कभी माफ नहीं किया और उनके राजस्थान के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी उन्हें इस पद से हटाने के लिये हरसंभव प्रयत्न किये। जयनारायण व्यास शास्त्रीजी की नीति के इतने कटु आलोचक नहीं थे। 14 अक्टूबर, 1945 ई. को पंडित नेहरू को लिखे गये अपने पत्र में उन्होंने जयपुर की राजनीति का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके जयपुर आने पर पहले शास्त्रीजी के दृष्टिकोण को जानने की सलाह दी और बाद में आजाद मोर्चे के नेताओं की बात सुनने को कहा। मोर्चे के नेताओं ने शास्त्रीजी पर विश्वासघात का आरोप लगाया। आजाद मोर्चे के नेतृत्व में जयपुर के विद्यार्थियों ने भी आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। शिक्षण संस्थाओं में कई दिनों तक हङताल रही। देश में ज्यों-ज्यों आंदोलन का वेग कम होता गया, जयपुर में आजाद मोर्चे के कार्यकर्त्ता रिहा कर दिये गये। 1945 ई. में पंडित नेहरू के जयपुर आने पर बाबा हरिश्चंद्र ने नेहरू की प्रेरणा से अपने आजाद मोर्चे को प्रजा मंडल में विलीन कर विवाद को समाप्त कर दिया।

इस बीच जयपुर महाराजा ने अक्टूबर, 1942 ई. में संवैधानिक सुधारों के लिये एक समिति नियुक्त की। अप्रैल, 1943 ई. में इस समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी। किन्तु राज्य सरकार ने दो वर्षों तक इसे लागू नहीं किया, क्योंकि वह जन असंतोष को सफलतापूर्वक नियंत्रित किये हुए थी। 1945 ई. में उन सुझावों के अनुसार कुछ प्रशासनिक सुधार किये गये, जो उत्तरदायी शासन का दिखावा मात्र था। दोनों सदनों वाली व्यवस्थापिका स्थापित की गयी। दोनों सदनों की सदस्यता को धर्म, व्यवसाय और जागीरदारों में इस प्रकार विभाजित किया गया कि सत्ता जन प्रतिनिधियों को हस्तांतरित हो ही नहीं सकती थी। दोनों सदनों में महाराजा द्वारा मनोनीत सदस्यों का वर्चस्व रखा गया। फिर भी, प्रजा मंडल ने निर्वाचनों में भाग लिया। इन निर्वाचनों में प्रजा मंडल की अच्छी छवि भी उभर कर नहीं आयी। क्योंकि 125 सदस्यों की प्रतिनिधि सभा में इसके केवल 27 सदस्य थे और 31 सदस्यों की विधानसभा में केवल तीन सदस्य प्रजा मंडल के थे। इससे स्पष्ट है कि पिछले कुछ वर्षों में प्रजा मंडल की गतिविधियों के कारण प्रजा मंडल के नेतृत्व में जनता का विश्वास कम था। मई, 1946 ई. में जयपुर शासक ने देवीशंकर तिवाङी को और कुछ महीनों बाद दौलतमल भंडारी को प्रजा मंडल के प्रतिनिधियों के रूप में मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया।

27 मार्च, 1947 ई. को जयपुर महाराजा ने कुछ और सुधारों की घोषणा की, जिसके अनुसार राज्य में एक नया मंत्रिमंडल बना। नये मंत्रिमंडल में दीवान (प्रधान मंत्री) के अलावा 6 सदस्य थे, इनमें से 4 सदस्य प्रजा मंडल और 2 सदस्य जागीरदारों के थे। पंडित हीरालाल शास्त्री, मुख्य सचिव (मुख्यमंत्री) बने। इस मंत्रिमंडल का दीवान महाराजा द्वारा नियुक्त होगा। वी.टी. कृष्णाचारी नये दीवान नियुक्त हुए। देश में राजनैतिक परिवर्तन बङी तेजी से हो रहे थे। 3 जून, 1947 को ब्रिटिश सरकार ने सत्ता हस्तान्तरित करने तथा देश-विभाजन की घोषणा कर दी। जुलाई, 1947 में नरेन्द्रमल की सभा में जयपुर महाराजा ने भारतीय संघ में मिलने की घोषणा कर दी।

जयपुर राज्य से तीन सदस्य भारतीय संविधान निर्मात्री सभा में भेजे गये, जिनमें एक पंडित हीरालाल शास्त्री थे। 30 मार्च, 1949 ई. को राजस्थान संघ बनने के बाद ही उत्तरदायी सरकार स्थापित हो सकी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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