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चोल काल में ग्राम शासन व्यवस्था कैसी थी

चोल शासन की सबसे उल्लेखनीय विशेषता है- असाधारण शक्ति तथा क्षमता, जो स्वायत्तशासी ग्रामीण संस्थाओं के संचालन में परिलक्षित होती है। वस्तुतः स्वायत्त शासन पूर्णतया ग्रामों में ही क्रियान्वित किया गया। उत्तमेरूर से प्राप्त 919 तथा 929 ई. के दो लेखों के आधार पर हम ग्राम की कार्यकारिणी समितियों की कार्य प्रणाली का विस्तृत विवरण प्राप्त करते हैं। प्रत्येक ग्राम में अपनी सभा होती थी, जो प्रायः केन्द्रीय नियंत्रण से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से ग्राम शासन का संचालन करती थी। इस उद्देश्य से उसे व्यापक अधिकार प्राप्त थे।

ग्रामों में मुख्यतः दो प्रकार की संस्थायें कार्यरत थी –

उर-

उर से तात्पर्य पुर से है, जो गाँव और नगर दोनों के लिये प्रयुक्त होता था। कुछ लेखों में ऊराय-इशैन्यु-उरोम् अर्थात् ग्रामवासी उसमें सम्मिलित होते थे। उर नामक जो संस्था थी, वो सामान्य लागों की संस्था थी। उर की कार्य-समिति को आलुंगणम् (शासक गण) अथवा गणम् कहा जाता था। समिति के सदस्यों की संख्या अथवा उनके चुनाव की विधि के संबंध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। ऐसा लगता है, कि कुछ सभाओं के लिये एक ही कार्य समिति होती थी,जो सभी विषयों की देख-रेख करने के लिये उत्तरदायी थी, क्योंकि कुछ कार्यसमितियों में हम विद्वान ब्राह्मणों को भी सदस्य के रूप में देखते हैं। कहीं-कहीं एक ही ग्राम में दो उर संगठन कार्य करते थे। 1227 ई. में शत्तमंगलम में दो उर थे- पहला हिन्दू देवदान भाग के निवासियों का तथा दूसरा जैन पल्लिच्चन्दम लोगों का। दोनों ने मिलकर कुछ भूमि एक तालाब तथा पुष्पवाटिका के लिये दान में दिया तथा उसे करमुक्त घोषित कर दिया। 1245 ई. में उरत्तूकुर्म तथा अमणकुंडि नामक ग्रामों में दो-दो उर कार्य कर रहे थे।

सभा या महासभा

यह अग्रहार (ब्राह्मणों को दान में दिये गये) ग्रामों में होती थी। ऐसे ग्रामों को ब्राह्मदेय अथवा मंगलम भी कहा गया है।अग्रहार ग्रामों में मुख्यतः विद्वान ब्राह्मण निवास करते थे। इनमें शासन के लिये महाजन नामक संस्था थी, जिसमें ब्राह्मणों के प्रतिनिधि शामिल थे। तोंडमंडलम तथा चोलमंडलम के लेखों से अग्रहार के विषय में सूचना मिलती है। इनसे स्पष्ट है, कि काञ्ची तथा मद्रास क्षेत्रों में ऐसी कई सभायें थी। सभा मुख्यतः अपनी समितियों के माध्यम से कार्य करती थी। इन्हें वारियम् कहा गया है। वारियम का अर्थ अलग-अलग लगाया गया है। जैसे – वारियम का तमिल में अर्थ – आय तथा कन्नङ में कङी माँग से है। सभा द्वारा किसी कार्य विशेष के लिये नियुक्त व्यक्तियों को वारियर कहा जाता था। इससे स्पष्ट होता है, कि वारियम को कोई न कोई विशेष कार्य ही सौंपा जाता था। मंदिर का प्रबंध करने तथा कहीं देवदान भूमि का प्रामाणिक विवरण देने और उसकी सीमा लिखने कार्य वारियम को दिया गया है।कभी-कभी ये दोनों ही संस्थायें एक ही ग्राम में कार्य करती थी। जिन स्थानों में पहले से कोई बस्ती होती थी तथा वे बाद में ब्राह्मणों को दान में दिये जाते थे, वहाँ उर तथा सभा साथ-साथ कार्य करती थी। ऐसे गाँवों के मूल निवासी उर में मिलते थे, जबकि नवागन्तुक ब्राह्मण अपनी सभा गठित कर लेते थे। ग्रामसभा के सदस्यों की संख्या भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न होती थी।कहीं-कहीं पर सभी वयस्क पुरुष इसके सदस्य होते थे, जबकि कुछ स्थानों में यह एक निर्वाचित संस्था थी। ऐसी स्थिति में इसके सदस्यों का चुनाव ग्रामवासियों द्वारा किया जाता था तथा सदस्यों के लिये कुछ निर्धारित योग्यतायें भी होती थी। ग्राम सभा की बैठकें प्रायः मंदिरों तथा मंडपों में होती थी। बैठक के लिये निर्धारित स्थान को ब्रह्मस्थान कहा जाता था। कभी-कभी ग्राम के बाहर वृक्षों के नीच अथवा किसी तालाब के तट पर भी ग्राम सभा की बैठकें होती थी। प्रत्येक सभा अथवा महासभा के अंतर्गत की समितियाँ होती थी, जिन्हें वारियम कहा जाता था। ये समितियाँ अलग-अलग विभागों का काम देखती थी।

कुछ प्रमुख समितियाँ इस प्रकार थी-

  • तोट्टवारियम – यह उद्यान समिति थी।
  • एरियारियम – यह तटांक (तालाब) समिति थी। तालाबों की मरम्मत के लिये एरिआयम नामक एक नियमित कर भी लिया जाता था।
  • पोनवारियम – यह स्वर्ण समिति थी। इसका कार्य संभवतः मुद्रा का नियमन करना था।
  • पंचवार-वारियम-पाँच समितियों के कार्य का निरीक्षण करना इसका कार्य था। कुछ विद्वानों के अनुसार इसका कार्य राजा के लिये अनाज के रूप में भूमिकर प्राप्त करना था।
  • सम्वत्सर वारियम – यह वार्षिक समिति थी, जो विभिन्न समितियों के कार्यों की देख-रेख करती थी।
  • उदासीन वारियम – यह संन्यासियों की संस्था थी। या फिर इसका कार्य विदेशियों की देख-रेख करना भी था।
  • न्यायत्तार वारियम – यह न्याय समिति थी।
  • कोयिल्वारियम – यह मंदिर के कार्यों की व्यवस्था करती थी।
  • गणवारियम – यह ग्राम के कार्यों की व्यवस्था के लिये थी।
  • महाजन – यह अग्रहर ग्रामों का शासन देखती थी। इसमें ब्राह्मणों के प्रतिनिधि ही सम्मिलित थे।

उत्तरमेरूर से प्राप्त परांतक प्रथम कालीन दो अभिलेखों (919 से 921ई.) से समिति के सदस्यों के निर्वाचन के संबंध में भी कुछ सूचनायें दी गयी हैं। उसके अनुसार समिति के सदस्यों को चुनने के लिये प्रत्येक गाँव को 30 वार्यों में बाँटा जाता था। ग्राम के लोग, जो 35 से 70 वर्ष की आयु के होते थे, नेक होते थे, जिनके पास 1/4 वेलि अर्थात् डेढ एकङ भूमि होती थी, जो एक वेद तथा उसके भाष्य के ज्ञाता थे, और जिनके पास निजी आवास होता था, वे ही समिति के सदस्य निर्वाचित हो सकते थे, अपराधी, चरित्रहीन, समिति की आय-व्यय में घोटाला करने वाला तथा शूद्रों के संपर्क से दूषित व्यक्ति समिति का सदस्य नहीं बन सकता था। प्रत्येक उम्मीदवार का नाम अलग-अलग पत्रों पर लिखकर एक बर्तन में रखा जाता था और उसे हिलाकर मिला दिया जाता था। उसके बाद किसी अबोध बच्चे से एक पत्र पर उठाने को कहा जाता था। वह जिस व्यक्ति के नाम का पत्र उठा लेता था, वह ही समति का सदस्य बन जाता था। इस प्रकार कुल 30 व्यक्ति चुने जाते थे, जिन्हें विभिन्न समितियों में रखा जाता था। इनमें से बारह सदस्य जो वयोवृद्ध विद्वान एवं उद्यान तथा तटाक समितियों में कार्य कर चुके थे, वार्षिक समिति में, बारह उद्यान समिति में तथा छः तटाक समिति में रखे जाते थे। समिति के सदस्य 360 दिनों तक अपने पद पर बने रहते थे, शेष पाँच दिनों में अपना हिसाब-किताब प्रस्तुत करते थे। उसके बाद वे अवकाश ग्रहण कर लिते थे। यदि कोई सदस्य किसी अपराध का दोषी होता था, तो उसे तत्काल पदच्युत कर दिया जाता था। इन सदस्यों के अवकाश ग्रहण करने के बाद समिति नियुक्त करने के लिये बारह विभागों के न्याय निरीक्षण समिति के सदस्य मध्यस्थ की सहायता से बैठक बुलाकर चुनाव करते थे। एक वर्ष बाद पुनः मतदान होता था। छः – छः सदस्य वर्ण समिति तथा पंचवार वारियम् के लिये चुने जाते थे। ऐसी व्यवस्था थी, कि केवल वह व्यक्ति, जो पिछले तीन वर्षों से किसी समिति का सदस्य नहीं रहा है, ही नया सदस्य चुना जाये। इस प्रकार प्रत्येक ग्रामवासी को समिति का सदस्य बनने का अवसर मिल जाता था। इन विभिन्न समितियों के अलावा एक सामान्य समिति होती थी, जिसे संबत्सरवारियम् कहा जाता था। इसका कार्य सभी समितियों के कार्यों की देखरेख करना होता था। जो व्यक्ति पहले किसी समिति का सदस्य रह चुका होता था तथा जो पर्याप्त अनुभवी होता था, वही सामान्य समिति का सदस्य बन सकता था। महासभा को पेरुंगुर्रि, इसके सदस्यों को पेरूमक्कल तथा समिति के सदस्यों को वारियप्पेरूमक्कल कहा जाता था।

ग्रामसभा को राज्य के प्रायः सभी अधिकार मिले हुये थे। उसके पास आधुनिक संपत्ति होती थी, जिसे वह जनहित में बेच सकती अथवा बंधक रख सकती थी। यह न्याय का भी काम करती तथा ग्रामवासियों के सामान्य झगङों का फैसला करती थी।ग्रामसभा के पास बैंक भी होते थे, तथा वह धन, भूमि तथा धान्य के रूप में जमा राशि प्राप्त करती तथा फिर ब्याज पर उन्हें वापस लौटा देती थी। गाँव की सभी अक्षयनिधियाँ ग्रामसभा के अधीन होती थी। सभा को ग्रामवासियों पर कर लगाने, वसूलने तथा उनसे बेगार लेने का भी अधिकार था। पीने के पानी, उपवनों, सिंचाई तथा आवागमन के साधनों की व्यवस्था करना ग्रामसभा के मुख्य कार्य थे। अकला अथवा संकट के समय यह ग्रामवासियों की उदारतापूर्वक मदद करती थी। ग्रामसभा मंदिरों, शिक्षण-संस्थाओं एवं दान गृहों का भी प्रबंध चलाती थी तथा राजस्व संग्रह कर सरकारी कोष में जमा करती थी। ग्रामवासियों का स्वास्थ्य, जीवन एवं संपत्ति की रक्षा करना भी ग्रामसभा का कार्य था।

ग्रामसभा में मध्यस्थ नामक वेतनभोगी कर्मचारी होते थे, जिनके माध्यम से उसके निर्णय कार्यान्वित किये जाते थे। उन्हें प्रतिदिन चार नालि धन, प्रतिवर्ष सात कलंजु सोना तथा एक जोङा वस्त्र दिया जाता था। जब तक ग्रामसभा अपने कर्त्तव्यों का पालन करती रहती तथा राज्य को नियमित कर पहुँचाती रहती, राज्य उसके शासन में हस्तक्षेप नहीं करता था। परवर्ती चोल युग में हमें केन्द्रीय सरकार द्वारा सभा में हस्तक्षेप के कुछ उदाहरण मिलते हैं। पता चलता है, कि सभा के सदस्यों की आपसी गुटबंदी तथा अंतर्कलह के कारण जब प्रशासीन में अव्यवस्था उत्पन्न हो गयी तथा हिंसा की आशंका हुई तो राजा ने अपने अधिकारियों की सूचना पर सभा में सुधार के लिये आदेश निर्गत किये। ऐसे भी उदाहरण मिले हैं, जबकि दो सभाओं में परस्पर विवाद की स्थिति में उन्होंने ही मध्यस्थता के लिये तीसरी सभा को मामला सौंप दिया तथा राज्य को सूचना नहीं दी। इससे पता चलता है, कि ग्राम सभायें अपना कार्य करने के लिये स्वतंत्र होती थी। ग्रामसभा के आय व्यय का निरीक्षण समय समय पर केन्द्रीय पदाधिकारी किया करते थे। ग्राम सभा को उसके कार्यों में सहायता देने वाले वेतनभोगी कर्मचारियों का वर्ग आयगार कहलाता था। यदि राज्य कोई ऐसा नियम बनाता जो किसी ग्राम की स्थिति को प्रभावित करता था, तो वह नियम ग्रामसभा की स्वीकृति से ही होता था। सामान्यतः ग्रामसभा तथा केन्द्रीय सरकार के संबंध सौहार्दपूर्ण हुआ करते थे। ग्राम सभा के सामान्य कार्यों में नियुक्त कर्मचारियों के अलावा कुछ खास क्षेत्रों में शांति, व्यवस्था कायम करने के लिये शक्तिशाली सामंतों अथवा सरदारों को नियुक्त किया जाता था। उसे पडिकावलकूलि नामक अलग कर दिया जाता था। केन्द्रीय शक्ति के निर्बल होने पर इस व्यवस्था का महत्त्व काफी बड गया। इस प्रकार समस्त साम्राज्य में ग्राम्य संस्थाओं का जाल बिछा हुआ था।

ग्राम सभा के अलावा गाँव में कई समुदाय और निगम होते थे। जो सामाजिक, धार्मिक या आर्थिक प्रवत्ति के थे। इनका अधिकार क्षेत्र किसी कार्य विशेष। तक ही सीमित होता था। उदाहरण के लिये किसी मंदिर का प्रबंध देखने अथवा व्यवसाय का संचालन करने लिये समुदाय गठित किये जाते थे। समुदायों पर ग्रामसभा का ही सामान्य नियंत्रण होता था।समुदायों के सदस्य सभा के ही सदस्य ते। विभिन्न समुदायों में झगङा होने पर ग्रामसभा ही फैसला करती थी। धर्म के आधार पर बने हुये समुदायों की संख्या अधिक थी, जो अपने-अपने स्थानों में मंदिरों का प्रबंध करते थे। मंदिर के पुजारियों के भी अपने संगठन होते थे। मूलपरुडैयार नामक एक धार्मिक संगठन का उल्लेख मिलता है। जिसका मुख्य कार्य मंदिरों का प्रबंध करना था। परांतक प्रथम के समय से लेकर राजराज प्रथम के समय तक शुचीन्द्रम में यह संगठन स्थानीय महासभा के अधीन कार्य कर रहा था। बाद में उसने मंदिर का प्रबंध छोङ दिया तथा अपने को समाप्त कर दिया। उसके बाद मंदिर प्रबंध का कार्य पुनः महासभा ने ले लिया। शैव पुजारियों को शिव ब्राह्मण तथा वैष्णव पुजारियों को वैखानस कहा जाता था। उनके कुछ संगठन इस प्रकार मिलते हैं – अल-नालिगै शिवब्राह्मण, पति-पाद मूलत्तर, तिरुवुण्णलिगैक् कणप्पैरुमक्काल, तिरु-वुण्णालिगै-सभै आदि। गाँवों को शिरयों, सङकों और खंडों में विभाजित किया गया था। शेरि से तात्पर्य पुरवा (टोला) अथवा पल्ली से है। पर्रशिरि (अछूत बस्ती), कम्मार शोरि (कर्मवार बस्ती) का उल्लेख मिलता है। प्रत्येक शेरि में एक समुदाय होता था। जिसके जिम्मे अनेक प्रकार के कार्य होते थे। प्रत्येक शेरि का प्रतिनिधि ग्राम सभा की प्रबंध समिति में होता था। उत्तमचोल के समय में दो शेरियों को उरगम् के मंदिर का प्रबंध करने का काम सौंपा गया था। पता चलता है, कि तलैच्चंगाडु (तंजोर जिला)में बढइयों, सुनारों, लुहारों, धोबियों, गङेरियों आदि के व्यवसायिक समुदाय थे, जिन्हें कलनै कहा जाता था। कुछ समुदायों की सामाजिक स्थिति निम्न मानी जाती थी। विभिन्न समुदायों के आपसी संबंध सद्भाव पर आधारित होते थे तथा उनका नियम करने के लिये किसी सरकार अथवा कानून की आवश्यकता नहीं समझी गयी थी। स्थानीय सभायें और समुदाय परस्पर मेल-मिलाप एवं सहयोग के वातावरण में कार्य करते थे। धर्म तथा प्राचीन परम्परायें इन्हें परस्पर जोङने का काम करती थी। सभाओं तथा समुदायों के नेतृत्व का निर्धारण आयु, विद्वता, संपत्ति तथा जन्म के आधार पर किया जाता था। नगरों में व्यापारियों के विभिन्न संगठन थे।

बणञ्ज शब्द का उल्लेख अनेक लेखों में मिलता है, जो व्यापारियों के एक व्यवापक संगठन का सूचक है। इसे वलंजियम्, वलंजियर, बलंजि, वणंजि आदि विभिन्न नामों से भी जाना जाता था। कुछ लेखों में व्यापारियों के लिये नगरम् का प्रयोग किया गया है। ये उन्ही स्थानों पर होते थे, जहाँ व्यापार दूसरे व्यवसायों पर प्रभावी रहता था। इनका नामकरण प्रायः इनके निवास स्थानों के आधार पर ही किया गया था। इनका कार्य व्यापार-व्यवसाय को प्रोत्साहन देना था।राजेन्द्र चोल कालीन एक अभिलेख में बणञ्ज समाज की प्रशंसा करते हुये बताया गया है, कि ये वीर बलंजिय धर्म अर्थात् उत्तम बणिकों के धर्म के पुण्यात्मा संरक्षक थे। ये वासुदेव, कण्डलि और वीरभद्र के पुत्र तथा भट्टारकी (दुर्गा) के भक्ति थे। इस श्रेणी के विभिन्न उपविभाग थे, जो चारों दिशाओं के एक हजार मंडलों, अठारह नगरों, बत्तीस वेलपुरम् तथा चौंतीस घटिका स्थानों में फैले हुए थे। इन्होंने मयिलार्यु (मैलापुर) में एकत्रित होकर काट्टर को एक वीरपट्टन के रूप में परिवर्तित करने की घेषणा की, जिसके परिणामस्वरूप यहाँ के लोग समस्त धार्मिक कार्यों से मुक्त हो गये तता उन्हें पहले से अधिक अधिकार प्राप्त हो गये। इसी प्रकार बसिनिकोण्ड अभिलेख से पता चलता है, कि इस संगठन ने शीरावल्लि में सम्मेलन करके उसे नानादेशिय-दशमडि-एङिवीरपट्टन घोषित किया तथा वहाँ के निवासियों को विशेषाधिकार और सुविधायें प्रदान की। तमिल देश में बणञ्ज व्यापारियों की बस्तियों को सामान्यतः वीर पत्तन कहा जाता था।

इस प्रकार स्थानीय प्रशासन चोल काल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वस्तु था, जो गाँव, नगर तथा मंडल की सभाओं द्वारा संचालित होता था। प्रत्येक ग्राम वस्तुतः एक लघु गणतंत्र ही था, जिसे अपने कार्यों में स्वायत्तता मिली हुई थी और यह स्वायत्तता इतनी अधिक थी, कि उच्चस्तर पर होने वाले प्रशासनिक अथवा राजनैतिक परिवर्तन भी इसे प्रभावित नहीं कर सकते थे। प्रत्येक ग्राम राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर था।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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