राजपूतकालीन संस्कृति का इतिहास
राजपूतकालीन( raajapootakaaleen ) भारत में राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से अनेक परिवर्तन दिखाई देते हैं। शासन के क्षेत्र में सामंतवाद( saamantavaad ) का पूर्ण विकास राजपूत युग में ही दिखाई देता है।
राजपूतों की शासन-व्यवस्था
राजपूतकालीन( raajapootakaaleen ) भारत में राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से अनेक परिवर्तन दिखाई देते हैं। शासन के क्षेत्र में सामंतवाद( saamantavaad ) का पूर्ण विकास राजपूत युग में ही दिखाई देता है। राजपूतों का संपूर्ण राज्य अनेक छोटी-2 जागीरों में विभक्त था। प्रत्येक जागीर का प्रशासन एक सामंत के हाथ में होता था, जो प्रायः राजा के कुल से ही संबंधित होता था।
सामंत व्यवस्था किसे कहते हैं, भारत में सामंतवाद कब से प्रारंभ हुआ?
राजपूतों की उत्पत्ति से संबंधित विभिन्न मत।
सामंत महाराज, महासामंत, महासामंताधिपति, मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, मांडलिक, महासामंत, सामंत, लघुसामंत, चतुरंशिक जैसे विविध सामंतों का उल्लेख मिलता है, जो क्रमशः एक लाख, पचास हजार, बीस हजार, दस हजार,पाँच हजार तथा एक हजार गाँवों के स्वामी थे।
चाहमान शासक पृथ्वीराज, कलचुरि शासक कर्ण तथा चौलुक्य शासक कुमारपाल के शासन में क्रमशः 150,136 तथा 72 सामंतों के अस्तित्व का पता चलता है।
चौहान अथवा चाहमान शासकों का इतिहास।
चौलुक्यों अथवा सोलंकी शासकों का इतिहास।
इस प्रकार राजपूत शासक अपनी प्रजा पर शासन न करके सामंतों पर शासन किया करते थे। सामंतों के पास अपने न्यायालय तथा मंत्रिपरिषद होती थी। सामंत लोग समय-समय पर अपने राजा के दरबार में उपस्थित होकर भेंट-उपहार आदि दिया करते थे।
जब राजा का राज्याभिषेक होता था, तो सामंत की उपस्थिति आवश्यक होती थी।
सामंतों के पास अपनी अलग-अलग सेना होती थी। कुछ शक्तिशाली सामंत अपने अधीन कई उपसामंत भी रखते थे।
छोटे सामंत राजा, ठाकुर, भोक्ता आदि उपाधियाँ ग्रहण करते थे। इस प्रकार राज्य की वास्तविक शक्ति और सुरक्षा की जिम्मेदारी सामंतों पर ही होती थी। सामंतों में राजभक्ति की भावना बङी प्रबल होती थी। वे अपने स्वामी के लिये सर्वस्व बलिदान करने के लिये सदैव तत्पर रहते थे। सामंतों की संख्या में वृद्धि से सामान्य जनता का जीवन कष्टमय हो गया था। वे जनता का मनमाने ढंग से शोषण करते थे। इस युग के राजा निरंकुश हो रहे थे।
राजपूत युग में वंशानुगत राजतंत्र शासन पद्धति थी। राजा की स्थिति सर्वोपरि होती थी। न्याय तथा सेना सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था। राजा की सम्मानपरक उपाधियाँ – परमभट्टारक, परमेश्वर, महाराजाधिराज जैसी उपाधियाँ होती थी। मनु का अनुकरण करते हुये लक्ष्मीधर ने अपने ग्रंथ कृत्यकल्पतरु ( krtyakalpataru )में राजा को लोकपालों- इंद्र, वरुण, अग्नि, वायु, मित्र आदि के अंश से निर्मित बताया है।
इस काल के व्यवस्थाकारों ने अन्यायी एवं अत्याचारी राजा को प्रजा द्वारा मार डालने का भी विधान किया है। इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि राजा प्रजारक्षम तथा प्रजापालक होता था। राजा निरंकुश होता था, लेकिन व्यवहार में धर्म तथा लोक-परंपराओं द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करता था।
राजपूत काल में राजा अपने कुल तथा परिवार के व्यक्तियों को उच्च पदों पर आसीन करता था। साधारण जनता शासन के कार्यों में भाग नहीं लेती थी तथा राजनैतिक विषयों के प्रति भी उदासीन ही रहती थी। जिसके परिणामस्वरूप राजपूत युग में मंत्रिपरिषद का महत्त्व घट गया था। प्रबंधकोष से पता चलता है, कि कन्नौज के राजा जयचंद्र ने एक शूद्र स्थिति के प्रभाव में पङकर अपने मंत्री की बात नहीं मानी थी। प्रबंधचिंतामणि के अनुसार परमार नरेश मुंज ने अपने प्रधानमंत्री रुद्रादित्य की सलाह के विपरीत चालुक्य नरेश तैलप से युद्ध किया था।
राजपूत युग में लिखे गये ग्रंथों से पता चलता है, कि राजाओं द्वारा मंत्रियों को दंडित किया जाता था।
प्रबंधचिंतामणि तथा दशकुमारचरित से पता चलता है, कि राजा अपने मंत्रियों के नाक-कान काट लेते अथवा उन्हें अंधा बना देते थे।
इन सब कारणों से धीरे-2 मंत्रियों का स्थान एक नियमित नौकरशाही ने ग्रहण कर लिया था।
राजपूतकालीन ग्रंथों में कायस्थ नामक अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। ये अधिकारी अधिकतर ब्राह्मण जाति के होते थे।
केन्द्रीय पदाधिकारी
- सांधिविग्रहिक,
- महाप्रतीहार,
- महादंडनायक,
- धर्मस्थीय,
- सेनापति
उपर्युक्त सभी पदाधिकारी गुप्त काल से ही चले आ रहे थे।
गुप्त काल से संबंधित महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर।
प्रतिहार शासन में दुर्ग के अधिकारी को कोट्टपाल कहा जाता था।…अधिक जानकारी
राजपूतों की सामाजिक व्यवस्था
राजपूतयुगीन समाज वर्णों एवं जातियों के जटिल नियमों में फँसा हुआ था। इस समय में जाति – प्रथा की कठोरता बढी तथा हिन्दू समाज की ग्रहणशीलता एवं सहिष्णुता कम हुई।
चार वर्ण या जाति व्यवस्था क्या थी?
राजपूतों की शासन व्यवस्था कैसी थी?
राजपूतों की उत्पत्ति संबंधि विभिन मत।
चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के अलावा समाज में अनेक जातियाँ तथा उपजातियों ने जन्म ले लिया था।
कल्हण( kalhan ) की राजतरंगिणि( raajatarangini ) के अनुसार समाज में 64 उपजातियाँ हो गयी थी। इनमें से अनेक जातियाँ अछूत समझी जाती थी, जिनको गाँव तथा शहर से बाहर निवास करना पङता था।…अधिक जानकारी
राजपूतों का आर्थिक जीवन
राजपूत काल(Rajput period) में कृषि(Agriculture) जनता की जीविका का मुख्य साधन था। इस समय तक कृषि का पूर्ण विकास हो चुका था। विभिन्न प्रकार के अन्नों का उत्पादन होता था।
राजपूत काल में कृषि
मेरुतुंग(Merutung) कृत प्रबंधचिंतामणि ( prabandh chintaamani )में 17 प्रकार के धान्यों का उल्लेख किया गया है। अनेक ग्रंथों से पता चलता है,कि इस काल में बंगाल में कई प्रकार तथा कई सुगंधों वाले चावल को उगाया जाता था। चावल के अलावा गेहूँ, जौ, मक्का, कोदो, मसूर, तिल, विविध प्रकार की दालें, गन्ना आदि का भी उत्पादन किया जाता था।
राजपूत कालीन भूमि की उर्वरता का उल्लेख भी अरब लेखकों द्वारा किया गया है।
इस काल में सबसे गलत बात यह थी, कि अतिरिक्त उत्पादन( atirikt utpaadan ) के लिये कोई भी प्रोत्साहन नहीं मिलता था, क्योंकि किसान जितना अधिक उत्पादन करते थे, उतना ही अधिक सामंतों की मांग बढ जाती थी। अतः वे कम से कम अनाज पैदा करना ही लाभकारी समझते थे। कृषकों को विभिन्न प्रकार के कर अदा करने पङते थे।
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राजपूतों का धार्मिक जीवन
राजपूत काल (Rajput period)में हिन्दू (ब्राह्मण) तथा जैन धर्म(Jainism) देश में अत्यधिक लोकप्रिय थे। बौद्ध धर्म(Buddhism) का अपेक्षाकृत कम प्रचलन था। और वह अपने पतन की अंतिम अवस्था में पहुँच गया था। हिन्दू धर्म के अंतर्गत भक्तिमार्ग एवं अवतारवाद का व्यापक प्रचलन था।
राजपूतों की सामाजिक दशा कैसी थी?
बौद्ध धर्म से संबंधित महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर
विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य आदि देवी-देवताओं की उपासना होती थी। इनकी पूजा में मंदिर तथा मूर्तियाँ बनाई जाती थी। भक्ति संप्रदाय के आचार्यों में रामानुजाचार्य एवं माधवाचार्य के नाम उल्लेखनीय हैं। शंकराचार्य ने अद्वैतवाद का प्रचार किया, जिसके अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत्ता है, संसार मिथ्या है तथा आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। इसके विपरीत रामानुज ने विशिष्टाद्वैत का प्रचार किया, जिसके अनुसार ब्रह्म एकमात्र सत्ता होते हुए भी सगुण है और वह चित्त और अचित्त (जीव और प्रकृति) शक्तियों से युक्त है। उन्होंने ईश्वर की प्राप्ति के लिये भक्ति को आवश्यक बताया। हिन्दू धर्म में बहुदेववाद की प्रतिष्ठा थी तथा अनेक देवी-देवताओं की उपासना की जाती थी। वैदिक यज्ञ क्रमशः महत्वहीन हो रहे थे तथा पौराणिक धर्म का ही बोलबाला था। इस समय शाक्त संप्रदाय बहुत अधिक लोकप्रिय हो गया था।…अधिक जानकारी
राजपूतकालीन साहित्य
राजपूत राजाओं का शासन काल साहित्य(Literature) की उन्नति के लिये विख्यात है। कुछ राजपूत नरेश स्वयं उच्चकोटि के विद्वान थे। इनमें परमारवंशी मुंज तथा भोज का विशेष उल्लेख किया जा सकता है।
परमार वंश के राजाओं का राजनैतिक इतिहास।
मुंज की राजसभा में निवास करने वाले प्रमुख विद्वान
मुंज एक उच्चकोटि का कवि था। उसकी राजसभा में निम्नलिखित विद्वान निवास करते थे-
- नवसांहसांकचरित के रचयिता पद्मगुप्त,
- दशरूपक के रचयिता धनंजय…अधिक जानकारी
Reference : https://www.indiaolddays.com