इतिहासगुप्तोत्तर कालप्राचीन भारत

सामंती व्यवस्था किसे कहते हैं, सामंतवाद भारत में कब आया

सामंत व्यवस्था का अर्थ

सामंतवाद को अंग्रेजी में फ्यूड्रल सिस्टम कहते हैं। फ्यूडल सिस्टम फ्यूड से बना है, जिसका अर्थ है, भूमि का ऐसा कुछ भाग जो सेवा करने की कुछ शर्तों पर उसका स्वामी किसी सामंत को खेती के लिये देता था, और इस समाज में खेती ही शक्ति का एकमात्र स्त्रोत थी। कुल मिलाकर, यह भूस्वामित्व एवं व्यक्तित्व संबंधों पर आधारित एक सामाजिक पद्धति होती थी, जिसमें परस्पर अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का निर्धारण होता था।

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सामंत व्यवस्था गुप्तोत्तर काल को प्राचीन भारत के अन्य कालों से अलग करती है। सामंत का मूल अर्थ पङोसी होता है, तथा इसका प्रयोग मौर्य काल में पङोसी शासकों के लिये कौटिल्य के अर्थशास्र तथा अशोक के अभिलेख में प्रयोग किया गया है। गुप्त काल के पहले इस शब्द का प्रयोग नीतिकारों द्वारा पङोस की भूमि संपत्ति के लिये किया जाता था। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद प्रशस्ति में वर्णित सीमावर्ती राजा (प्रत्यंतनिर्पति) भी सामंत के मूल अर्थ में आते हैं। गुप्त काल के समाप्त होते-2 तथा निश्चित रूप से 6वी. शता. तक इसका एक नया अर्थ सामने आया।अब सामंत का अर्थ एक पराजित पर पुनर्स्थापित भेंट देने वाला राजा हो गया, जो राज्य की सीमाओं के अंदर था।

सामंती व्यवस्था की उत्पत्ति

सामंतों की उत्पत्ति तथा विकास सामंतवादी व्यवस्था के विकास में एक महत्त्वपूर्ण कङी थी। जहाँ प्रारंभिक काल में प्रशासन का काम केन्द्र द्वारा नियुक्त व्यक्ति देखता या, वहीं गुप्त काल के बाद यह काम पराजित पर पुनर्स्थापित राजाओं के पास आ गया, जो राजा के प्रति वफादार होते थे तथा भेंट भेजते थे। गुप्तोत्तर काल में यह प्रशासन व्यवस्था सीमांत प्रांतों में देखी जा सकता थी, जबकि हर्ष तथा उसके बाद के काल में यह राज्य के केन्द्र में भी पाई जाने लगी। सामंत अपने क्षेत्र में काफी स्वतंत्र होता था। शीघ्र ही उसने पुराने नायबों को संपत्ति तथा सम्मान में पीछे छोङ दिया।

इन शक्तिशाली तत्वों को राज्य का अंग बनाने के उद्देश्य से इन्हें (सामंतों को) राजा के दरबार में ऊँचे पद दिये जाते थे। अतः वल्लभी के राजा, जिसे हर्ष ने पराजित किया था, न सिर्फ महासामंत बने बल्कि महाप्रतिहार तथा महादंडनायक जैसे उच्च पदों पर भी गए। केन्द्रीय दरबार के अधिकारियों ने भी इन पराजित राजाओं के समान सम्मान की मांग की तथा उसे प्राप्त भी किया परंतु सिर्फ पदवियों से संतुष्ट न होकर इन अधिकारियों ने क्षेत्र की भी मांग की। यह भारत के सामंतीकरण की प्रक्रिया थी, जिसे भारतीय सामंती स्वरूप माना जा सकता है।

सामंतवाद के मौलिक विचार

सामंतवाद के दो मौलिक विचार थे

  1. प्रत्येक व्यक्ति का कोई स्वामी होना चाहिये, जो उनकी रक्षा कर सके तथा जिसकी वह बदले में सेवा कर सके।
  2. सभी राजनैतिक एवं सामाजिक संबंधों का आधार भू-नियंत्रण था। वस्तुतः भूमि का अधिकार या भू-नियंत्रण ही इस संबंध का एकमात्र आधार था। संकट के समय इसी से पारस्परिक सेवा एवं सुरक्षा का भी कार्य होता था।

सामंतीकरण की प्रक्रिया को दो बातों ने तेज किया –

  1. वेतन में देने के लिये मुद्रा का अभाव तथा
  2. यह विचार कि राजा का सम्मान उसके सामंतचाकर के आकार पर निर्भर करता था।

अर्थशास्र जैसी पुरानी संहिता अधिकारियों के वेतन का विस्तृत ब्यौरा देती हैं तथा ह्वेनसांग बताते हैं, कि सातवीं शता. में भी कुछ उच्च अधिकारी अपना वेतन नकद पाते थे। इसके बाद विश्व व्यापार में आई मंदी तथा मुद्रा के प्रचलन में कमी के कारण यह आवश्यक हो गया, कि अधिकारियों को वेतन के स्थान पर गांव अथवा जिले का राजस्व प्रदान कर दिया जाए। कुछ समकालीन स्रोत हमें बताते हैं, कि राजा ऐसे दाने को रद्द करने में प्रसन्न होते थे, खासकर अगर उस अधिकारी ने राजा को नाराज किया हो । परंतु आमतौर पर सामंतीकरण की प्रक्रिया केन्द्रीय शासक से ज्यादा मजबूत थी।

सामंतवाद का उदय

सामंतवाद का उदय एवं विकास प्रथम शता.के बाद ब्राह्मणों को दिए जाने वाले भूमि अनुदानों में देखा जा सकता है। गुप्तकाल में उत्तर भारत में इनकी संख्या में बृद्धि हुई जो बाद के काल में और बढती गई। हर्ष के काल में नालंदा बौद्ध विहार को 200 गांवों का स्वामित्व प्राप्त था। ब्राह्मणों तथा मंदिरों को भूमि कर सौंपने का उद्देश्य अपने संरक्षकों के प्रति नागरिक एवं सैनिक सेवा नहीं बल्कि अध्यात्मिक सेवा प्रदान करना था। उन्हें वित्तीय अधिकार एवं कानून-व्यवस्था तथा अपराधियों से जुर्माना वसूलने जैसे प्रशासनिक अधिकार सौंपे जाते थे। ह्वेनसांग के अनुसार राज्य के उच्च अधिकारियों का वेतन भूमि अनुदान के रूप में दिया जाता था, लेकिन ऐसे अनुदान प्राप्त नहीं हुए हैं। संभवतः वे ऐसी वस्तु पर अंकित किये गये होंगे जो नष्ट हो गई होंगी।

भूमिपतियों के एक वर्ग के निर्माण की यह प्रक्रिया पूरे देश में असामान्य थी। यह रिवाज सर्वप्रथम पहली सदी के लगभग महाराष्ट्र में प्रारंभ हुआ था। ऐसा प्रतीत होता है, कि 4 वी. शता.में भूमि अनुदान मध्य प्रदेश के एक बङे भाग में होता था। पश्चिम बंगाल और बंगलादेश में पांचवी-छठी शदी में उङीसा में छठी-सातवीं सदी में, आसाम में सातवीं सदी में, तमिलनाडु में आठवीं सदी में तथा केरल में नवीं-दसवीं सदी में यह प्रथा महत्त्वपूर्ण हो गयी थी। ब्राह्मणों के लिये आय के अतिरिक्त स्रोत का पता लगाने के लिये तथा नए क्षेत्रों में कृषि के विस्तार के लिये भूमि अनुदान की प्रथा सबसे पहले सूदूर, पिछङे तथा कबीलाई क्षेत्रों में प्रारंभ की गयी थी। उपयोगी पाने पर इसका विस्तार मध्य भारत या मध्य प्रदेश में किया गया, जो देश का सभ्य भाग था तथा ब्राह्मणवादी समाज तथा सभ्यता का केन्द्र था।

प्रारंभिक भारतीय सामंतवाद की एक और विशेष बात यह थी, कि 10, 12 या 16 गांव या उनके गुणकों की आर्थिक इकाई की व्यवस्था करना। पहली-दूसरी शता. के मनु के नियम पुस्तक में यह कहा गया है, कि 10 गांवों के संग्राहक को भूमि दान द्वारा वेतन देना चाहिये। ये इकाई राष्ट्रकूट तथा कुछ हद तक पाल राज्य में भी थी।

भारत में सामंतवाद का सामाजिक-आर्थिक पक्ष गुप्त काल से बाद के (जिन्हें ऊपर के तीन वर्णों का सेवक माना जाता था) कृषक के रूप में परिवर्तन के साथ जुङा हुआ है। पुराने बसाए गये क्षेत्रों में संभवतः शूद्रों को जमीन दी गयी। पिछङे क्षेत्रों में अनेक जनजातीय कबीलों को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में भूमि-अनुदान के द्वारा सम्मिलित किया गया तथा उन्हें शूद्र कहा गया। इसी कारण से ह्वेनसांग ने शूद्रों को किसान कहा तथा लगभग चार शता. के बाद अलबरूनी ने भी इसी बात को दोहराया।

प्रारंभिक सामंतवाद की भूमिका

प्रारंभिक सामंतवाद की ऐतिहासिक भूमिका कई कारणों से महत्त्वपूर्ण थी। सर्वप्रथम, भूमि अनुदान द्वारा मध्य भारत, उङीसा तथा पूर्वी बंगाल में नए क्षेत्रों में कृषि का विस्तार संभव हो पाया। यह स्थिति दक्षिण भारत की भी थी। कुल मिलाकर प्रारंभिक सामंतवाद के काल में कृषि का काफी विस्तार हुआ।

उद्यमी ब्राह्मणों ने पिछङे तथा आदिवासी क्षेत्रों में कृषि के नए तरीकों को पहुँचाया। पुजारियों द्वारा कुछ परंपरा तथा विश्वासों को बढावा देने से कबीलायी लोगों की प्रगति हुई। पुजारियों ने आदिवासियों को हल चलाने, खाद का प्रयोग करने, मौसम तथा पौधों का ज्ञान देकर खेती के विकास को मदद दी विशेषकर बरसात के ज्ञान द्वारा। इनमें से अधिकांश बातें कृषि पराशऱ में अंकित हैं, जो इस समय की रचना थी।

दूसरा, भूमि – अनुदान द्वारा दान में दिये गये क्षेत्र का प्रशासन चलाने के लिये एक व्यवस्था मिली, क्योंकि यह कार्य दान प्राप्त करने वाले का होता था। स्थापित तथा पिछङे क्षेत्र में धार्मिक दान से लोगों में स्थापित व्यवस्था के लिये वफादारी के भाव का विकास हुआ। दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्ष सामंत युद्ध के समय सैनिकों द्वारा तथा क्षेत्र के प्रशासन द्वारा स्वामी की सेवा करते थे।

तीसरा, भूमि अनुदान के द्वारा कबीलायी क्षेत्रों का ब्राह्मणीकरण हुआ तथा उन्हें उन्नत जीवन के लाभ मिले। इस अर्थ में सामंतवाद ने देश को जोङने का काम किया। ब्राह्मविवर्त पुराण के अनुसार सैकङों जातियों में तथा मिश्रित जातियों में चार वर्णों के विभाजित होने का मुख्य कारण इन कबीलायी लोगों का ब्राह्मणवादी व्यवस्था से सीधा संपर्क भूमि दान द्वारा स्थापित होना था।

अतः भारतीय सामंतवाद अनेक विकास चरणों से गुजरा। गुप्त काल तथा उसके बाद की दो शता. में ब्राह्मणों तथा मंदिरों को भूमि अनुदान देने की परंपरा प्रारंभ हुई, जिसका स्वरूप तथा संख्या पाल, प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट राज्य में परिवर्तित होता रहा। प्रारंभिक काल में सिर्फ आर्थिक अधिकार दिये जाते थे, पर 8 वी. शता. के बाद मालिकाना हक भी दिया जाने लगा। 11 वी. तथा 12 वी. सदी में यह प्रक्रिया पूर्ण हुई जब पूरा उत्तर भारत आर्थिक तथा राजनैतिक टुकङों में बंट गया तथा किसी न किसी धार्मिक अथवा धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों को दान में दिया गया था, जो इसे जागीर की तरह भोग रहे थे।

सामंतीकरण का परिणाम

सामंतीकरण के परिणामतः राजा का प्रभाव उसके केन्दीय क्षेत्र में भी धीरे-धीरे कम होने लगी, क्योंकि राजस्वदायक भूमि केन्द्रीय प्रशासन के प्रभाव से दूर होने लगी। केन्द्रीय शक्ति के कमजोर होने की प्रक्रिया इन देशों में भी हुई, पर भारत में यह राजस्व का अभिन्न अंग बना गया था। सामंतचक्र पर विशेष जोर से यह आवश्यक अंग बन गया था। समकालीन स्रोतों में राजा के दरबार में सामंतों के बैभव के प्रदर्शन का विशेष तरीका बन गया। सामंत तथा महासामंतों की संख्या से राजा के बैभव का पता चलता है,परंतु इस तरह का सामंतचक्र अस्थिर था। केन्द्रीय शक्ति के कमजोर पङते ही महासामंत स्वतंत्रता या सामंतचक्र के केन्द्र में आने का प्रयास करने लगता था।

References :
1. पुस्तक- भारत का इतिहास, लेखक- के.कृष्ण रेड्डी

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