गुप्त कालइतिहासप्राचीन भारत

गुप्त काल की शासन व्यवस्था कैसी थी

गुप्त काल अपने उत्कर्ष काल में उत्तर में हिमालय से दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पूर्व से बंगाल की खाङी से लेकर पश्चिम में सुराष्ट्र तक फैला था। पाटलिपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी।

शासन व्यवस्था –

गुप्त साम्राज्य की शासन-व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। मौर्य शासकों के विपरीत गुप्तवंशी शासक अपनी दैवी उत्पत्ति में विश्वास करते थे तथा महाराजाधिराज, परमभट्टारक, एकराट्, परमेश्वर, जैसी उपाधियाँ धारण करते थे। समुद्रगुप्त को पृथ्वी पर निवास करने वाला देवता कहा गया। परंतु अपनी दैवी उत्पत्ति के बावजूद वह स्वयं विधि-नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकता था।

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सम्राट कार्यपालिका का सर्वोच्च अधिकारी, न्याय का प्रधान न्यायाधीश एवं सेना का सर्वोच्च सेनापति होता था।युद्ध के समय सम्राट स्वयं सेना का संचालन करता था। प्रशासन के सभी उच्च अधिकारियों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी।

गुप्त काल में रानियों का भी महत्त्व था, जो अपने पतियों के साथ मिलकर कभी-२ शासन चलाती थी। उदाहरण के तौर पर कुमारदेवी ने अपने पति चंद्रगुप्त प्रथम के साथ मिलकर शासन चलाया था। प्रभावतीगुप्ता ने वाकाटक राज्य के शासन का संचालन किया था।

गुप्त काल में सामंतवाद-

गुप्तयुग में सामंतवाद का उदय हो चुका था। इसके लिये समुद्रगुप्त की अधीनस्थ राजाओं के प्रति अपनायी गयी नीति ही उत्तरदायी थी। समुद्रगुप्त ने जीते गये अधिकांश राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया तथा उनके राजाओं को स्वतंत्र रूप से अपने-२ क्षेत्रों में शासन करने का अधिकार प्रदान कर दिया। अधीन राजाओं के अतिरिक्त सम्राट के अधीन अनेक छोटे-२ सामंत हुआ करते थे, जो अपने-२ क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से शासन करते थे तथा नाममात्र के लिये सम्राट की अधीनता स्वीकार करते थे। ये सामंत तथा अधीन शासक महाराज की उपाधि ग्रहण करते थे। उन्हें सेना रखने तथा अपने अधीन जनता से कर वसूल करने का अधिकार प्राप्त था। पूर्वी मालवा में सनकानीक, बुंदेलखंड में परिव्राजक एवं उच्चकल्प वंशों के शासक गुप्तों के सामंत थे।

चंद्रगुप्त द्वितीय कालीन उदयगिरि के एक गुहालेख में सनकानीक महाराज का उल्लेख हुआ है। सामंत शासक अपने लेखों में अपने को पादानुध्यात कहते थे। वे विभिन्न अवसरों पर सम्राट की राजसभा में उपस्थित होते तथा भेंट, उपहार आदि से उसे संतुष्ट रखते थे।कुछ सामंत अत्यधिक शक्तिशाली होते थे। वे अपने अधीन कई छोटे-२ सामंत रखते थे। इनमें परिव्राजक महाराज हस्तिन का उल्लेख किया जा सकता है।

यहाँ पर यह स्पष्ट हो रहा है,कि अब प्रशासन में मौर्यकालीन केन्द्रीय नियंत्रण समाप्त हो गया था।

अमात्य तथा मंत्री-

सम्राट अपने शासन कार्य में अमात्यों, मंत्रियों एवं अधिकारियों से सहायता प्राप्त करता था। अमात्य से तात्पर्य प्रशासनिक अधिकारियों से था। उन्हीं में से योग्यता के आधार पर मंत्री नियुक्त किये जाते थे। प्रयाग प्रशस्ति में राजसभा का उल्लेख मिलता है, जिसके सदस्य सभेय कहे जाते थे। प्रयाग प्रशस्ति का लेखक कौन था ?

राजा का बङा पुत्र उत्तराधिकारी चुना जाता था। सम्राट के छोटे पुत्रों को प्रांतीय शासकों के रूप में नियुक्त करने की प्रथा थी, जैसे कुमारगुप्त प्रथम के छोटे भाई गोविंदगुप्त को मालवा का राज्यपाल नियुक्त किया गया था।

युवराज अपने पिता के शासनकाल में प्रशासनिक कार्यों में उसकी सहायता करता था। गुप्त युग में युवराज की अधीनता में सैनिक विभाग होता था। सम्राट के वृद्ध होने पर प्रशासन का पूरा उत्तरदायित्व युवराज पर ही होता था। उदाहरण के तौर पर कुमारगुप्त प्रथम के समय में स्कंदगुप्त जो उसका पुत्र था ने अपने पिता के काल में सैनिक अभियानों में प्रमुख रूप से भाग लिया करता था।

गुप्तकालीन लेखों से मंत्रियों तथा सचिवों के बारे में भी पता चलता है। जैसे समुद्रगुप्त एवं चंद्रगुप्त द्वितीय के युद्ध सचिव हरिषेण एवं वीरसेन उच्चकोटि के सेनानायक भी थे। वीरसेन के उदयगिरि गुहालेख से पता चलता है, कि वह आनुवंशिक रूप से अपने पद का उपभोग कर रहा था। वह पहले मंत्री के पद पर था, किन्तु बाद में सेनापति (महाबलाधिकृत) के पद पर पहुँच गया था।

केन्द्रीय अधिकारी –

गुप्तकालीन अभिलेखों में निम्नलिखित पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं-

प्रतिहार एवं महाप्रतिहार-

ये राजकीय दरबार के प्रमुख पदाधिकारी थे, जो प्रशासन में भाग नहीं लेते थे। जो लोग सम्राट से मिलना चाहते थे, उन्हें उचित अनुमति-पत्र देना इनका प्रमुख कार्य था। प्रतिहार अंतःपुर का रक्षक एवं महाप्रतिहार राजमहल के रक्षकों का प्रधान होता था।

महासेनापति-

यह सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था।

महासांधिविग्रहिक-

यह एक महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी होता था, जो युद्ध एवं शांति का मंत्री होता था।

दंडपाशिक-

यह पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी होता था,जो आज कल के पुलिस अधीक्षक के समान था।

विनयस्थितिस्थापक-

यह धर्म संबंधी मामलों का प्रधान अधिकारी होता था, जो सार्वजनिक मंदिरों के प्रबंध की देख-रेख करता था, एवं लोगों के नैतिक आचरण पर दृष्टि रखता था।

कुमारामात्य-

अल्तेकर के अनुसार कुमारामात्य उच्च पदाधिकारियों का विशिष्ट वर्ग था, जो आधुनिक आई.ए.एस. वर्ग के पदाधिकारियों की तरह से होता था। इस वर्ग के पदाधिकारी अपनी योग्यता के आधार पर उच्च से उच्च पद पर नियुक्त किये जा सकते थे।

कुमारामात्य का पृथक कार्यालय होता था, जिसे कुमारामात्याधिकरण कहा जाता था।

गुप्त साम्राज्य के पदाधिकारियों को नकद वेतन दिया जाता था।

Reference : https://www.indiaolddays.com

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