इतिहासप्राचीन भारतराजपूत काल

राजपूतों की सामाजिक व्यवस्था कैसी थी

राजपूतयुगीन समाज वर्णों एवं जातियों के जटिल नियमों में फँसा हुआ था। इस समय में जाति – प्रथा की कठोरता बढी तथा हिन्दू समाज की ग्रहणशीलता एवं सहिष्णुता कम हुई।

चार वर्ण या जाति व्यवस्था क्या थी?

राजपूतों की शासन व्यवस्था कैसी थी?

राजपूतों की उत्पत्ति संबंधि विभिन मत

चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के अलावा समाज में अनेक जातियाँ तथा उपजातियों ने जन्म ले लिया था।

कल्हण( kalhan ) की राजतरंगिणि( raajatarangini ) के अनुसार समाज में 64 उपजातियाँ हो गयी थी। इनमें से अनेक जातियाँ अछूत समझी जाती थी, जिनको गाँव तथा शहर से बाहर निवास करना पङता था।

ब्राह्मण

ब्राह्मणों का स्थान राजपूतकाल में सर्वोच्च था। ब्राह्मण राजपूत शासकों के मंत्री तथा सलाहाकर होते थे। इन लोगों को अथाह ज्ञान होता था। ये लोग पवित्र होते थे अर्थात् मांस मदिरा का सेवन नहीं करते थे। इनके कार्य थे- अध्ययन, तप तथा यज्ञ आदि करना।

क्षत्रिय

क्षत्रिय जाति के लोग युद्ध तथा शासन का काम करते थे। इस काल के राजपूत उच्चकोटि के योद्धा होते थे। उनमें साहस, आत्मसम्मान, वीरता तथा स्वदेशभक्ति की भावनायें कूट-कूट कर भरी हुयी होती थी।

वैश्य

वैश्य जाति के लोग व्यापार का काम करते थे तथा धन ब्याज पर उधार देते थे।

शूद्र

शूद्र का कार्य कृषि, शिल्पकारी तथा अन्य वर्णों की सेवा करना था। वैश्य तथा शूद्र लोगों का वेदाध्ययन एवं मंत्रोच्चारण का अधिकार नहीं था।

राजपूत समाज में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन क्या हुआ था ?

पूर्व मध्यकाल में समाज में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ, कि वैश्य वर्ण की सामाजिक स्थिति पतनोन्मुख हुई तथा उन्हें शूद्रों के बराबर कर दिया। इसका मुख्य कारण इस काल के प्रथम चरण (650-1000ई.) में व्यापार-वाणिज्य का पतन था। इसके विपरीत शूद्रों का संबंध कृषि के साथ जुङ जाने से उनकी सामाजिक स्थिति पहले से अच्छी हो गयी। शूद्रों ने कृषक के रूप में वैश्यों का स्थान ग्रहण कर लिया। यही कारण है, कि पूर्व मध्ययुग के कुछ लेखक वैश्यों का उल्लेख केवल व्यापारी के रूप में करते हैं। कुछ निम्न श्रेणी के वैश्य शूद्रों के साथ संयुक्त हो गये। किन्तु 11वीं शती में व्यापार – वाणिज्य की प्रगति होने पर वैश्यों की स्थिति में पुनः सुधार हुआ।

अब कुछ वैश्य समृद्ध हो गये तथा उनकी गिनती बङे सामंतों तथा जागीरदारों में की जाने लगी। इस सामाजिक परिवर्तन का प्रभाव वर्ण-व्यवस्था पर भी पङा।

11-12 वीं शता. तक समाज में जाति प्रथा की रूढियों के विरुद्ध आवाज उठाई गयी। जैन आचार्यों, शाक्त – तांत्रिकों तथा चार्वाक मत के पोषकों ने जाति प्रथा को चुनौती देते हुये कर्म की महत्ता का प्रतिपादन किया।

इस प्रकार हम कह सकते हैं,कि जाति प्रथा के विरोध के पिछे निम्न वर्गों कीआर्थिक स्थिति में सुधार होना भी एक महत्त्वपूर्ण कारण था।

स्रियों की दशा

राजपूत काल में महिलाओं की दशा अच्छी थी। राजपूत लोग अपनी पत्नियों की इज्जत करते थे। इस काल में स्वयं वर होते थे। लङकियाँ अपना वर स्वयं चुनती थी। अंतर्जातीय विवाह (अनुलोम) भी होते थे। कुलीन वर्ग के लोग कई पत्नियाँ रखते थे। बालविवाह का प्रचलन भी था। समाज में सती तथा जौहर प्रथाएँ चलती थी।

हिन्दू विवाह के प्रकार एवं इनके रिवाज

जौहर प्रथा- इस प्रथा में महिलायें अपने आप को विदेशियों से बचाने के लिये सामूहिक रूप से प्राण त्याग देती थी।

सती प्रथा-इस प्रथा में पति की मृत्यु के बाद वे चिता बनाकर जल जाती थी।

समाज की उच्च वर्ग की महिलाओं में पर्दा प्रथा का भी प्रचलन था।

सामान्य वर्ग के परिवार की महिलाओं की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी, विधवा विवाह की कोई प्रथा नहीं थी, तथा विधवा को देखना ही अपशकुन माना जाता था। विधवा के बाल काट दिये जाते थे । बाल विवाह के कारण शिक्षा का स्तर भी गिर रहा था।

लेकिन उच्च वर्ग की महिलाओं को प्रशासनिक तथा सैनिक शिक्षा दी जाती थी। उदाहरण के तौर पर चालुक्यवंशी विजयभट्टारिका तथा कश्मीर की दो महिलाओं सुगंधा तथा दिद्दा ने कुशलतापूर्वक प्रशासन का संचालन किया था।

चालुक्यशासन में अनेक स्री गवर्नरों एवं पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं।

राजपूताकल की विदूषी महिलायें-

  • राजशेखर की पत्नी अवंतीसुंदरी,
  • मंडनमिश्र की पत्नी भारती ने प्रख्यात दार्शनिक शंकराचार्य को पराजित किया था।

इस काल के व्यवस्थाकारों ने स्री के संपत्ति-संबंधी अधिकारों को मान्यता प्रदान कर दी थी।

अल्बेरूनी ( alabaroonee )के विवरण से पता चलता है, कि स्रियाँ पर्याप्त शिक्षित होती थी तथा सार्वजनिक जीवन में सक्रिय होती थी।

अलबरूनी(Alberuni) कौन था?

राजपूतों के मनोरंजन के साधन

राजपूतों को घुङसवारी तथा हाथियों की सवारी का अत्यधिक शौक था। वे आखेट में रुचि लेते थे। मदिरापान, धूतक्रीङा, अफीम सेवन आदि के दुर्व्यन भी उनमें प्रचलित थे।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
2. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास, लेखक-  वी.डी.महाजन 

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