इतिहासप्राचीन भारतराजपूत काल

राजपूतों का आर्थिक जीवन कैसी था

राजपूत काल(Rajput period) में कृषि(Agriculture) जनता की जीविका का मुख्य साधन था। इस समय तक कृषि का पूर्ण विकास हो चुका था। विभिन्न प्रकार के अन्नों का उत्पादन होता था।

राजपूत काल में कृषि

मेरुतुंग(Merutung) कृत प्रबंधचिंतामणि ( prabandh chintaamani ) में 17 प्रकार के धान्यों का उल्लेख किया गया है। अनेक ग्रंथों से पता चलता है,कि इस काल में बंगाल में कई प्रकार तथा कई सुगंधों वाले चावल को उगाया जाता था। चावल के अलावा गेहूँ, जौ, मक्का, कोदो, मसूर, तिल, विविध प्रकार की दालें, गन्ना आदि का भी उत्पादन किया जाता था।

राजपूत कालीन भूमि की उर्वरता का उल्लेख भी अरब लेखकों द्वारा किया गया है।

इस काल में सबसे गलत बात यह थी, कि अतिरिक्त उत्पादन( atirikt utpaadan ) के लिये कोई भी प्रोत्साहन नहीं मिलता था, क्योंकि किसान जितना अधिक उत्पादन करते थे, उतना ही अधिक सामंतों की मांग बढ जाती थी। अतः वे कम से कम अनाज पैदा करना ही लाभकारी समझते थे। कृषकों को विभिन्न प्रकार के कर अदा करने पङते थे।

सामंती व्यवस्था क्या थी, भारत में सामंतवाद कब से प्रारंभ हुआ?

राजपूत काल में प्रचलित कर निम्नलिखित हैं

भाग( bhaag )

किसानों से उपज के अंश के रूप में लिया जाता था।

भोग( bhog )

राजा के उपभोग के लिये समय-समय पर प्रजा द्वारा दिया जाता था।

बलि( bali )

राजा को उपहार के रूप में मिलता था।

धान्य( dhaany )

कुछ विशेष प्रकार के अनाजों पर लगाया जाता था।

हिरण्य( hirany )

नकद वसूल किया जाने वाला कर।

उपरिकर( uparikar )

जो किसान भूमि पर स्थाई तथा अस्थाई रहते थे उनसे लिया जाता था।

अद्गंङ

जो किसान भूमि पर स्थाई तथा अस्थाई रहते थे उनसे लिया जाता था।

उदकभाग( udakabhaag )

किसान राज्य की भूमि की सिंचाई के लिये जल के भाग के रूप में कर देते थे। इसे ही उदकभाग कहा गया है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि भूमि पर स्वामित्व राजा तथा किसान दोनों का ही होता था। राजा भूमि का स्वामी होने के कारण उसकी उपज का अपना भाग नियमित रूप से प्राप्त करता था, जबकि किसान उसका स्वामी होने के कारण अपनी इच्छा तथा सुविधा के अनुसार उसका उपयोग करता था।

गहङवाल तथा कलचुरि लेखों में कई प्रकार के करों का उल्लेख किया गया है। इन्हीं करों में से एक तुरुषकदंड नामक कर था, जो मुस्लिम जनता से लिया जाता था। फुटकर सामानों की बिक्री करने वाले व्यापारी प्रवणिकर देते थे।

राजपूत शासकों ने कृषि की उत्तम व्यवस्था करवाई थी। इस उद्देश्य से उन्होंने कई कुएँ, तालाब, झीलें, नहरों आदि का निर्माण करवाया था।

चौहान नरेश अर्णोराज ने तथा उसके पुत्र बीसलदेव ने क्रमशः अनासागर नामक झील तथा बीसलसर नामक तालाब खुदवाया था।

चंदेल तथा परमार शासकों के काल में महोबा और धारा नगरी में अनेक झीलों का निर्माण करवाया गया।

धारा नगरी के विद्वान शासक भोज ने भोपाल के दक्षिण -पूर्व में 250 मील लंबा भोजसर नामक तालाब का निर्माण करवाया था।

8 वीं शता. के बाद से अरघट्ट अथवा अरहट्ट का उल्लेख मिलने लगता है, जिससे पता चलता है,कि अधिकतर रहँट द्वारा कुँओं से पानी निकालकर खेतों तक पहुंचाया जाता था। अब धीरे-2 सिंचाई में निपुणता दिखाई देने लगी थी।

राजपूत काल में व्यापार-वाणिज्य

इस काल में व्यापार-वाणिज्य उन्नत अवस्था में था। यातायात की सुविधा के लिये देश के प्रमुख नगरों को सङकों द्वारा जोङ दिया गया था। इस समय के लेखों में विभिन्न प्रकार के व्यापारियों का उल्लेख मिलता है, – तैलिक, रथकार, बढई, ताम्बूलिक, मालाकार, कलाल (सुरा बेचने वाले) ।

इस काल में नगरों के निर्माण में विशाल पाषाखंडों का प्रयोग हुआ था, जिससे पता चगाया जा सकता है, कि पत्थर तराशने का उद्योग भी विकसित हो गया था। लोहे के अस्र-शस्र एवं धातुओं के बर्तन तथा आभूषण बनाने का व्यवसाय भी उन्नति पर था।

अलबरूनी जूते बनाने, टोकरी बनाने, ढाल तैयार करने, मत्स्य-पालन, कताई-बुनाई, आदि का उल्लेख करता है। राजस्थान की सांभर झील से नमक तैयार किया जाता था।

व्यवसायियों की अलग-अलग श्रेणियाँ होती थी। अधिकांश श्रेणियों के पास सभा-भवन होते थे, जहाँ बैठकर उनके सदस्य विचार-विमर्श किया करते थे। राज्य उनके नियमों का आदर करता था। श्रेणियों का मुख्य काम व्यावसायिक उत्पादन में वृद्धि करना तथा वितरण एवं उपभोग की वस्तुओं की उचित व्यवस्था करना होता था। वे अपने क्षेत्र में कार्य करने के लिये स्वतंत्र थी तथा राजा को उनका निर्णय मानना पङता था। किन्तु इस काल में श्रेणियाँ उतनी शक्तिशाली नहीं थी, जितनी कि पूर्ववर्ती काल में। इसका कारण यह था,कि अर्थतंत्र पर सामंतों का प्रभाव बढ गया था।

विदेशों के साथ व्यापार

राजपूत काल में आंतरिक तथा बाहरी दोनों ही तरह के व्यापार होते थे। अलबरूनी भारत के प्रमुख नगरों को जोङने वाले मार्गों का वर्णन करता है। स्थल मार्ग के अलावा जलमार्ग भी थे।

प्रमुख अरबी लेखक- अलवरूनी तथा इब्नबतूता।

बङे-बङे नगर नदियों से जुङे हुये थे। बाह्म देशों के साथ समुद्र के माध्यम से व्यापार होता था। भारतीय मालवाहक जहाज अरब, फारस, मिस्र, चीन, पूर्वी द्वीपसमूह आदि को जाया करते थे। पश्चिमी एशिया तथा मिस्र से अरब व्यापारी तथा सौदागर भारत पहुँचते थे। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है, कि इस युग में अतिरिक्त उत्पादन के अभाव ने दूरवर्ती देशों के साथ व्यापार को प्रभावित किया तथा यह सीमित हो गया। निरंतर युद्धों के कारण व्यापार की प्रगति में बाधा पहुँची थी।

आर्थिक क्षेत्र में अब साहूकारों का महत्त्व बढ गया था। इन बढते हुये साहूकारों के महत्त्व का कारण यह था, कि ऋण पर ब्याज की दर पच्चीस से तीस प्रतिशत तक हो गयी और इससे सूदखोर लोग अत्यधिक समृद्ध हो गये।

विद्वानों ने पूर्वमध्यकाल को आर्थिक विकास की दृष्टि से दो भागों में बाँटा है, –

प्रथम चरण (650-1000ई.) में सिक्कों तथा मुहरों का घोर अभाव है। इस कारण इसे आर्थिक दृष्टि से पतन का काल कहा गया है। लगातार युद्धों तक सामंतों के अत्यधिक प्रभाव के कारण व्यापार-वाणिज्य की प्रगति को आघात पहुंचा। सामंत शासक अपने- अपने क्षेत्रो में व्यापारियों से चुंगी वसूल करते थे, जिससे उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल ले जाने में कठिनाई होती थी। आवागमन के मार्ग भी सुरक्षित नहीं थे। कई सामंत ऐसे थे, जो डाकुओं के साथ मिलकर व्यापारियों को लूटा करते थे।

किन्तु 1000-1200 ईस्वी में जब कुछ बङे राजपूत राज्यों जैसे चौहान, परमार, चंदेल आदि की स्थापना हुई और राजनैतिक विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति पर अंकुश लगा तो व्यापार-वाणिज्य में पुनरुत्थान हुआ। इन वंशों के शासकों ने इसे प्रोत्साहन दिया। परमार शासक भोज की व्यापार-वाणिज्य में गहरी अभिरुचि थी, जिसका प्रमाण उसकी रचना युक्तिकल्पतरु से मिलता है। भोज के समय के विभिन्न प्रकार के व्यापारिक जहांजों का विवरण मिलता है। दो प्रकार के जहांजों – नदी मार्ग से होकर जाने वाले जहांज तथा समुद्री मार्ग से होकर जाने वाले जहांज का उल्लेख मिलता है।

जहांजरानी उद्योग के भी प्रमाण मिलते हैं। व्यापारी बहुत अधिक कर देते थे। 11-12वीं शता. में व्यापार-वाणिज्य का जो पुनरुथान हुआ उसका एक कारण उत्पादन का अधिशेष को भी माना जा सकता है। मध्य तथा पश्चिमी भारत में गन्ना, कपास तथा सन जैसी नकदी फसलों की खेती प्रभूत मात्रा में होने लगी। इनसे तैयार वस्तुओं को देहाती सौदागर खरीदकर बंदरगाहों में भेजते थे, जहाँ से उनका निर्यात किया जाता था।

मार्कोपोलो के विवरण से पता चलता है, कि गुजरात में कपास के पौधों से काफी रुई निकलती थी। व्यापार-वाणिज्य की प्रगति के कारण ही हमें पूर्व मध्यकाल के द्वितीय चरण में सिक्के तथा मुहरें बङी संख्या में मिलने लगती हैं।

सिक्कों का प्रचलन

सिक्का प्रचलित करने का कार्य गहङवाल वंश के शासकों ने सर्वप्रथम किया था।

मदनपाल (1102-1111 ई.) के द्रम्म नामक सिक्के मिलते हैं। कुछ ताम्र सिक्कों पर हनुमान की आकृति मिलती है।

चंदेल शासकोंकीर्तिवर्मा, मदनवर्मा, परमर्दि एवं त्रैलोक्यवर्मा। और साथ ही साथ गहङवाल शासकों गोविन्दचंद्र, चौलुक्य जयसिंह सिद्धराज, परमार उदयादित्य आदि ने स्वर्ण सिक्के निर्मित करवाये थे।

स्वर्ण के साथ-साथ रजत, कांस्य तथा ताम्र सिक्के भी ढलवाये गये। कलचुरि तथा चंदेल सिक्कों पर लक्ष्मी की आकृति प्राप्त होती है। मुहम्मद ने भी लक्ष्मी प्रकार के सिक्के ढलवाये थे।

चाहमानों को भी बहुत से सिक्के ढलवाने का श्रेय दिया जाता है। इस समय के हजारों की संख्या में प्राप्त गधैया सिक्कों में अधिकांश गुहिलों तथा चाहमानों के हैं।

पूर्व मध्यकालीन साहित्य में सिक्कों के लिये विविध नाम – दीनार, द्रम्म, रूपक, कार्षापण, विंशोपक, विंशतिका आदि।

विंशोपर या विशोयक, रूपक (सिक्का) का 20वां भाग था, जो संभवतः तांबे का होता था। मध्य भारत, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मालवा तथा गुजरात में जिन सिक्कों का प्रलचन हुआ, उनसे व्यापार-वाणिज्य में प्रगति आई।

अब दुकानदारों तथा व्यापारियों से कर नकद लिया जाने लगा। 11वीं शती से भारत का विदेशों के साथ व्यापार पुनः तेज हो गया। कोंकण क्षेत्र के व्यापारी सुदूर विदेशों को जाते थे तथा वहाँ के शासकों को व्यापारियों से काफी कर मिलता था। चीन के साथ भी भारत का व्यापार प्रारंभ हो गया था। मार्कोपोलो कई भारतीय जहांजों का उल्लेख करता है,जो माल लेकर चीन के फूचो बंदरगाह पर उतरते थे। पश्चिमी तट पर कई बंदरगाहों का उल्लेख मिलता है, जहाँ अरब तथा चीन के व्यापारी आते थे। भारत से मोटे कपङे, शकर, अदरख आदि भी चीन भेजे जाते थे।

भारतीय सामानों के लिये चीन को ढेर सारी स्वर्ण मुद्रायें भारत को देनी पङती थी। चाऊ-जू-कुआ के विवरण से पता चलता है,कि अपनी आर्थिक दशा सुधारने के लिये चीन को 12वीं शती में मालवा तथा क्विलोन के साथ अपना व्यापार प्रतिबंधित करना पङा था।

राजपूत युग में देश की अधिकांश संपत्ति मंदिरों में जमा थी। इसी कराण मुस्लिम विजेताओं ने मंदिरों को लूटा तथा अपने साथ बहुत अधिक संपत्ति एवं बहुमूल्य सामग्रियाँ ले गये। कहा जाता है, कि महमूद गजनवी अकेले सोमनाथ मंदिर से ही बीस लाख दीनार मूल्य का माल ले गया था। इसी प्रकार मथुरा की लूट में भी उसे अतुल संपत्ति प्राप्त हुी थी। नगरकोट की लूट में प्राप्त सिक्कों का मूल्य सत्तर हजार दिरहम (दीनार) था।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
2. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास, लेखक-  वी.डी.महाजन 

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