इतिहासराजस्थान का इतिहास

जोधपुर में जन आंदोलन

जोधपुर में जन आंदोलन – जोधपुर या मारवाङ में जन आंदोलन की शुरूआत 1918 ई. में हो गयी थी, जबकि चाँदमल सुराणा ने मारवाङ हितकारिणी सभा की स्थापना की थी। किन्तु यह संस्था अधिक सक्रिय नहीं हो सकी। तत्पश्चात् 1920 ई. में जयनारायण व्यास ने मारवाङ सेवा संघ का गठन किया। इसी समय राज्य सरकार ने राज्य में 100 तोले के सेर के स्थान पर 80 तोले का सेर (जैसे कि ब्रिटिश भारत में था) प्रचलित करने का निर्णय लिया। इस पर मारवाङ सेवा संघ ने जोधपुर में सफल हङताल का आयोजन किया। फलस्वरूप सरकार को विवश होकर नया तोल जारी करने का निर्णय रद्द करना पङा। इसके बाद मारवाङ सेवा संघ निर्जीव सा हो गया। अतः 1923 ई. में पुरानी संस्था मारवाङ हितकारिणी सभा को पुनर्जीवित किया गया। राज्य सरकार के मादा पशुओं के निर्यात के आदेश के विरुद्ध इस सभा ने विरोध किया। इसका एक शिष्टमंडल महाराजा से मिला, जिसका कोई परिणाम नहीं निकला। किन्तु जनता को राजनीतिक चर्चा का विषय उपलब्ध हो गया। कुछ महीनों बाद महाराजा ने मादा पशुओं की निकासी का आदेश वापिस ले लिया। जनता में मारवाङ हितकारिणी सभा के नेतृत्व में निष्ठा पैदा हो गयी। यह महाराजा के लिये असहनीय था। अतः 20 मार्च, 1925 ई. को सभा के कुछ नेताओं को राज्य से निर्वासित कर दिया। सर्वश्री जयनारायण व्यास, आनंदराज सुराणा, कस्तूर करण, अब्दुल रहमान अन्सारी आदि को दस नम्बरी करार देकर उनके लिये प्रतिदिन पुलिस थाने में हाजिरी देना अनिवार्य कर दिया। चाँदमल सुराणा, शिवकरण जोशी, जयनारायण व्यास के प्रयत्नों से 1925 के अंत में महाराजा ने हितकारिणी सभा के नेताओं पर लगाये गये प्रतिबंध समाप्त कर दिये। कुछ समय बाद जयनारायण व्यास को ब्यावर जाना पङा जहाँ से उन्होंने जोधपुर राज्य प्रशासन के विरुद्ध तरुण राजस्थान के माध्यम से प्रचार अभियान चलाया।

1927 ई. में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद के प्रथम अधिवेशन में भाग लेकर जयनारायण व्यास जोधपुर लौट गये। मारवाङ हितकारिणी सभा अब अधिक सक्रिय हुई और इसने राज्य में उत्तरदायी शासन की माँग प्रस्तुत की। अक्टूबर, 1929 में जयनारायण व्यास ने मारवाङ राज्य लोक परिषद का अधिवेशन जोधपुर में करने की घोषणा की। किन्तु जोधपुर प्रशासन ने अधिवेशन आयोजित करने की अनुमति नहीं दी। मारवाङ हितकारिणी सभा की ओर से दो पुस्तिकाएँ – मारवाङ की अवस्था और पोपा बाई की पोल प्रकाशित की गयी, जिनमें मारवाङ प्रशासन की कटु आलोचना की गयी। इन पुस्तिकाओं का वितरण करने के अपराध में दरबार ने जयनारायण व्यास, आनंदराज सुराणा और भँवरलाल सर्राफ को बंदी बना लिया। इन तीनों नेताओं पर एक विशेष अदालत में राजद्रोह का मुकदमा चला कर तीनों को 4-5 वर्षों के कठोर कारावास की सजा दी गयी। परंतु मार्च, 1931 ई. में इन तीनों नेताओं को छोङ गिया गया।

इन सभी नेताओं को छोङने के बाद एक जोधपुर युवक लीग का गठन किया गया। इसी समय देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ हो चुका था। युवकों ने स्वदेशी के प्रचार के लिये एक विशाल सभा का आयोजन किया तथा विदेशी वस्रों और शराब की दुकानों की पिकेटिंग करने का निश्चय किया गया, खादी के प्रयोग पर बल दिया गया तथा शिक्षण संस्थाओं में विद्यार्थी हङताल पर चले गये। जोधपुर में वातावरण अनुकूल न होने के कारण मारवाङ राज्य लोक परिषद का अधिवेशन पुष्कर में किया जाना तय हुआ और कस्तूरबा गाँधी को अधिवेशन में भाषण देने के लिये आमंत्रित करवाना चाहा। किन्तु कार्यकर्ताओं की सतर्कता के कारण, दरबार अपने प्रयत्नों में सफल नहीं हुआ। 24-25 नवम्बर, 1931 ई. को पुष्कर में चाँदकरण शारदा की अध्यक्षता में मारवाङ राज्य लोक परिषद का अधिवेशन सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया। अतः जोधपुर सरकार बौखला उठी और जनवरी, 1932 ई. में मानमल जैन, अभयमल मेहता, जयनारायण व्यास आदि कई लोगों को आपत्तिजनक सामग्री के वितरण के अपराध में बंदी बना लिया। मार्च, 1932 ई. में मारवाङ हितकारिणी सभा को अवैध घोषित कर दिया, राज्य कर्मचारियों द्वारा किसी राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया और उनका किसी ऐसी सभा में भाग लेना आपत्तिजनक माना गया, जिसमें राज्य प्रशासन की आलोचना होती हो। फिर भी, नवयुवकों का उत्साह ठंडा नहीं पङा। 1932 ई. में जब राज्य में पहली बार स्वाधीनता दिवस मनाया गया और छगनराज चौपासनीवाला ने तिरंगा ध्वज फहराया, तब उन्हें पकङ लिया गया और बुरी तरह से पीटा गया। बाद में उसे छोङ दिया गया। अचलेश्वर प्रसाद शर्मा को भी छः महीने तक नजरबंद रखा गया। इस वातावरण में भी 1934 ई. में प्रजा मंडल की स्थापना की गयी, जिसके प्रथम अध्यक्ष भँवरलाल सर्राफ बने। इसका मुख्य उद्देश्य राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना तथा राज्य में लौकिक अधिकारों की रक्षा करना था। अब राज्य में सरकार की दमन नीति की अत्यधिक चर्चा और आलोचना होने लगी।

1936 ई. में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद का अधिवेशन करांची में हुआ। पंडित जवाहरलाल नेहरू, परिषद के अध्यक्ष और जयनारायण व्यास महामंत्री चुने गये। देशी राज्य लोक परिषद के अध्यक्ष होने के नाते जवाहरलाल नेहरू मार्च, 1936 ई. में राज्य में राजनीतिक स्थिति की जानकारी प्राप्त करने के लिये जोधपुर आये। अपने सार्वजनिक भाषण में पंडित नेहरू ने राज्य की जनता को नैतिक समर्थन दिया और राज्य के संघर्ष को अँग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध भारतीय स्वाधीनता संघर्ष का अंग घोषित किया। पंडित नेहरू की जोधपुर से वापसी के तत्काल बाद जोधपुर दरबार ने प्रजा मंडल को गैर-कानूनी संस्था घोषित कर दिया। तब, राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने एक नया संगठन नागरिक अधिकार रक्षक सभा का गठन किया। इस सभा ने मई-जून, 1936 ई. में राज्य की स्कूलों एवं कॉलेजों में फीस वृद्धि के विरुद्ध आंदोलन किया। सरकार ने सभा की बात स्वीकार कर ली। किन्तु जुलाई, 1936 ई. में जब इस सभा ने राज्य में नागरिक अधिकारों तथा विधान सभा की स्थापना की माँग की तो सरकार ने इस संगठन को भी गैर कानूनी घोषित कर दिया।

1938 ई. में हरिपुरा काँग्रेस अधिवेश ने भारतीय राज्यों के संबंध में एक विस्तृत प्रस्ताव पारित कर दिया, जिससे विभिन्न राज्यों में स्थानीय नेतृत्व के लिये आंदोलन करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। किन्तु जोधपुर में प्रजा मंडल और नागरिक अधिकार रक्षक सभा को गैर कानूनी घोषित किया जा चुका था। जनवरी, 1938 ई. में सुभाषचंद्र बोस जोधपुर आये और उन्होंने लोगों को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये त्याग और समर्पण करने के लिये प्रेरित किया। अन्ततः मई 1938 ई. में मारवाङ लोक परिषद की स्थापना की गयी। जिसका उद्देश्य महाराजा की अध्यक्षता में उत्तरदायी शासन स्थापित करना था। यद्यपि इस समय जयनारायण व्यास राज्य से निर्वासित थे, लेकिन उनकी प्रेरणा कार्य कर रही थी। मारवाङ लोक परिषद ने सर्वप्रथम राजनैतिक कार्यकर्त्ताओं की रिहाई, जोधपुर नगरपालिका परिषद का पुनर्गठन और नगरपालिका परिषद के चुनाव साम्प्रदायिकता के स्थान पर क्षेत्रीय आधार पर करवाने की माँगें प्रस्तुत की। इसी बीच फरवरी, 1937 ई. में बीकानेर महाराजा गंगासिंह ने जोधपुर के मुख्यमंत्री डोनाल्ड फील्ड को एक पत्र लिखा था, जिसमें जयनारायण व्यास के प्रति उदार व्यवहार की सिफारिश की गयी थी। फरवरी, 1939 ई. में जयनारायण व्यास के जोधपुर प्रवेश पर प्रतिबंध हटा लिया गया। इधर जोधपुर महाराजा ने राज्य की केन्द्रीय सलाहकार परिषद का पुनर्गठन किया और जयनारायण व्यास को भी इसका सदस्य मनोनीत किया । जोधपुर लौटने पर व्यासजी ने इसकी सदस्यता स्वीकार कर ली। इस पर व्यासजी की काफी आलोचना हुई। व्यासजी ने अपने इस कार्य का औचित्य सिद्ध करने के लिेय तर्क दिया कि इस कार्य से मारवाङ लोक परिषद पर राज्य सरकार द्वारा अत्याचार नहीं होगा और इस संस्था को सुदृढ आधार पर खङा किया जा सकेगा। केन्द्रीय सलाहकार परिषद ने प्रेस कानून में ढील दी, टाइप मशीनों को रजिस्टर कराने का आदेश रद्द कर दिया, जागीर क्षेत्र की जाँच में सरकारी अधिकारियों द्वारा जागीरदार के मेहमान बनने पर प्रतिबंध लगा दिया और जोधपुर नगरपालिका के चुनाव क्षेत्रीय (वार्ड) आधार पर कराने का निर्णय किया। लेकिन कुछ ही महीनों में सरकार और व्यासजी के बीच मतभेद पैदा हो गये। अतः दिसंबर, 1939 ई. में व्यासजी ने सलाहकार परिषद से त्याग पत्र दे दिया।

जनवरी, 1940 ई. में व्यासजी ने अखिल राजस्थान देशी राज्य लोक परिषद का पहला अधिवेशन जोधपुर में कराने की घोषणा की। राज्य सरकार ने पुनः दमन नीति का सहारा लिया। मार्च, 1940 को डोनाल्ड फील्ड ने जागीरदारों को परिषद की गतिविधियों पर निगाह रखने की सलाह दी।मारवाङ लोक परिषद को एक क्रांतिकारी संस्था घोषित कर दिया गया और 29 मार्च 1940 को मारवाङ लोक परिषद को गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया। इस पर जोरदार आंदोलन छिङ गया। सरकार ने व्यासजी सहित 7 प्रमुख नेताओं को बंदी बना लिया। फिर भी आंदोलन जोर पकङता गया। शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को जेल में ठूँसा जाने लगा। रणछोङदास सर्राफ आदि नेताओं को बंदी बना लिया। संभवतः आंदोलन और जोर पकङता लेकिन महाराजा को इंग्लैण्ड जाना था, इसलिए जून, 1940 में मारवाङ लोक परिषद के साथ समझौता कर लिया। सरकार ने लोक परिषद का पहला खुला अधिवेशन करने की अनुमति दे दी। व्यासजी इस परिषद के अध्यक्ष चुने गये। जून, 1941 ई. में जोधपुर नगरपालिका के चुनाव क्षेत्रीय आधार पर हुए, जिसमें लोक परिषद के सदस्यों को बहुमत प्राप्त हुआ और व्यासजी अध्यक्ष निर्वाचित हुए। लेकिन जब लोक परिषद के कार्यकर्त्ताओं ने गाँवों कें किसानों को जागीरदारों के अत्याचारों के विरुद्ध जाग्रत करना आरंभ किया तब महाराजा ने इस प्रतिनिधि सभा के गठन के संबंध में एक ऐसी योजना बनायी जिसमें अप्रत्यक्ष चुनावों की पद्धति से सामंती तत्त्वों का प्रभुत्व हो सके और लोक परिषद के सदस्य बहुत कम संख्या में चुने जा सकें। लोक परिषद ने इसका तीव्र विरोध किया तो महाराजा ने राज्य में राजनीतिक अधिकारों की माँग को लोक परिषद और सामंती तत्वों के बीच एक संघर्ष का रूप दे दिया। महाराजा ने लोक परिषद को कुचलने के लिये सामंती तत्वों को सहायता के लिए बुला लिया। फलस्वरूप राज्य में स्थिति तनावपूर्ण हो गयी।

अब जागीरदारों द्वारा लोक परिषद के कार्यकर्त्ताओं पर अत्याचार आरंभ कर दिये गये। अप्रैल, 1942 ई. में चंडावल के ठाकुर ने लोक परिषद के कार्यकर्त्ताओं को खूब पिटवाया। मई. 1942 ई. में लोक परिषद ने अत्याचारों के विरुद्ध तथा राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना हेतु आंदोलन आरंभ कर दिया। व्यासजी ने लोक परिषद का विधान स्थगित कर अपने-आपको पहला डिक्टेटर घोषित कर दिया। 26 मई, 1942 ई. को व्यासजी को बंदी बना लिया। राज्य में ज्यों-ज्यों आंदोलन बढता गया, राज्य सरकार आंदोलनकारियों को जेल में ठूँसती गयी। जेल में इन बंदियों के साथ दुर्व्यवहार किया गया। इस पर व्यासजी सहित 41 सत्याग्रहियों ने जेल में भूख हङताल आरंभ कर दी। 12 जून, 1942 को एक भू ख हङताली कर्मचारी बालमुकुन्द बिस्सा, जेल अधिकारियों की यातनाओं से जेल में शहीद हो गये। पंडित नेहरू और गाँधी ने जोधपुर के अत्याचारों की कटु आलोचना की। लोक परिषद ने यह आंदोलन और तेज कर दिया। यह आंदोलन चल ही रहा था कि देश में 9 अगस्त, 1942 को भारत छोङो आंदोलन आरंभ हो गया। फलस्वरूप देश के अन्य भागों की तरह मारवाङ का विद्यार्थी समाज की राजनीति में कूद पङा और इन युवकों ने बम आदि बनाकर सरकारी संपत्ति को नष्ट किया। किन्तु राज्य सरकार के तीव्र दमन के कारण आंदोलन कुछ समय के लिये शिथिल पङ गया। अनेक लोगों ने व्यासजी पर आंदोलन समाप्त करने हेतु दबाव डाला, लेकिन व्यासजी टस-से-मस नहीं हुए। 1944 ई. में भारत सरकार द्वारा राजनीतिक बंदियों को छोङने के बाद राज्य में भी स्थानीय नेताओं को छोङ दिया गया। महाराजा ने मई, 1944 ई. में एस.ए.सुधाकर को प्रशासनिक सुधारों पर अपने सुझाव देने के लिए नियुक्त किया। जुलाई, 1945 ई. में सुधाकर रिपोर्ट प्रकाशित कर दी गयी।

चूँकि सुधारकर रिपोर्ट में जन प्रतिनिधियों को सत्ता हस्तान्तरित करने का सुझाव नहीं दिया गया था, अतः 28 फरवरी 2 मार्च, 1946 को लोक परिषद ने अपने नांवा अधिवेशन में पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना की माँग की और महाराजा को संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में कार्य करने को कहा। सुधारकर रिपोर्ट में उन सभी व्यक्तियों को, जो दो वर्ष या इससे अधिक का कारावास भोग चुके थे, भावी सभा की सदस्यता के लिये अयोग्य घोषित कर दिया। यह लोक परिषद के कार्यकर्ताओं को भावी सभा की सदस्यता से वंचित करने की एक चाल थी। सभा का गठन भी इस प्रकार किया गया कि वास्तविक सत्ता महाराजा, मुख्यमंत्री और महाराजा द्वारा मनोनीत मंत्रियों के हाथ में रहे। अतः लोक परिषद ने इसका विरोध किया। जोधपुर महाराजा ने अपने जागीरदारों को सलाह दी कि वे अपनी जागीरों में लोक परिषद के कार्यकर्त्ताओं को प्रचार करने से रोकें। 13 मार्च, 1947 ई. को डाबरा काण्ड हुआ जिसमें डीडवाना जिले के जागीरदारों ने अपने एक हजार राजपूतों द्वारा लोक परिषद के कार्यकर्त्ताओं पर अमानवीय अत्याचार करवाये। राष्ट्रीय समाचार-पत्रों में इस कांड की तीव्र भर्त्सना की गयी, लेकिन महाराजा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पङा। इसी बीच 1947 ई. के आरंभ में जोधपुर महाराजा उम्मेदसिंह का देहान्त हो गया तथा उसका युवा पुत्र हणुवंतसिंह गद्दी पर बैठा। यद्यपि सितंबर, 1946 में भारत में पंडित नेहरू के नेतृत्व में अंतरिक सरकार का गठन हो चुका था, फिर भी जोधपुर का नया महाराजा किसी भी तरह का उत्तरदायी शासन स्थापित करना नहीं चाहता था। उसने अपनी प्रधानमंत्री वेंकटाचारी को, उसका कार्यकाल समाप्त होने के एक पूर्व ही हटा दिया और अक्टूबर, 1947 में जागीरदारों और अपने रिश्तेदारों का मंत्रिमंडल बनाया।

नये महाराजा की इस कार्यवाही के विरोध में लोक परिषद ने आंदोलन आरंभ कर दिया तथा 14 नवम्बर, 1947 का दिन विधानसभा विरोध दिवस के रूप में मनाया । महाराजा ने अपने निरंकुश शासन को बनाये रखने के लिये राज्य में सामाजिक और राजनीतिक वैमनस्यता तथा साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहित किया। 28 फरवरी, 1948 ई. को भारत सरकार ने वी.पी.मेनन को जोधपुर भेजा, जो महाराजा को समझा-बझाकर सीधे रास्ते पर लाया। व्यासजी के नेतृत्व में एक मिला-जुला मंत्रिमंडल बना, जिसमें लोक परिषद व सामंतों के प्रतिनिधि शामिल किये गये। इस प्रकार का मंत्रिमंडल सुचारु रूप से नहीं चल सका, अतः मंत्रिमंडल में कई बार फेर बदल हुए। अंत में सितंबर, 1948 में व्यासजी का नया मंत्रिमंडल बना जिसमें पहली बार लोक परिषद का बहुमत हुआ। मार्च, 1948 ई. में राजस्थान बन जाने के बाद जोधपुर से निरंकुश राजतंत्र को अंतिम विदाई दी गयी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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