आधुनिक भारतइतिहास

1857 की क्रांति के कारणों का विवेचन

1857 की क्रांति के कारण

1857 की क्रांति के कारण (1857 kee kraanti ke kaaran) –

लार्ड डलहौजी के भारत से लौट जाने के बाद लॉर्ड केनिंग भारतवर्ष का गवर्नर जनरल बनकर आया। उसके आते ही भारत में एक बङे विप्लव का विस्फोट हुआ, जिसे इतिहास में गदर, क्रांति, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आदि नामों से पुकारा जाता है। यह क्रांति सन् 1857 ई. में हुई थी और इसके निम्नलिखित कारण थे-

1857 की क्रांति के कारण

1857 की क्रांति : कारण

राजनीतिक कारण

अंग्रेजों की कुटिल साम्राज्यवादी नीति – सन 1757 से 1857 तक अंग्रेजों ने कुटिल साम्राज्यवादी नीति अपनाकर समस्त देशी राजाओं को पंगु बना दिया था तथा कितने ही राज्यों को उन्होंने अंग्रेजी राज्य में विलीन कर लिया था। भारत की सारी राजनीतिक सत्ता अंग्रेजों ने अपने हाथ में ले ली थी। वेलेजली और डलहौजी जैसे गवर्नर जनरलों ने उचित-अनुचित प्रत्येक ढंग से अनेक राज्यों का अपहरण किया।

गोद-निषेध नीति के द्वारा अनेक राज्यों को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। राजाओं और नवाबों की पेन्शनें बंद कर दी तथा उनके पद छीन लिये। अवध पर अधिकार करना तो डलहौजी की डकैती ही मानी जा सकती है। देशी राज्यों के साथ अंग्रेजों का व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण नहीं रहा। सतारा और नागपुर के अपहरण से मराठे उत्तेजित हो उठे। झांसी की रानी के दत्तक पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी न मानकर एवं नाना साहब की पेन्शन बंद करके डलहौजी ने इन्हें अपना शत्रु बना लिया। डलहौजी की नीति ने क्रांति के कारणों को अत्यधिक बढा दिया।

अपदस्थ सैनिक – अंग्रेज जिस देशी राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिलाते थे, वे वहाँ के सभी उच्च अधिकारियों को पदच्युत कर देते थे। वहाँ की सेना को भंग कर अपनी स्वयं की सेना रखते थे। अपदस्थ अधिकारी और बेकार सैनिकों में असंतोष फैलता था। अंग्रेजों की इस नीति से कई लोग बेकार होकर अंग्रेजों के घोर शत्रु बन गये थे।

अवध का विलीनीकरण – 1856 में लार्ड डलहौजी ने अवध के नवाब को अपदस्थ कर दिया और अवध राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। अवध की जनता ने अंग्रेजों की इस अन्यायपूर्ण कार्यवाही का घोर विरोध किया और उन्होंने इस अन्याय का बदला लेने का निश्चय कर लिया।

नाना साहेब की पेन्शन बंद करना – नाना साहेब बाजीराव द्वितीय का दत्तक पुत्र था। 1852 में बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हो गयी। लार्ड डलहौजी ने नाना साहब की 8 लाख रुपये की वार्षिक पेन्शन बंद कर दी और उसकी बिठूर की जागीर को भी जब्त कर लिया। लार्ड डलहौजी की इस कार्यवाही से नाना साहब में तीव्र असंतोष उत्पन्न हुआ। उसने अंग्रेजों की इस अन्यायपूर्ण कार्यवाही का विरोध करना शुरू कर दिया।

मुगल सम्राट के प्रति अपमानजनक व्यवहार अंग्रेजों द्वारा मुगल सम्राट के प्रति अपमानजनक व्यवहार किये जाने से भारतीय मुसलमानों में तीव्र आक्रोश था। ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड केनिंग ने मुगल सम्राट बहादुरशाह को यह चेतावनी दी कि उसके बाद बादशाह की उपाधि समाप्त कर दी जायेगी तथा उसके उत्तराधिकारियों को लाल किला खाली करके कुतुब के निकट रहना पङेगा। उसे एक लाख रुपये के स्थान पर पंन्द्रह हजार रुपये मासिक पेन्शन स्वीकार करनी होगी। इस प्रकार मुसलमानों में तीव्र आक्रोश व्याप्त था।

दूषित शासन व्यवस्था – प्रशासन में केवल अंग्रेजों का बोलबाला था। यद्यपि 1833 ई. के चार्टर एक्ट में घोषित किया गया था कि अंग्रेजी सरकार द्वारा बिना किसी पक्षपात या भेदभाव के योग्यता के आधार पर भारतीयों को सरकारी पदों पर नियुक्त किया जायेगा, परंतु इसका कभी पालन नहीं किया गया। अंग्रेजों को भारतीयों की योग्यता तथा ईमानदारी पर विश्वास नहीं था। अतः उच्च प्रशासनिक पदों पर केवल अंग्रेज ही नियुक्त किये जाते थे। प्रशासन केवल अंग्रेजों के हितों की रक्षा करना अपना प्रमुख कर्त्तव्य मानता था। अंग्रेज अधिकारी अपने को भारतीयों से अलग रखते थे तथा भारतीयों को हर प्रकार से अपमानित करते थे। इस प्रकार शासक व शासित के बीच खाई बढती गयी।

दोषपूर्ण न्याय व्यवस्था अंग्रेजों की न्याय व्यवस्था भ्रष्ट तथा पक्षपातपूर्ण थी। न्यायालयों में मुकदमों को निपटाने में बहुत समय लगता था तथा इसके लिए विपुल धन खर्च करना पङता था। अंग्रेजों के साथ पक्षपात किया जाता था। भारतीय न्यायाधीशों की अदालतों में अंग्रेजों के मुकदमें नहीं जा सकते थे। अतः अंग्रेज अपराध करने के बावजूद बिना दंड के अथवा नाममात्र का जुर्माना देकर बरी हो जाते थे।

जमींदारों का असंतोष – जिस तरह गोद-निषेध नीति के द्वारा अंग्रेजों ने कई राज्यों का अपहरण किया था, उसी प्रकार उन्होंने जमींदारों पर भी गोद-निषेध नीति लागू कर दी थी तथा अनेक जमींदारों की जमीनें छीन ली। लॉर्ड विलियम बैंटिक ने काफी भूमि का अपहरण किया था। अवध के अपहरण के बाद तो अनेक ताल्लुकेदार भूमिहीन बन गये थे। अपनी जमीनें छिन जाने से इन जमींदारों की दशा शोचनीय बन गयी थी। अंग्रेजों के प्रति इनका गहरा रोष था। मनिपुर के राजा के 158 गाँवों में से 136 गाँव बिना किसी आरोप के छीन लिये गये।

इसी तरह अंग्रेजों की इस नीति ने जमींदारों को अप्रसन्न कर अपना शत्रु बना लिया था। क्रांति के समय इन असंतुष्ट जमींदारों ने क्रांतिकारियों की धन से बहुत सहायता की।

भविष्यवाणी

एक ज्योतिषी ने उन्हीं दिनों यह भविष्यवाणी की कि अंग्रेजों का भारत पर केवल सौ वर्ष शासन रहेगा। सन 1857 में प्लासी के युद्ध को पूरे सौ वर्ष हो गये थे। इस भविष्यवाणी से भारतीयों को यह विश्वास हो गया था कि वे अंग्रेजों को भारत से निकालने में सफल हो जायेंगे। इस भविष्यवाणी से प्रोत्साहित होकर भारतीयों ने क्रांति आरंभ कर दी।

सामाजिक कारण

अंग्रेजों ने भारत में धीरे-धीरे देशी राज्यों को ही नहीं हङपा, उन्होंने यहाँ की सभ्यता और संस्कृति को भी नष्ट करना चाहा, जिससे सदियों तक भारत उनका गुलाम बना रहे। उन्होंने भारतीय सामाजिक व्यवस्था में भी हस्तक्षेप करना आरंभ किया जो निम्नलिखित था-

भारतीयों के साथ अपमानजनक व्यवहार – अंग्रेजों ने शासक और शासित के बीच दीवार खङी कर दी। अंग्रेजों ने भारतीयों से कोई सामाजिक संबंध नहीं रखे। वे भारतीयों को घृणा की दृष्टि से देखते और उनके साथ पशु-तुल्य व्यवहार करते थे। उन्होंने फूट डालकर हिन्दू और मुसलमानों को भी अलग-अलग रखा और उन्हें एक नहीं होने दिया। उन्होंने भारतीय रीति-रिवाजों की अवहेलना कर अपनी सभ्यता को बरबस उन पर लादा। भारतीयों को सुअर, हब्शी, मूर्तिपूजक आदि कहकर पुकारा जाता था तथा उन्हें अपमानित किया जाता था। अंग्रेजों द्वारा संचालित होटलों व क्लबों की तख्तियों पर लिखा होता था कुत्तों और भारतीयों के लिए प्रवेश वर्जित है।

अंग्रेजी शिक्षा – अंग्रेजों ने अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार किया, परंतु भारतीय जनता ने यह समझा कि अंग्रेज इस बहाने उन्हें ईसाई बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। अतः उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा का विरोध किया।

ईसाई धर्म का प्रचार – अंग्रेजी सरकार का प्रोत्साहन पाकर ईसाई धर्म प्रचारक भारत में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। वे अनैतिक एवं अनुचित तरीकों से भारतीयों को ईसाई बनाने का प्रयास करते थे। वे प्रलोभन तथा दबाव द्वारा भारतीयों को ईसाई धर्म में दीक्षित करते थे। ईसाई धर्म के बढते हुए प्रभाव से भारतीयों में तीव्र असंतोष व्याप्त था।

सामाजिक प्रथाओं पर प्रतिबंध – अंग्रेजों ने सती-प्रथा, शिशु-हत्या, बाल-विवाह आदि को बंद करने के लिए कदम उठाये तथा विधवा-विवाह को न्यायसंगत ठहराया। उस समय के कट्टरपंथी हिन्दुओं ने इन बातों का घोर विरोध किया। इन सामाजिक सुधारों से देश की जनता ने सोचा कि ब्रिटिश सरकार उन्हें धर्म-भ्रष्ट कर ईसाई बनाना चाहती है। जब लार्ड डलहौजी ने रेल, तार एवं डाक व्यवस्था की, तब भी भारतीयों ने सोचा कि इन कार्यों के द्वारा अंग्रेजी सरकार उनके समाज और धर्म पर प्रहार कर रही है।

ब्रिटिश इतिहासकारों व राजनीतिज्ञों ने जानबूझकर ये तर्क दिये कि रूढिवादी, परंपरावादी तथा अनपढ लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्य के विभिन्न प्रगतिशील सामाजिक सुधारों का सही मूल्यांकन नहीं करने के कारण उनमें विद्रोह की भावना भर गयी। लेकिन वास्तविकता यह नहीं थी बल्कि विरोध का मूल कारण यह था कि ये ऐसे समय में लागू किये गये जबकि भारतीय जनता की आर्थिक कठिनाइयाँ बढती जा रही थी तथा ईसाई धर्म का प्रचार किया जा रहा था।

इन सब बातों से भारतीयों में असंतोष फैला हुआ था और वे अंग्रेजों के इन कामों को शंका की दृष्टि से देखते थे।

भारतीय संस्कृति का उपहास – अंग्रेज लोग हिन्दू देवी-देवताओं को ही नहीं, मुहम्मद साहब को भी अपमानित किया करते थे। मूर्ति पूजा का उपहोस किया जाता था। भारतीयों के रीति-रिवाजों को निकृष्ट बताया जाता था तथा उनकी सभ्यता एवं संस्कृति पर कीचङ उछाला जाता था। इस कारण भी भारतीयों में तीव्र आक्रोश था।

धार्मिक कारण

अंग्रेजों ने मुसलमानों की तरह धर्म फैलाने का प्रयत्न नहीं किया। वे भारत में धर्म प्रचार करने नहीं धन लूटने आये थे, परंतु इन अंग्रेज व्यापारियों के साथ कुछ धर्म प्रचारक भी भारत में आ बसे थे। उन्होंने भारत में ईसाई मत का प्रचार करना आरंभ कर दिया। इन ईसाई प्रचारकों को

सरकारी कोष से धन की सहायता दी जाती थी तथा ईसाई बनने वालों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाती थी। ईसाई धर्म प्रचारक कभी-कभी उद्दंडता का व्यवहार करते थे। वे खुल्लम-खुल्ला हिन्दू धर्म और इस्लाम की निन्दा करते थे और इनके अवतारों और पैगंबरों को गालियाँ देते थे। सरकार ने उन्हें ऐसा करने से रोकने का प्रयत्न नहीं किया।

यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से सरकार ने अपनी नीति धर्मनिरपेक्ष रखी और किसी के धर्म में हस्तक्षेप नहीं किया, तथापि परोक्ष रूप में उसने ईसाई मत को फैलाने में पूर्ण योग दिया। अपहरण के लिए, धर्म परिवर्तन करने पर हिन्दू पिता की संपत्ति पर पुत्र का अधिकार नहीं होता, परंतु अंग्रेजों ने 1850 में एक कानून पारित किया जिसमें हिन्दू धर्म के इस नियम की अवहेलना कर धर्म परिवर्तन द्वारा ईसाई धर्म अपनाने वालों को वंशानुगत संपत्ति पर उत्तराधिकार स्वीकार किया।

हिन्दू धर्म के अनुसार निःसंतान व्यक्ति को मुक्ति नहीं मिलती, इसलिए वह किसी को गोद लेकर संतानहीनता के कलंक को धोता है। डलहौजी की गोद निषेध नीति ने हिन्दुओं में बहुत असंतोष फैला दिया। भारतीय बच्चों को मिशन स्कूलों में पढने भेजा जाता था, जहाँ उनके मस्तिष्क में अपने धर्म के विरुद्ध बातें भर कर ईसाई धर्म की ओर आकर्षित किया जाता था। रेल आदि के प्रचलन को भी तत्कालीन भारतवासियों ने अपने धर्म पर एक प्रहार ही समझा।

आर्थिक कारण

आर्थिक शोषण – अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत में देशी नरेश थे। चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, ये भारत भूमि को अपनी मातृभूमि समझते थे। जो कुछ वे प्रजा से किसी भी रूप में लेते थे, उसे वे यहीं खर्च करते थे। घूम-फिर कर वह पैसा वापस यथास्थान पहुँच जाता था। ऐसे लोग कृषकों और श्रमिकों की दशा को भी उन्नत करने का प्रयास करते थे।

व्यापार, व्यवसाय के विकास की ओर इनका ध्यान रहता था। इसलिए उनके समय में कभी किसी के सामने आर्थिक संकट नहीं आया और देश सदा समृद्धिशाली बना रहा, किन्तु अंग्रेजों ने भारत में आते ही दोनों हाथों से धन बटोरना शुरू किया- व्यापार से भी और विभिन्न करों एवं लगान आदि से भी भारत का अब काफी धन विदेश जाने लगा।

अंग्रेजों ने भारतीय उद्योग धंधों को नष्ट कर बेकारी फैलाई और लोगों का जीवन विपन्न बनाया। भारत में इंग्लैण्ड का बना माल खपाकर, इंग्लैण्ड को मालदार बनाया गया। उन्होंने भारतीयों से उनकी जमीन जायदाद छीन ली, उनका धन वैभव लूटा और उन्हें सब तरह दुःखी और दयनीय बना दिया। भारत का जितना अंग्रेजों ने शोषण किया है, कदाचित ऐसा विश्व के इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलेगा।

यह आर्थिक शोषण की प्रतिक्रिया सन 1857 की क्रांति के रूप में होनी ही थी।

उद्योग धंधों का विनाश – अंग्रेजों ने अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए भारत के कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया। उनकी स्वार्थपूर्ण नीति के कारण भारत का वस्त्र उद्योग चौपट हो गया। भारतीय सूती तथा रेशमी वस्त्रों पर भारी कर लगाया गया। फलतः भारत का सूती और रेशमी वस्त्रों पर भारी कर लगाया गया। फलतः भारत का सूती और रेशमी कपङा इंग्लैण्ड जाना बंद हो गया।

इंग्लैण्ड में बना हुआ कपङा भारत के बाजारों में बेचा जाने लगा जिससे भारत का वस्त्र उद्योग नष्ट होता चला गया। भारत का कच्चा माल सस्ते मूल्यों पर खरीद कर इंग्लैण्ड पहुँचाया गया तथा इंग्लैण्ड से बना हुआ सामान भारत की मंडियों में लाकर बेचा जाने लगा। इससे भारत के लाखों कारीगर, जुलाहे, शिल्पकार आदि बेकार हो गए।

भारतीय धन का निष्कासन – अंग्रेजों ने अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए भारत का विपुल धन इंग्लैण्ड पहुँचाया। भारी वेतनों, उपहारों, भ्रष्ट तरीकों से प्राप्त धन, ठेकों, करों आदि के रूप में भारत की अतुल धनराशि इंग्लैण्ड पहुँचाई गई। इससे भारत में पूँजी का अभाव हो गया तथा भारतीय कृषि, उद्योग एवं व्यापार आदि चौपट हो गए तथा देश में गरीबी एवं बेरोजगारी बढती गयी। इस कारण भी भारतवासियों में तीव्र आक्रोश था।

शिक्षित भारतीयों में असंतोष भारत का शिक्षित वर्ग भी अंग्रेजों की पक्षपातपूर्ण एवं दोषपूर्ण नीति से असंतुष्ट था। उच्च एवं महत्त्वपूर्ण पदों पर केवल यूरोपियन लोग ही नियुक्त किये जाते थे। भारतीयों को उच्च पदों से वंचित रखा जाता था। उन्हें केवल साधारण एवं निम्न पदों पर ही नियुक्त किया जाता था। अधिकांश शिक्षित भारतीय लोगों को क्लर्कों के पद पर नियुक्त किया जाता था। अतः इस कारण शिक्षित भारतीय लोगों में तीव्र असंतोष व्याप्त था।

बार-बार अकाल पङना- बार-बार अकाल पङने से भारतीय किसानों की दशा बङी शोचनीय बनी हुई थी। अकालों के समय अंग्रेजी सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति से किसानों में बङा असंतोष था। डॉ. आर.सी. मजूमदार का कथन है कि बार-बार अकाल पङने के कारण लोगों की दशा दयनीय बनी हुई थी और सम्पूर्ण भारत में तीव्र असंतोष व्याप्त था। 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में लगभग 7 अकाल पङे जिनके कारण लगभग 15 लाख व्यक्तियों को मौत के मुँह में जाना पङा।

पारस्परिक बङे जमींदारों का असंतोष- उत्तरी भारत के क्षेत्र में पारस्परिक जमींदार भी सरकार से क्षुब्ध थे। अंग्रेजों द्वारा लागू की गयी नई लगान व्यवस्था जमींदारों के लिए विनाशकारी सिद्ध हो रही थी। 1820 के बाद महलवारी व्यवस्था के अन्तर्गत सरकार ने इनकी उपेक्षा कर गाँव समितियों से सीधा बंदोबस्त प्रारंभ कर दिया। 19 वीं शताब्दी के चौथे तथा पाँचवें दशक में राजस्व बोर्ड ने विधिवत रूप से जमींदारों के अस्तित्व को ही समाप्त करने का प्रयत्न किया।

1844 में जेम्स थॉमसन ने उत्तर-पश्चिमी प्रान्त के ताल्लुकेदारों की प्रतिष्ठा, शक्तियों तथा भूमि क्षेत्रों को विधिवत रूप से समाप्त करने की नीति अपनाई। लेकिन ताल्लुकेदारों की जनता में अत्यधिक प्रतिष्ठा थी। विद्रोह के समय इन अपदस्थ जमींदारों तथा ताल्लुकेदारों ने विद्रोह में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी और जनता ने इस समय इन अपदस्थ ताल्लुकेदारों का साथ दिया।

कठोर राजस्व व्यवस्था – अंग्रेजों की राजस्व व्यवस्था से भी किसानों में असंतोष था। स्थायी बंदोबस्त तथा रैयतवाङी बंदोबस्त से भी किसानों पर हानिकारक प्रभाव पङा, क्योंकि किसानों से अधिक लगान वसूल करने का प्रयत्न किया गया था। यदि किसान भूमि कर चुकाने में असमर्थ था, तो उसकी भूमि छीन ली जाती थी तथा उसे बेच दिया जाता था। इससे किसानों की दशा शोचनीय हो गयी थी। सरकारी अधिकारी लगान वसूल करने में किसानों पर अत्याचार करते थे। इससे किसानों में तीव्र असंतोष था।

सैनिक कारण –

भारतीय सैनिकों में असंतोष – अंग्रेजों का भारतीय सैनिकों के प्रति अच्छा व्यवहार नहीं था। भारतीय सैनिकों को अंग्रेज सैनिकों के मुकाबले में बहुत कम वेतन तथा भत्ते दिये जाते थे। सेना में उच्च पदों पर केवल अंग्रेजों को ही नियुक्त किया जाता था तथा भारतीयों को उच्च पदों के योग्य नहीं समझा जाता था। सेना में एक भारतीय सूबेदार का वेतन केवल 35 रुपये मासिक था, जबकि अंग्रेज सूबेदार को 195 रुपये मासिक वेतन मिलता था। इसी प्रकार एक भारतीय सैनिक को केवल 8 रुपये मासिक वेतन मिलता था, जबकि एक अंग्रेज सैनिक को लगभग 70 रुपये मासिक वेतन मिलता था। इससे भारतीय सैनिकों में असंतोष व्याप्त था।

अवध का विलीनीकरण – 1856 में अंग्रेजों ने अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इससे बंगाल की सेना में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ क्योंकि बंगाल की सेना में अधिकांश सैनिक अवध से नागरिक थे। अवध के विलीनीकरण के परिणामस्वरूप 60 हजार सैनिक बेरोजगार हो गए।

अतः उनमें अंग्रेजों के विरुद्ध तीव्र आक्रोश था। मौलाना आजाद का कथन है कि अवध को अंग्रेजी राज्य में मिलाए जाने से सभी सैनिकों में विद्रोह की भावना उत्पन्न हो गयी। मुख्यतया बंगाल की सेना के लोगों को इससे बहुत बङा धक्का लगा। उन्होंने अचानक अनुभव किया कि कंपनी ने जो शक्ति उनकी सेवाओं और त्याग से प्राप्त की थी, उसका उपयोग उन्होंने उनके ही राजा को समाप्त करने के लिए किया गया था।

धार्मिक रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप – पंजाब की विजय के बाद अंग्रेजी सरकार ने भारतीय सैनिकों को यह आश्वासन दिया था कि उन्हें अपनी दाढी-मूँछ साफ करने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा, परंतु बाद में उन्हें अपनी दाढी-मूँछ साफ करने के लिए आदेश जारी कर दिये गए। इस कारण भारतीय सैनिकों में असंतो, व्याप्त था।

प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध में अंग्रेजों की पराजय – प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध (1839-1842 ई.) में अंग्रेजों को पराजय का मुँह देखना पङा था। इससे भारतीय सैनिकों ने अनुभव किया कि अंग्रेज अजय नहीं हैं तथा भारतवासी भी संगठित होकर अंग्रेजों को परास्त कर सकते हैं।

भारतीय सैनिकों को पर्याप्त सुविधाएँ न देना – अंग्रेजों द्वारा भारतीय सैनिकों को पर्याप्त सुविधाएँ नहीं दी जाती थी। उन्हें बिना किसी भत्ते के दूर-दूर के स्थानों पर युद्ध के लिए भेज दिया जाता था। भारतीय सैनिकों

भारतीय सैनिकों की संख्या अधिक होना – 1856 में कंपनी की सेना में 2,38,000 भारतीय तथा 45,322 अंग्रेज सैनिक थे। इस प्रकार भारतीय तथा अंग्रेज सैनिकों की संख्या का अनुपात 6:1 था। अतः भारतीय सैनिकों को इस बात का विश्वास था कि यदि अंग्रेजों के साथ उनका संघर्ष छिङ गया तो उनका पलङा भारी रहेगा।

सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम – 1856 में अंग्रेजी सरकार ने सेवा भर्ती अधिनियम पास किया, जिसके अनुसार भारतीय सैनिकों को विदेशों में युद्ध के लिए भेजा जा सकता था। इस अधिनियम से भारतीय सैनिकों में असंतोष उत्पन्न हुआ क्योंकि अनेक सैनिक विदेश जाना अपने धर्म के विरुद्ध मानते थे।

तात्कालिक कारण – 1856 में भारतीय सैनिकों को एनफील्ड नामक नई राइफलें दी गयी। इन राइफलों में विशेष प्रकार के कारतूस प्रयोग में लाए जाते थे, जिनको चिकना करने के लिए गाय तथा सुअर की चर्बी का प्रयोग होता था। अतः हिन्दू तथा मुसलमान सैनिकों ने इन कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया।

29 मार्च, 1857 को बैरकपुर की अंग्रेजी सेना की 34 वीं रेजीमेन्ट के भारतीय सैनिक मंगल पाण्डेय ने इन कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया और उसने दो अंग्रेज अधिकारियों को घायल कर दिया। मंगल पाण्डेय को बंदी बना लिया गया तथा 8 अप्रैल, 1857 को उसे फांसी की सजा दी गयी। 34 वीं रेजीमेंट भंग कर दी गयी। इसी प्रकार इन कारतूसों का विरोध करने के कारण लखनऊ की अवध रेजीमेन्ट भी भंग कर दी गयी।

शीघ्र ही विद्रोह की चिंगारी अनेक सैनिक छावनियों में फैल गयी। 9 मई, 1857 को मेरठ में लगभग 85 भारतीय सैनिकों को जेलों में बंद कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने चर्बी लगे हुए कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया था। इस पर अन्य भारतीय सैनिक भङक उठे और उन्होंने अनेक अंग्रेज अधिकारियों और सैनिकों को मार डाला तथा अपने साथियों को छुङवा लिया। इसके बाद क्रांतिकारियों ने मेरठ से प्रस्थान कर 11 मई, 1857 को दिल्ली पर अधिकार कर लिया और बहादुरशाह को भारत का सम्राट घोषित कर दिया।

इस प्रकार 10 मई, 1857 को क्रांति का सूत्रपात हुआ।

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