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प्रथम अफगान राज्य का इतिहास | Pratham aphagaan raajy ka itihaas | History of the First Afghan State

प्रथम अफगान राज्य – सन् 1398 में तैमूर ने तुगलक साम्राज्य को आघात पहुँचाया और 1526 ई. में बाबर ने पानीपत के मैदान में लोदी वंश की सत्ता को समाप्त कर दिया। दोनों घटनाओं के मध्य का समय 75 साल तक चलने वाले लोदी शासन (1459-1526 ई.) से शुरू हुआ। यद्यपि मध्यकालीन भारतीय इतिहास के अध्ययन में इस काल पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया तथापि उसके महत्त्व से इनकार नहीं किया जा सकता। इसका कारण यह है कि 1526 ई. के बाद होने वाली सभी गठनाओं को समझने की कुंजी इसी काल में विद्यमान है।

प्रथम अफगान राज्य का इतिहास

अफगानों का महत्त्व सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद (1246-1266 ई.) के शासनकाल में प्रकट हुआ। कुछ समय बाद गयासुद्दीन बलबन के नाम से राज्य करने वाले उलुग खाँ ने सन् 1260 ई. में इन अफगानों में से 3,000 की भरती मेवातियों से लङने के लिये की थी। उसी समय से इनका उपयोग सीमा चौकियों पर चौकसी या अप्रभावित क्षेत्रों को अपने अधीन करने में किया जाने लगा। इस समय इन्हें जो महत्त्व दिया गया था उसका फल यह हुआ कि उससे इन अफगानों को अपनी शक्ति और हैसियत बढाने में बङी सहायता मिली। मुहम्मद तुगलक के शासनकाल तक उन्होंने इतनी शक्ति अर्जित कर ली थी कि उन्होंने केंद्रीय सत्ता के खिलाफ बगावत कर दी। परिणाम यह हुआ कि फिरोज तुगलक के शासनकाल में अफगानों का प्रभाव बढना शुरू हो गया और उनमें से एक अफगान को बिहार का सूबेदार नियुक्त किया गया। संभवतः तैमूर के बाद खिज्र खाँ ने बङी तादाद में अफगानों की भरती की। इनमें एक सुल्तान शाह लोदी भी था जो लोदी वंश के संस्थापक बहलोल लोदी का चाचा था। यही समय था जब कि सूर, नुहानी, नियाजी और लोदी बङी संख्या में भारत आए। इस प्रकार 15 वीं शताब्दी में आने वाले अफगानों की एक बङी संख्या शक्तिशाली हो चुकी थी। दोआब के फौजदार के रूप में दौलत खाँ लोदी ने दो वर्ष (1412-1414 ई.) तक दिल्ली पर सच्चे अर्थों में हुकूमत की थी। सैयदों के शासनकाल में अफगानों ने महत्त्वपूर्ण पदों को प्राप्त कर लिया था। यही कारण था कि जिस समय बहलोल गद्दी पर आसीन हुआ उस समय तक अफगान राज्य पटल पर छा गए थे।

बहलोल के पितामह मलिक बहराम फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में भारत आए थे और मुल्तान में बस गए थे। मलिक बहराम के पाँच पुत्रों में से एक सुल्तान शाह भी था जिसे खिज्र खाँ ने उस समय अपनी सेवा में नियुक्त किया जब उसे मुल्तान का सूबेदार नियुक्त किया गया था। सुल्तान शाह ने अपना काम ईमानदारी से निभाया और उसे बतौर बख्शीश के सरहिंद की सूबेदारी दे दी गयी। इसके साथ ही एक दूसरे बेटे मलिक काला को दौराला का हाकिम बना दिया गया। दौराला में ही बहलोल का जन्म हुआ। लेकिन छप्पर गिरने से उसकी माता का उस समय देहांत हो गया जब वह गर्भवती थी। सहायता के लिये पहुँचे लोगों ने तत्काल आपरेशन करके बहलोल को गर्भ से बाहर निकाला। इस तरह बहलोल के जीवन की शुरूआत ही दुःखद परिस्थितियों में हुई। दुर्भाग्य को गति यहाँ तक थी कि जब वह बच्चा था, उसके पिता का देहांत हो गया। ऐसी स्थिति में उसका पालन उसके चाचा सुल्तान शाह ने किया और उसे पिता के प्यार और देखभाल की कमी महसूस न होने दी। सुल्तान शाह ने भविष्य में अपने इस भतीजे के शासक बनने की संभावना देखी थी और अपने पुत्रों के दावों के बावजूद उसे अपना उत्तराधिकारी नामजद भी किया।

अफगान उन पर्वतीय जन-जातियों के लिए प्रचलित शब्द, जो न केवल अफगानिस्तान में बसती है, बल्कि पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्तों में भी रहती है। वंश अथवा प्राकृतिक दृष्टि से ये प्राय: तुर्क–ईरानी हैं और भारत के निवासियों का भी काफी मिश्रण इनमें हुआ है। कुछ विद्धानों का मत है कि केवल दुर्रानी वर्ग के लोग ही सच्चे ‘अफगान’ हैं और वे उन बनी इसराइल फिरकों के वंशज हैं जिनको बादशाह नबूकद नजार फिलस्तीन से पकड़कर काबुल ले गया था। अफगानों के यहूदी फिरकों के वंशधर होने का आधार केवल यह है कि खाँजहाँ लोदी ने अपने इतिहास ‘अमखजने अफगानी’ में 16 वीं सदी मे इसका पहले पहल उल्लेख किया था। यह ग्रंथ बादशाह जहाँगीर के राज्यकाल में लिखा गया था। इससे पहले इसका कहीं उल्लेख नहीं पाया जाता। अफगान शब्द का प्रयोग अलबरूनी एवं उत्बी के समय, अर्थात्‌ 10वीं शती के अंत से होना शुरू हुआ।

दुर्रानी अफगानों के बनी इसराईल के वंशधर होने का दावा तो उसी परिपाटी का एक उदाहरण है जिसका प्रचलन मुसलमानों में अपने को मुहम्मद के परिवार का अथवा अन्य किसी महान्‌ व्यक्ति का वंशज बतलाने के लिए हो गया था। यद्यपि अफगानिस्तान के दुर्रानी एवं अन्य निवासी अपने ही को वास्तविक अफगान मानते हैं तथा अन्य प्रदेशों के पठानों को अपने से भिन्न बतलाते हैं, तथापि यह धरणा असत्य एवं निस्सार है। वास्तव मे ‘पठान’ शब्द ही इस जाति का सामूहिक जातिवाचक शब्द है। ‘अफगान’ शब्द तो केवल उन शिक्षित तथा सभ्य वर्गों में प्रयुक्त होने लगा है, जो अन्य पठानों की अपेक्षा उत्कृष्ट होने पर बड़ा गौरव करते हैं। पठान शब्द ‘पख़्तान’ (ऋग्वैदिक पक्थान्‌) या ‘पश्तान’ शब्द का हिंदी रूपांतर है। पठान शब्द का प्रयोग पहले-पहल 16वीं शती में ‘मख़ज़ने अफगानी’ के रचचिता नियामतुल्ला ने किया था। परंतु, जैसा कहा जा चुका है, अफगान शब्द का प्रयोग बहुत पहले से होता आया था। इतिहास के आरम्भ काल से ही भारत के साथ इस दुर्धर्ष जाति के सम्बन्ध मित्रता के बीज रहे हैं और शत्रुता के भी। भारत की सम्पदा पर लुब्ध होकर ये लोग व्यापारी और लुटेरे दोनों रूपों में भारत आते रहे।

सुल्तान महमूद गजनवी पहला अफगान सुल्तान था, जिसने भारत पर आक्रमण किया।

शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी पहला अफगान सुल्तान था, जिसने भारत में मुसलमान शासन की नींव डाली। दिल्ली के जिन सुल्तानों ने 1200 से 1526 ई. तक यहाँ राज्य किया।, वे सभी अफगान अथवा पठान पुकारे जाते थे। लेकिन उनमें से अधिकांश तुर्की थे। केवल लोदी राजवंश के सुल्तान (1450-1526 ई.) ही असल पठान थे।

प्रथम मुगल बादशाह बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई में भारत से पठान शासन का अन्त कर दिया। शेरशाह सूरी ने दुबारा पठान राज्य स्थापित किया और पानीपत की दूसरी लड़ाई को जीतकर अकबर ने उसे समाप्त कर दिया।

अकबर खाँ ने प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध (1841-43) के दौरान अफगानों को संगठित कर अंग्रेजों के हमले का मुकाबला करने में खास हिस्सा लिया था।

अफगान लोगों की शारीरिक विशेषताएँ

  • अफगान जाति के लोगों के उत्तरपश्चिम के पहाड़ी प्रदेशों तथा आसपास की भूमि पर फैले होने के कारण, उनके चेहरे मोहरे और शरीर की बनावट में स्थानीय विभिन्नताएँ पाई जाती हैं।
  • सामान्य रूप वे उँचे कद के हृष्ट पुष्ट तथा प्राय: गोरे होते हैं।
  • उनकी नाक लंबी एवं नोकदार, बाल भूरे और कभी–कभी आँखें कंजी पाई जाती हैं।
  • इन अफगानों या पठानों के विभिन्न वर्गों को एक सूत्र में बाँधनेवाली इनकी भाषा ‘पश्तो’ है। इस बोली के समस्त बोलनेवाले, चाहे वे किसी कुल या जाति के हों, पठान कहलाते हैं। समस्त अफगान एक सर्वमान्य अलिखित किंतु प्राचीन परंपरागत विधान के अनुयायी हैं। इस विधान का आदि स्रोत ‘इब्रानी’ है।
  • एक ओर अतिथि सत्कार, और दूसरी ओर शत्रु से भीषण प्रतिशोध, उनके जीवन के अंग हो गए हैं।
  • ऊसर और सूखे पहाड़ी प्रदेशों के निवासी होने के कारण और निर्दय हो गए हैं।
  • उनकी हिंस्र प्रवृत्ति धर्मांधता के कारण और भी उग्र हो गई है। किंतु उनके चरित्र में सौंदर्य तथा सद्गुणों की भी कमी नहीं है।
  • वे बड़े वाक्‌चतुर, सामान्य परिस्थितियों में बड़े विनम्र और समझदार होते हैं।

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