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द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध का वर्णन

द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध (1878-1880 ई.) तक लड़ा गया। यह युद्ध वायसराय लॉर्ड लिटन प्रथम (1876-1880 ई.) के शासन काल में प्रारम्भ हुआ। इस दूसरे युद्ध में विजय के लिए अंग्रेज़ों को भारी क़ीमत चुकानी पड़ी।

अंग्रेज़अफ़ग़ानिस्तान पर स्थायी रूप से क़ब्ज़ा तो नहीं कर सके, लेकिन उन्होंने उसकी नीति पर नियंत्रण बनाये रखा और साथ ही अफ़ग़ानों को अपनी शक्ति और सैन्य संगठन का भी परिचय करा दिया। द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध दो नीतियों की पारस्परिक प्रतिक्रिया का परिणाम था। एक नीति, जिसे ‘अग्रसर नीति’ (फ़ारवर्ड पालिसी) कहा जाता था, इसके अनुसार कंधार तथा क़ाबुल दोनों ब्रिटिश साम्राज्य के लिए आवश्यक माने गये।

दूसरी नीति के अनुसार रूस और इंग्लैंड, जो पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के कारण एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी थे, दोनों अफ़ग़ानिस्तान को अपने प्रभाव के अंतर्गत रखना चाहते थे।

द्वितीय अफ़ग़ान युद्ध का वर्णन

1874 ई. में इंग्लैण्ड में नया मंत्रिमंडल बना और घोर साम्राज्यवादी डिजरैली प्रधानमंत्री बना। वह अफगानिस्तान के प्रति कठोर नीति का समर्थक था। अतः उसने भारत के तत्कालिक वायसराय लार्ड नाथब्रुक को आदेश भेजा कि शेरअली को काबुल में एक अंग्रेज रेजीडेण्ट रखने को विवश किया जाय। लार्ड नाथब्रुक ने इस आदेश को अस्वीकार कर अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। 1976 ई. में लार्ड लिटन, लार्ड नार्थब्रुक का उत्तराधिकारी बनकर भारत आया।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री डिजरैली ने उसे इस निर्देश सहित भेजा कि शेरअली को वह सब प्रदान कर दिया जाय जो उसने 1873 ई. में माँगे थे अर्थात् उसके छोटे पुत्र अब्दुल्ला जान को उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया जाय, अमीर को विदेशी आक्रमण के विरुद्ध ब्रिटिश सहायता प्रदान की जाय और उसे एक निश्चित पद और बढी हुई आर्थिक सहायता प्रदान की जाय। इसके बदले में अमीर हेरात में एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना स्वीकार करें।

भारत पहुँचते ही लार्ड लिटन ने शेरअली से एक ब्रिटिश शिष्टमंडल अफगानिस्तान भेजने के बारे में पूछा, जिसे शेरअली ने बङी नम्रता से अस्वीकार कर दिया। अमीर का कहना था कि यदि ब्रिटिश शिष्टमंडल को आने की स्वीकृति देता है तो वह रूसी शिष्टमंडल को आने से कैसे रोक सकेगा।

अमीर ने यह भी कहा कि अफगानिस्तान की जनता का स्वभाव ऐसा है कि वह शिष्टमंडल को उनसे नहीं बचा पायेगा। लिटन इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ। अक्टूबर 1876 ई. में लिटन ने शिमला में काबुल के मुस्लिम एजेंट से भेंट की और कहा कि अफगानिस्तान दो लोहों के बीच मिट्टी की हाँडी के समान है।

यदि अमीर अंग्रेजों से अच्छे संबंध रखता है तो हमारी सैन्य शक्ति उसके चारों ओर रक्षार्थ लोहे की जंजीर की तरह फैल जायेगी और यदि शत्रु हो जाता है तो वह उसे सरकंडे की तरह तोङ डालेगी।

इसी बीच अंग्रेजों ने कलात के खाँन से एक संधि कर ली जिसके अनुसार अंग्रेजों को क्वेटा प्राप्त हो गया, जो प्रथम अफगान युद्ध के समय ब्रिटिश सेना का केन्द्र था। शेरअली का मानना था कि क्वेटा पर अंग्रेजों का अधिकार उनके कंधार पर अधिकार करने की प्रथम सीढी है, फिर भी वह ब्रिटिश शिष्टमंडल को आने की स्वीकृति देने को तैयार नहीं था।

जनवरी, 1877 ई. में शेरअली के मंत्री सैय्यद नूर मोहम्मद ने पेशावर में सर लेविस पेली से बातचीत की। नूर मोहम्मद ने पेली से बङी नम्रता से निवेदन किया कि ब्रिटिश राष्ट्र महान् एवं शक्तिशाली है और अफगान लोग इसकी शक्ति का मुकाबला नहीं कर सकते थे, किन्तु अफगान जनता अपनी इच्छा को सर्वोपरि मानती है तथा स्वतंत्रताप्रिय है।

यदि अमीर अफगानिस्तान में शासन करना चाहता है तो वह जनता से यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि वह एक विदेशी शक्ति की सहायता से शासन कर रहा है।

जब यह वार्ता चल ही रही थी कि नूर मोहम्मद की मृत्यु हो गयी। यद्यपि नूर मोहम्मद के स्थान पर दूसरा व्यक्ति वार्ता के लिए भेजा गया, जो अभी रास्ते में ही था कि लिटन ने वार्ता समाप्ति की घोषणा कर दी और अमीर से भी सभी संपर्क तोङ लिये गये।

इसी समय यूरोपीय राजनीति में भी परिवर्तन आया।1877 ई. में रूस ने तुर्की पर आक्रमण कर उसे समाप्त कर उसे परास्त कर दिया और उस पर सेन स्टीफेनों की संधि आरोपित कर दी।

इस संधि से बाल्कन प्रायद्वीप और ओटोमन साम्राज्य में रूस के प्रभाव में वृद्धि हो गयी। इंग्लैण्ड अपने पूर्वी साम्राज्य के मार्ग में रूस के प्रभाव का विरोधी था। अतः इंग्लैण्ड ने इस संधि का विरोध किया तथा संधि पर पुनर्विचार करने के लिए यूरोपीय राज्यों के सम्मेलन की माँग की। पहले तो रूस ने सम्मेलन का विरोध किया किन्तु बाद में विवश होकर इंग्लैण्ड की माँग स्वीकार कर ली।

जून-जुलाई, 1878 ई. में बर्लिन में सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में जो संधि हुई उससे रूस से वे सारी सुविधाएँ वापेस ले ली , जो उसने सेन स्टेफेनों की संधि से प्राप्त की थी।

इससे रूस बहुत ही नाराज हुआ तथा इंग्लैण्ड की शक्ति को कम करने के उद्देश्य से रूस ने अफगानिस्तान में युद्ध की स्थिति पैदा कर उसकी शक्ति उधर मोङने का प्रयास किया । जून 1878 में रूसी दूत कॉफेन ने अफगानिस्तान के अमीर को, लिटन की तरह की संधि करने का प्रस्ताव किया। किन्तु अमीर ने प्रस्ताव ठुकरा दिया।

इस पर 13 जून, 1878 को रूसी सेनापति स्टोलटॉफ ससैन्य ताशकंद से काबुल की तरफ रवाना हुआ। शेरअली ने इसका विरोध किया। फिर भी रूस के जार ने अमीर को कहलवाया कि यदि स्टोलेटॉफ को कोई हानि हुई तो उसकी जिम्मेदारी अमीर की होगी तथा उसके भतीजे एवं विरोधी अब्दुर रहमान का अफगान गद्दी के लिए समर्थन किया जायेगा।

शेरअली को विवश होकर झुकना पङा तथा रूस के साथ निश्चित मैत्री-संधि करनी पङी।

अफगानिस्तान में रूसी शिष्टमंडल का प्रवेश लिटन के लिए खतरे की घंटी थी। अतः 7 अगस्त,1878 को लिटन ने अमीर के पास एक पत्र भेजकर सूचित किया कि अफगानिस्तान को बिना ब्रिटिश अनुमति के किसी और देश से संधि करने की अनुमति नहीं दी जायेगी।

अमीर को हेरात में स्थायी रूप से निवास करने के लिए एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट के रहने की अनुमति देनी होगी तथा अमीर इस बात को स्वीकार करे कि ब्रिटिश सरकार को अपना एक अधिकारी भेजने का अधिकार होगा, जो अमीर से उसकी सुविधा से बातचीत करेगा।

रूसी एजेण्ट ने अमीर को इस पत्र का उत्तर कुछ समय तक रोके रखने की सलाह दी। इधर लिटन ने सर नेविल चेम्बरलेन के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल काबुल की ओर रवाना कर दिया। किन्तु अली मस्जिद पर तैनात एक अफगान अधिकारी ने उसे बङी नम्रता से निवेदन किया कि बिना अमीर की आज्ञा के वे आगे नहीं जा सकते।

इस पर ब्रिटिश शिष्टमंडल को पुनः पेशावर लौटना पङा। इस घटना से लिटन अत्यंत ही क्रुद्ध हुआ और उसने गृह सरकार को झूठ ही यह सूचना भिजवा दी कि ब्रिटिश शिष्टमंडल को शक्तिपूर्वक धकेल दिया गया है, इसलिए युद्ध घोषणा की अनुमति प्रदान की जाये। गृह विभाग ने एक अनिश्चित -सा उत्तर भिजवा दिया।

अतः 2 नवंबर, 1878 को लार्ड लिटन ने अमीर के पास एक चोतावनी -पत्र भेजा जिसमें अमीर से कहा गया कि 20 नवंबर, 1878 तक वह अपने देश में शिष्टमंडल के प्रवेश की अनुमति प्रदान करे, अफगानिस्तान में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखने की स्वीकृति दे तथा ब्रिटिश सरकार से क्षमा याचना करे।

ऐसा न करने पर उसे आक्रमण की विपत्ति झेलनी पङी। यद्यपि ब्रिटिश शिष्टमंडल के आगमन की सूचना मिलते ही रूसी शिष्टमंडल ने अफगानिस्तान छोङ दिया था जिससे लिटन का क्रोध समाप्त हो जना चाहिये था, लेकिन लिटन तो यह सिद्ध करने पर आमाद था कि, हम अत्यधिक शक्तिशाली और अति सभ्य हैं और वे (अफगान) तुलनात्मक दृष्टि से कमजोर और अर्द्ध बर्बर हैं।

अमीर ने अपना उत्तर 19 नवंबर को ही भेज दिया, जिसमें क्षमा याचना की माँग को छोङकर लिटन की सभी माँगें स्वीकार कर ली थी।

लेकिन अमीर का यह पत्र लिटन के पास देर से 30 नवंबर को पहुँचा । लिटन ने यह आदेश दे दिया की जिस दिन चेतावनी की तिथि समाप्त हो उसी दिन ब्रिटिश सेना आगे बढे।

21 नवंबर को लिटन ने अफगानिस्तान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। ब्रिटिश सेना अफगानिस्तान में तीन दर्रों से प्रविष्ट हुई। अमीर ने कॉफमान से सहायता की अपील की, लेकिन उसने अमीर को अंग्रेजों से संधि कर लेने की सलाह दी।

कॉफमान ने अमीर से कहा कि अमीर को दी जाने वाली सहायता, बर्लिन संधि का उल्लंघन होगा। वास्तव में रूस ने अमीर को धोखा दिया। अमीर को रूस से बङी आशाएँ थी, लेकिन समय आने पर रूस शेरअली को उसकी दशा पर छोङकर स्वयं पीछे खिसक गया ताकि अमीर अपनी सहायता स्वयं करे।

शेरअली अकेला ब्रिटिश शक्ति का सामना करने में असमर्थ था। ब्रिटिश सेना बिना किसी प्रतिरोध के आगे बढती गई। शेरअली चुपके से भागकर रूस चला गया जहाँ 21 फरवरी, 1879 को उसकी मृत्यु हो गयी।

अब शेरअली का पुत्र याकूबखाँ अफगानिस्तान का नया अमीर बना। अंग्रेजों ने याकूब खाँ से संधि वार्ता प्रारंभ की। फलस्वरूप 26 मई, 1879 ई. को दोनों के बीच गंडमक की संधि हो गई।

गंडमक की संधि

  1. अंग्रेजों ने याकूबखाँ को काबुल का अमीर मान लिया।
  2. नये अमीर ने काबुल में एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट तथा हेरात व कुछ अन्य स्थानों पर एजेण्ट रखना स्वीकार कर लिया।
  3. अफगानिस्तान की विदेश नीति का संचालन अंग्रेजों की राय से होगा।
  4. नये अमीर ने अंग्रेजों को खर्म, पीशी और सीबी जिलों के अतिरिक्त खुर्रम दर्रा भी प्रदान कर दिया।
  5. अंग्रेजों ने विदेशी आक्रमण से अमीर की रक्षा करने का आश्वासन दिया तथा छः लाख रुपये प्रतिवर्ष अमीर को आर्थिक सहायता देना स्वीकार किया।

इस प्रकार अफगानिस्तान पर अंग्रेजों की विजय पूर्ण हो गयी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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