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स्वामी विवेकानंद पर निबंध

स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद ने ब्रह्म समाज और आर्य समाज की अपेक्षा हिन्दू धर्म का प्रतिपादन अधिक मनोबल एवं सम्मान से किया। राजा राममोहन राय हिन्दू धर्म के लिये क्षमायाचना से अधिक नहीं थे तथा भारतीय हिन्दू धर्म को उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में देखा। स्वामी दयानंद ने वेदों में निहित ज्ञान को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया तथा ईसाई -मिशनरियों के आरोपों का प्रत्यतुर दिया।किन्तु स्वामी विवेकानंद ने समस्त वेदांत की सैद्धांतिक व्याख्या की तथा पाश्चात्य धर्म में उपलब्ध ज्ञान से हिन्दू धर्म को उच्चतर बताया।

स्वामी विवेकानंद,रामकृष्ण परमहंस के सबसे महान शिष्य थे। उनका जन्म 12जनवरी,1863 को कलकत्ता में एक दत्त परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम नरेन्द्र दत्त था। उन्होंने एक अंग्रेजी कॉलेज से बी.ए. की डिग्री प्राप्त की। उन पर यूरोप के बुद्धिवाद और उदारवाद का भारी प्रभाव पङा था। उन्होंने जॉन स्टुअर्ट मिल,ह्यूम, हर्बर्ट, स्पेन्सर, रूसी जैसे पाश्चात्य दार्शनिकों का गहन अध्ययन किया। उनमें उच्चकोटि की बौद्धिकता के साथ-2 जिज्ञासा भी प्रबल थी। आरंभ में वे ब्रह्म समाज की ओर आकर्षित हुए, किन्तु ब्रह्म समाज के नेता उनकी आध्यात्मिक जिज्ञासा शांत नहीं कर सके। उसके बाद किसी संबंधी के कहने पर सन् 1881 में दक्षिणेश्वर में रामकृष्ण परमहंस से मिलने गये।

विवेकानंद की रामकृष्ण परमहंस से भेंट-

जिस समय नरेन्द्र दत्त की स्वामी रामकृष्ण से प्रथम भेंट हुई थी, उस समय उनके और रामकृष्ण के विचारों में कोई समानता नहीं थी। रामकृष्ण हिन्दू धर्म के प्रतीक थे, जबकि नरेन्द्र दत्त (पश्चिम से प्रभावित) तर्क,विचार और बुद्धिवाद में विश्वास करने वाले थे।किन्तु रामकृष्ण के संपर्क से नरेन्द्र के जीवन की दिशा ही बदल गई। नरेन्द्र ने रामकृष्ण से प्रश्न किया कि, क्या आपने ईश्वर को देखा है। रामकृष्ण ने तुरंत उत्तर दिया-हाँ, मैं ईश्वर को वैसे ही देखता हूँ जैसे मैं कोई अपने बाप के लिए, कोई माँ के लिये तथा कोई पत्नी के लिए रोता है, परंतु मैंने आज तक ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जो इसलिए रो रहा हो कि उसे ईश्वर नहीं मिला। इस कथन से नरेन्द्र अत्यंत ही प्रभावित हुए। इस स्पर्श से नरेन्द्र को जो अनुभूति हुई, उसका वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है, आँखें खुली होने पर भी मैंने दीवारों सहित सारे कमरे को शून्य में विलीन होते देखा। मेरे व्यक्तित्व सहित सारा ब्रह्माण्ड ही एक सर्वव्यापक रहस्यमय शून्य से लुप्त होते दिखाई पङा। इस प्रकार युवक नरेन्द्र ने रामकृष्ण की आध्यात्मिकता से अभिभूत होकर उन्हें अपना गुरु मान लिया। गुरु के निरीक्षण में उसके आध्यात्मिक व्यक्तित्व का विकास होने लगा। रामकृष्ण ने नरेन्द्र को मानव मात्र में ईश्वर के दर्शन की प्रेरणा दी और उसे बताया कि मनुष्य ईश्वर का रूप है और उसकी सेवा ही सर्वोच्च धार्मिक साधना है। नरेन्द्र ने अपना समस्त जीवन ही इस साधना में लगा दिया। अपनी मृत्यु के अवसर पर रामकृष्ण ने अपने विचारों को फैलाने तथा अपने शिष्यों की देखभाल करने का उत्तरदायित्व नरेन्द्र को सौंपा।

रामकृष्ण की मृत्यु के बाद उनके बहुत से शिष्य अपने-2 घरों को चले गये। किन्तु नरेन्द्र ने अपने तीन-चार साथियों के साथ काशीपुर के निकट बारा-नगर में एक टूटे हुए मकान में रहना आरंभ किया। 1887 में प्रथम बार इस मठ को, धार्मिक रूप से स्थापित किया गया, जबकि मठ के करीब 12 सदस्यों ने वैदिक क्रियाओं के अनुसार संन्यास ग्रहण किया और अपने नाम भी बदले। उसी समय नरेन्द्र का नाम स्वामी विवेकानंद रखा गया।

शिकागो सर्व-धर्म सम्मेलन-

संन्यास ग्रहण करने के बाद स्वामी विवेकानंद ने भारत भ्रमण किया और भ्रमण करते हुए वे कन्याकुमारी तक गये, जहाँ उन्हें पता लगा कि अमेरिका के शिकागो नगर में विश्व के सभी धर्मों की एक सभा हो रही है। अतः 1893 ई. में बङी कठिनाई से स्वयं के प्रयत्नों से वे अमेरिका गये। हिन्दुत्व एवं भारतवर्ष के लिये यह अच्छा हुआ कि स्वामीजी इसमें जा सके, जहाँ उन्होंने हिन्दुत्व के पक्ष में इतना ऊँचा प्रचार किया, जैसै न तो कभी पहले हुआ था और न उसके बाद से लिकर आज तक हो पाया हैं।

शिकागो नगर में होने वाले सर्व-धर्म सम्मेलन में स्वामीजी ने हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। सम्मेलन में स्वामीजी ने जिस ज्ञान,जिस उदारता,जिस विवेक और जिस वाग्मिकता का परिचय दिया, उससे वहाँ के लोग मंत्र-मुग्ध हो गये। जब उन्होंने अपने प्रथम भाषण में अमेरिकावासियों को भाइयों और बहिनो के शब्दों से संबोधित किया तो सम्मेलन में इसका भारी करतल-ध्वनि से स्वागत हुआ। इसकी सभाएँ प्रतिदिन होती थी। और उन्होंने अपने भाषण सभा के अंत में ही दिये,क्योंकि सारी जनता उन्हीं का भाषण सुनने के लिए अंत तक बैठी रहती थी। उन्होंने हिन्दू धर्म की उदारता पर प्रकाश डालते हुए बताया कि हिन्दुत्व के शब्दकोष मे असहिष्णु शब्द ही नहीं है। उन्होंने यह भी बताया कि हिन्दू धर्म का आधार शोषण,रक्तपात या हिंसा नहीं है, बल्कि प्रेम है। स्वामीजी ने वेदांत के सत्य पर भी प्रकाश डाला। जब तक सम्मेलन समाप्त हुआ, तब तक स्वामीजी अपना तथा भारत का प्रभाव अमेरिका में स्थापित कर चुके थे। स्वामी जी के भाषणों क प्रशंसा में अमेरिका के समाचार पत्र द न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा , सर्व-धर्म सम्मेलन में सबसे महान व्यक्ति विवेकानंद है। उनका भाषण सुन लेने पर अनायास ही यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म -प्रचारक भेजने की बात कितनी मूर्खतापूर्ण है।

इस सम्मेलन ने स्वामी जी को विश्व प्रसिद्ध बना दिया। उन्होंने अमेरिका के अनेक नगरों की यात्राएं की, जहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ। वे अमिरिका से पेरिस गये तथा यूरोप के कई नगरों में उन्होंने हिन्दुत्व तथा वेदांत दर्शन पर भाषण किये। वे लगभग तीन वर्ष तक विदेशों में घूमति रहे। इस अल्पावधि में उनके भाषणों,वार्तालापों,लेखों और वक्तव्यों के द्वारा यूरोप व अमेरिका मे हिन्दू धर्म और संस्कृति की प्रतिष्ठा स्थापित हुई। सितंबर,1895 में वे लंदन गये और वहाँ भी धर्म-प्रचार किया। वे पुनः अमेरिका गये तथा फरवरी, 1896 में न्यूयार्क में वेदांत सोसायटी की स्थापना की, जिसका लक्ष्य वेदांत का प्रचार करना था। अमेरिका में उनके बहुत से अनुयायी हो गये। वे चाहते थे कि कुछ भारतीय धर्म-प्रचारक अमेरिका में भारतीय दर्शन अर्थात् वेदांत का प्रचार करें और उनके अमेरिकी शिष्य भारत आकर विज्ञान और संगठन का महत्त्व सिखायें।

रामकृष्ण मिशन की स्थापना –

भारत लौटकर स्वामी जी ने मई,1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की तथा 1जनवरी,1899 को वेलूर में इस नियम का मुख्य कार्यालय स्थापित किया। जून,1899 में वे दूसरी बार अमेरिका गये तथा लॉस एंजिल्स, सैनफ्रांसिस्को,केलिफोर्निया आदि विभिन्न स्थानों पर वेदांत सोसाइटी की स्थापना की । यहां से वे पेरिस के एक धार्मिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये और उन्होंने हिन्दू धर्म पर अपना भाषण दिया। अपने विदेश प्रवास के दौरान स्वामीजी ने हिन्दू धर्म का व्यापक प्रचार किया। प्रायः डेढ सौ वर्षों से ईसाई धर्म प्रचारक विश्व में हिन्दुत्व की आलोचना कर निंदा फैला रहे थे,उन पर अकेले स्वामीजी ने रोक लगा दी और जब भारतवासियों ने यह सुना कि सारा पश्चिमी जगत् स्वामीजी के मुख से हिन्दुत्व का आख्यान सुनकर गदगद हो रहा है, तब हिन्दू भी अपने धर्म और संस्कृति के गौरव का अनुभव करने लगे। श्री रामधारीसिंह दिनकर ने लिखा है हिन्दुत्व को लीलने के लिए अंग्रेजी भाषा, ईसाई धर्म और यूरोपीय बुद्धिवाद के पेट से जो तूफान उठा था, वह स्वामी विवेकानंद के हिमालय जैसे विशाल वृक्ष से टकराकर लौट गया। हिन्दू जाति का धर्म है कि वह जब तक जीवित रहे, विवेकानंद की याद उसी श्रद्धा से करती जाये, जिस श्रद्धा से वह व्यास और वाल्मीकि को याद करती है।

संपूर्ण यूरोप का दौरा करने के बाद स्वामीजी 1900 ई. में भारत लौटे। अब उनका स्वास्थ्य बिगङने लगा था। इसी कारण वे बनारस गये। वहाँ से कलकत्ता वापिस आने पर उनका स्वास्थ्य फिर खराब हो गया और 4जुलाई,1902 को 39 वर्ष की अल्पायु में विश्व की इस महान् विभूति का देहांत हो गया।

Reference :https://www.indiaolddays.com/

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