आधुनिक भारतइतिहास

रामकृष्ण परमहंस(Ramkrishna Paramhansa) कौन थे

रामकृष्ण परमहंस

ब्रह्म समाज और आर्य समाज के प्रचार से हिन्दू धर्म और संस्कृति को गौरव तो प्राप्त हुआ, किन्तु अब लोग यह जानने को उत्सुक हो उठे कि धर्म का सच्चा स्वरूप क्या है। रामकृष्ण परमहंस (1836-1886)ने भारतीयों के समक्ष धर्म के सच्चे स्वरूप को प्रदर्शित किया। रामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था तथा इनका जन्म 1836 में बंगाल के हुगली जिले में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन से ही इन्हें शिक्षा के प्रति कोई रुचि नहीं थी, बल्कि वे धार्मिक चिंतन में मग्न रहते थे। 17 वर्ष की आयु में अपने पिता का देहांत हो जाने पर वे अपने बहे भाई के साथ कलकत्ता आ गये। अपने भाई की मृत्यु के बाद 21 वर्ष की आयु में कलकत्ता के पास दक्षिणेश्वर में कालीदेवी के मंदिर में पुजारी बन गये। पुजारी के रूप में कार्य करते हुए उनके मन में काली माँ के प्रति अगाध भक्ति एवं श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। वे देवी को माँ कहकर पुकारते थे और अक्सर उसके सामने शिशु का सा व्यवहार करते थे। 24वर्ष की आयु में उनका विवाह शारदामणि नामक 5 वर्ष की कन्या के साथ कर दिया गया।

रामकृष्ण परमहंस विवाह के बाद पुनः दक्षिणेश्वर मंदिर में आ गये। उसके बाद 12 वर्ष तक उन्होंने विभिन्न प्रकार की साधनाएँ की। सर्वप्रथम उन्होंने भैरवी नामक एक ब्राह्मण संन्यासिन से तांत्रिक साधना को दो वर्ष तक सीखा। उसके बाद उन्होंने वैष्णव धर्म की साधना करते हुए उन्होंने श्रीकृष्ण का प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त किया। उसके बाद तोतापुरी नामक एक महान वेदांतिक साधु ने उन्हें वेदांत-साधना सिखाई। उसके बाद रामकृष्ण ने सूफी धर्म में सम्मिलित होकर इस्लाम धर्म की साधना की। उसके बाद कुछ समय तक ईसाई धर्म की साधना की। 1867 के बाद रामकृष्ण की आत्मा को संतोष प्राप्त हुआ। इस प्रकार उनका जीवन विविध प्रकार की आध्यात्मिक साधना से ओत-प्रोत हो गया। उन्होंने अपनी साधना द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि धर्म तथा ज्ञान,विद्या का विषय नहीं है, अपितु अनुभूति का विषय है। इसी समय शारदामणि एक युवती के रूप में उनकी पत्नी बनकर उनके पास आ गयी। शारदामणि जीवनपर्यंत दक्षिणेश्वर में अपने पति के साथ रही, किन्तु रामकृष्ण ने उसे कभी पत्नी के रूप में नहीं देखा, बल्कि उन्होंने उसे माँ कहकर उसक पूजा की। साधना करते -2 रामकृष्ण ने अपने शरीर को इतना शुद्ध कर लिया कि वह ईश्वरत्व का निर्मल यंत्र हो गया था। वे राजा राममोहन राय तथा स्वामी दयानंद सरस्वती के समान विद्वान नहीं थे, अपितु उच्चकोटि के संत थे। एक संत के रूप में इस समय तक उनकी बहुत ख्याति हो चुकि थी। और दूर-2 से लोग उनके दर्शनों को आने लगे। अनेक शिक्षित नवयुवक भी उनकी तरफ आकर्षित हुए। वे सुबह से रात तक आने वाले व्यक्तियों को उपदेश देते रहते थे। उनके आध्यात्मिक जीवन को देखकर भारतीयों को मालूम हुआ कि धर्म वास्तव में कैसा होता है। आचार्य पी.सी. मजूमदार, जो एक ब्रह्म समाजी थे, ने लिखा है कि रामकृष्ण के दर्शन होने से पूर्व यह कोई नहीं जानता था कि धर्म कैसा होता है। सब आडंबर ही था। धार्मिक जीवन कैसा होता है,यह बात रामकृष्ण की संगति का लाभ होने पर जान पङी। आध्यात्मवाद का उपदेश देते हुए 16 अगस्त,1886 को कैंसर रोग से उनकी मृत्यु हो गई।

रामकृष्ण ने न कोई संप्रदाय ही स्थापित किया और न कोई आश्रम स्थापित किया। वे भारत की परंपरागत संत पद्धति से उपदेश देते थे। धर्म के गहन से गहन तत्त्वों को वे बहुत सीधे-2 वाक्यों में उदाहरण देते हुए समझाते थे। वे धर्म की साकार प्रतिमा थे। रामकृष्ण को कुछ विद्वानों ने धर्म का जीता-जागता स्वरूप बताया है। स्वामी दयानंद ने तो हिन्दू धर्म के केवल एक अंग बौद्धिक धर्म की श्रेष्ठता को ही सिद्ध किया था, किन्तु रामकृष्ण हिन्दू धर्म के वास्तविक प्रतिनिधि थे, जो निराकार तथा साकार ईश्वर दोनों को मानते थे। वे मूर्तिपूजा के विरोधी नहीं थे और न एकेश्वरवाद – अनेकेश्वरवाद में भेद मानते थे। उनकी दृष्टि से वेद,उपनिषद, पुराण,रामायण और महाभारत सभी पवित्र ग्रंथ थे।

रामकृष्ण की शिक्षाएँ-

उच्च कोटि के विद्वान न होते हुए भी रामकृष्ण ने वेदांत के सत्यों की बङे ही सुंदर ढंग से व्याख्या की। उनकी शिक्षाओं का सार संक्षेप में निम्नलिखित है-

  • मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य ईश्वर से साक्षात्कार करना है। हम अपने उच्च आध्यात्मिक जीवन का विकास कर ईश्वर का दर्शन कर सकते हैं।
  • उन्होंने गृहस्थ जीवन को ईश्वर की प्राप्ति में बाधक नहीं माना। उनका कहना था कि ईश्वर -प्राप्ति के लिए हमें विषय-वासनाओं को त्यागना होगा तथा मन को कंचन और कामिनी से हाटाकर ईश्वर की ओर लगाना पङेगा। इससे गृहस्थ में रहते हुए भी आध्यात्मिक विकास कर सकते हैं।
  • शरीर और आत्मा ये दो भिन्न वस्तुएँ हैं, इस सिद्धांत को समझाते हुए उन्होंने कहा कि कामिनी-कंचन की आसक्ति यदि पूर्ण रूप से नष्ट हो जाए तो शरीर अलग है और आत्मा अलग है, यह स्पष्ट दिखाई देने लगता है। नारियल का पानी सूख जाने पर जैसे खोपरा और नरेटी दोनों अलग-2 दिखाई देने लगते हैं, वैसे ही शरीर और आत्मा के बारे में जानना चाहिए।
  • तर्क से वे बहुत घबराते थे। उनका कहना था कि शास्त्रार्थ को मैं पसंद नहीं करता । ईश्वर शास्त्रार्थ की शक्ति से परे हैं, मुझे तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि जो कुछ है वह ईश्वरमय है, फिर तर्कों से क्या फायदा।
  • मूर्तिपूजा का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि जैसे वकील को देखते ही अदालत की याद आती है, उसी प्रकार प्रतिमा पर ध्यान जाते ही ईश्वर की याद आती है।
  • रामकृष्ण अनुभूति को तर्क,वाद-विवाद, प्रवचन और भाषण से अधिक महत्व देते थे।
  • उनके अनुसार सभी मनुष्य एक समान हैं। कोई किसी से कम नहीं है।
  • विद्वान और पांडित्य के साथ वे मनुष्य में शील और सदाचार चाहते थे।
  • वे सभी धर्मों को एक ही मानते थे। उनके अनुसार सभी धर्म एक ही ईश्वर तक पहुँचाने के विभिन्न मार्ग हैं।

रामकृष्ण परमहंस की देन-

  • विश्व के लिए रामकृष्ण की सबसे बङी देन आध्यात्मवाद है। अपने सरल उपदेशों और अपने जीवन के उदाहरण से उन्होंने वेदों और उपनिषदों के जटिल ज्ञान को साधारण व्यक्तियों के निकट कर दिया। रामकृष्ण ने अपनी शिक्षाओं के द्वारा हिन्दू धर्म के ग्रंथों को न केवल सरल बनाया, बल्कि हिन्दुओं में अपने प्राचीन ज्ञान के प्रति श्रद्धा और विश्वास भी उत्पन्न किया। एक प्रकार से रामकृष्ण हिन्दू धर्म के आध्यात्मवाद के जीवित स्वरूप थे।
  • रामकृष्ण की दूसरी महत्त्वपूर्ण देन सभी धर्मों की एकता में विश्वास करना था। उन्होंने अपने केवल उपदेशों से ही नहीं बल्कि अपने जीवन में विभिन्न धर्मों की साधना करके यह स्पष्ट कर दिया कि सभी धर्म ईश्वर -प्राप्ति के विभिन्न मार्ग हैं।
  • उनकी तीसरी महत्त्वपूर्ण देन यह है कि उन्होंने मानवमात्र की सेवा और भलाई को धर्म बताया। उनका कहना था कि प्रत्येक प्राणी भगवान का रूप है, अतः उसकी सेवा करना भगवान की सेवा करना है। उनके शिष्य विवेकानंद ने इसी भाव को ग्रहण कर दरिद्रनारायण की सेवा करने में अपनी शक्ति लगा दी।

Reference :https://www.indiaolddays.com/

Related Articles

error: Content is protected !!