आधुनिक भारतइतिहासराजा राम मोहन राय

ब्रह्म समाज(brahma-samaj) की स्थापना किसने एवं कब की

ब्रह्म समाज

ब्रह्म समाज(brahma-samaj)

ब्रह्म समाज

अन्य संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य-

सन्1813 के बाद ईसाई मिशनरियों ने हिन्दू धर्म पर प्रबल आक्षेप करने आरंभ कर दिये थे। आरंभ में तो राजा राममोहन राय उन आक्षेपों का उत्तर देते रहे, किन्तु बाद में उन्होंने शुद्ध एकेश्वरवाद की उपासना के लिए 20अगस्त,1828 को ब्रह्म समाज की स्थापना की। उन्होंने किसी नवीन संप्रदाय को खङा नहीं किया था, बल्कि धर्मों की उच्च शिक्षाओं के तत्त्व से एक सामान्य पृष्ठभूमि तैयार की।

ब्रह्म समाज 20अगस्त,1828 ई.

ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धांत

  • एक ही ईश्वर की उपासना,
  • मानव मात्र के प्रति बंधुत्व की भावना तथा सभी धर्मों के धार्मिक ग्रंथों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करना था।
  • राममोहन राय ने जाति-बंधनों का खंडन किया।
  • ब्रह्म समाज के साप्ताहिक अधिवेशनों में वेदों का पाठ, और उपनिषदों के बंगला अनुवाद का वाचन होते थे।

1833 में राजा राममोहनराय की मृत्यु के बाद देवेन्द्रनाथ सेन ने ब्रह्म समाज को अधिक प्रगतिशील बनाया। केशवचंद्र सेन ईसाई धर्म से अधिक प्रभावित थे। अतः वे ब्रह्म समाज को ईसाई धर्म के सिद्धांत के अनुसार चलाना चाहते थे।

केशवचंद्र ने अपने समाज के प्रचारार्थ पर्यटन आरंभ किया, जिसके फलस्वरूप बंबई में प्रार्थना समाज और मद्रास में वेद समाज की स्थापना हुई। 1881 में भारतीय ब्रह्म समाज में पुनः मतभेद उत्पन्न हो गये।

अतः केशवचंद्र सेन ने नव विधान समाज की स्थापना की। नव विधान समाज में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अतिरिक्त ईसाई, बौद्ध और मुस्लिम धार्मिक ग्रंथों से भी अनेक बातें ली गई थी। यद्यपि ब्रह्म समाज विभिन्न शाखाओं में विभक्त हो गया था, तथापि उसका मूल आधार एक ही था- हिन्दू समाज और धर्म का सुधार करना।

19वी. शता. का प्रथम धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। राजा राममोहनराय पहले भारतीय थे, जिन्होंने भारतीय धर्म और समाज की बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया। उस समय भारतीय समाज और धर्म पत्नोन्मुख हो रहे थे।धर्म का स्थान कर्मकांडों ने ले लिया था तथा संपूर्ण समाज में अंधविश्वास व्याप्त हो गया था।

समाज में अनेक बुराइयाँ आ गई थी। ऐसी स्थिति में ईसाई धर्म एवं पाश्चात्य संस्कृति ने हिन्दू धर्म पर प्रहार किया, जिससे ऐसा प्रतीत होने लगा मानो हिन्दू धर्म और सभ्यता नष्ट हो जायेगी। ऐसे समय में ब्रह्म समाज ही पहला संगठन था, जिसने हिन्दू धर्म की प्राचीन मान्यताओं पर आक्रमण किया। इससे अन्य सुधारकों को बल प्राप्त हुआ।

धार्मिक सुधार- ब्रह्म समाज ने नेदों और उपनिषदों को आधार मानकर बताया कि ईश्वर एक है, सभी धर्मों में सत्यता है, मूर्तिपूजा और कर्मकांड निर्थरक हैं तथा सामाजिक कुरीतियों का धर्म से कोई संबंध नहीं है। सर्वप्रथम ब्रह्म समाज ने ही तर्क के आधार पर धर्म की व्याख्या करने का विचार भारतीय समाज को प्रदान किया।

धर्म की व्याख्या करते हुए उसके ईसाई धर्म के कर्मकांडों तथा ईसा मसीह के ईश्वरीय अवतार होने के दावे पर प्रबल आक्रमण किया तथा ईसाई धर्म-प्रचारकों से शास्त्रार्थ किया। इनका परिणाम यह हुआ कि जो हिन्दू ईसाई धर्म ग्रहण कर रहे थे, वे अपने धर्म-परिवर्तन करने से रुक गए।

ब्रह्म समाज मूलतः भारतीय था और इसका आधार उपनिषदों का अद्वैतवाद था। इस समाज की बैठकों में वेद तथा उपनिषदों के मंत्रों का पाठ हुआ करता था।

ब्रह्म समाज के मुख्य सिद्धांत निम्नलिखित थे-

  • ईश्वर एक है, वह संसार का सृष्टा,पालक और रक्षक है। इसकी शक्ति,प्रेम,न्याय,पवित्रता अपरिमित है।
  • आत्मा अमर है, उसमें उन्नति करने की असीम क्षमता है और वह अपने कार्यों के लिए भगवान के सामने उत्तरदायी है।
  • आध्यात्मिक उन्नति के लिए, प्रार्थना, भगवान का आश्रय और उसके अस्तित्व की अनुभूति आवश्यक है।किसी भी बनाई गई वस्तु को ईश्वर समझकर नहीं पूजना चाहिए और न किसी पुस्तक या पुरुष को मोक्ष का एकमात्र साधन मानना चाहिए।

Reference :https://www.indiaolddays.com/

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