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प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध की जानकारी

प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध


प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध जिसे प्रथम अफ़ग़ान युद्ध के नाम से भी जाना जाता है, 1839 से 1842 के बीच अफ़ग़ानिस्तान में अंग्रेजों और अफ़ग़ानिस्तान के सैनिकों के बीच लड़ा गया था। इसकी प्रमुख वजह अंग्रेज़ों के रूसी साम्राज्य विस्तार की नीति से डर था।

पृष्ठभूमि

1826 ई. में दोस्त मोहम्मद अफगानिस्तान का अमीर बना। अफगानिस्तान का पदच्युत शाहशुजा भागकर भारत आया और अंग्रेजों के संरक्षण में रहने लगा था। शाहशुजा ने अंग्रेजों व रणजीतसिंह की सहरायता से पुनः अफगानिस्तान की गद्दी प्राप्त करने का प्रयास किया, किन्तु उसे सफलता नहीं मिली।

इस समय पेशावर को लेकर रणजीतसिंह और दोस्त मोहम्मद के बीच शत्रुता उत्पन्न हो चुकी थी और उधर शाहशुजा अंग्रेजों के संरक्षण में था। इस प्रकार दोस्त मोहम्मद एक तरफ तो अंग्रेजों व रणजीतसिंह से सशंकित था तो दूसरी तरफ रूस और फारस का भय भी उसे आतंकित किये हुए था।

1836 ई. में दोस्त मोहम्मद ने लार्ड ऑकलैण्ड को पत्र लिखा जिसमें उसने उच्च पद पर उसकी नियुक्ति के लिए उसे मुबारकबाद दी। इस पत्र में उसने अपनी कठिनाइयों का उल्लेख करते हुए आशा व्यक्त की कि नया गवर्नर जनरल इन कठिनायों को दूर करने में उसकी सहायता करेगा तथा रणजीतसिंह से पेशावर पुनः दिलवाने का प्रयत्न करेगा। किन्तु ऑकलैण्ड ने प्रत्युत्तर दिया कि ब्रिटिश सरकार स्वतंत्र राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती। इस प्रत्यत्तर से दोस्त मुहम्मद को बङी निराशा हुई।

इसी समय मध्य पूर्व में रूस की गतिविधियाँ बढ गयी। ब्रिटेन का विदेश मंत्री पामर्स्टन चाहता था कि रूस अफगानिस्तान के मार्ग से भारत का दरवाजा खटखटाए उससे पूर्व ही कोई कारगर कदम उठाना चाहिये। अतः पामर्स्टन के निर्देश पर जून, 1836 में कंपनी के संचालक मंडल ने ऑकलैण्ड को लिखा कि अफगानिस्तान पर फारस के प्रभाव को रोकने के लिए या रूस के आक्रमण को रोकन् के लिए अफगानिस्तान में हस्तक्षेप की आवश्यकता पङ सकती है, अतः अब समय आ गया है कि अफगानिस्तान के मामले में निश्चित रूप से हस्तक्षेप किया जाय।

संचालक मंडल से निर्देश प्राप्त होने पर ऑकलैण्ड ने नवंबर,1836 में अलेक्जेण्डर बर्न्स नामक व्यक्ति को एक व्यापारिक मिशन के रूप में काबुल भेजा। किन्तु इस मिशन का वास्तविक उद्देश्य शुद्ध राजनैतिक था। सितंबर,1837 में बर्न्स काबुल पहुँचा।

बर्न्स और दोस्त मुहम्मद के बीच संधि के लिए बातचीत आरंभ हुई। दोस्त मोहम्मद अंग्रेजों से संधि करने को तैयार हो गया किन्तु इसके लिए उसने अपनी दो शर्तें रखी- प्रथम तो यह कि अंग्रेज सिक्खों से पेशावर दिलाने में उसकी सहायता करें और दूसरी यह कि यदि काबुल और कंधार पर फारस का आक्रमण हो तो इस आक्रमण के विरुद्ध अंग्रेज उसकी सहायता करें। अंग्रेज उसकी दूसरी शर्त को तो स्वीकार करने को तैयार थे, लेकिन रणजीतसिंह और अंग्रेजों के घनिष्ठ संबंधों के कारण वे पहली शर्त स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। अतः दोस्त मोहम्मद का झुकाव रूस की तरफ होने लगा। काबुल में रूसी राजदूत विक्टेविच का विशेष आदर सत्कार होने लगा। बर्न्स मिशन पूरी असफल होकर 26 अप्रैल,1838 को भारत के लिए रवाना हो गया।

फारस का शाह मुहम्मद मिर्जा, रूस का परम मित्र था। रूस, फारस के माध्यम से अफगानिस्तान पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास कर रहा था। अतः नवंबर,1837 में रूस के उकसाने पर मुहम्मद मिर्जा ने अफगानिस्तान की पश्चिमी सीमा की ओर सेनाएँ भेज दी, जिसने हेरात शहर पर घेरा डाल दिया।

हेरात पर फारस की विजय हो जाने से हेरात पर रूसी प्रभाव बढने की संभावना थी और हेरात तथा कंधार से भारत की ओर जाने वाले मार्ग पर रूस का प्रभाव भारतीय सुरक्षा के लिए कभी भी खतरा उत्पन्न कर सकता था। अतः ऑकलैण्ड ने फारस की खाङी में एक नौसेना भेज दी तथा ब्रिटिश सरकार ने अत्यंत ही कठोर शब्दों में फारस को हेरात का घेरा उठाने हेतु चेतावनी धी। फारस ने भयभीत होकर 9 सितंबर,1939 को हेरात का घेरा उठा लिया। ब्रिटेन ने रूस पर भी दबाव डाला, फलस्वरूप रूस ने फारस और अफगानिस्तान से अपने राजदूतों को वापिस बुला लिया। इन बदली हुई परिस्थितियों में अब भारत पर आक्रणण का कोई भय नहीं रहा। अतः अब अंग्रेजों की अफगान नीति में परिवर्तन आया।

युद्ध

बर्न्स मिशन की असफलता के बाद ऑकलैण्ड ने अफगानिस्तान पर ब्रिटिश प्रभाव स्थापित करने हेतु अफगानिस्तान में हस्तक्षेप करने का निश्चय किया। ऑकलैण्ड ने निश्चय किया कि अफगानिस्तान पर ब्रिटिश प्रभाव स्थापित करने के लिए दोस्त मोहम्मद को अपदस्थ कर शाहशुजा को अफगानिस्तान का अमीर बना दिया जाये। ऑकलैण्ड का विचार था कि शाहशुजा के अमीर बन जाने पर भारतीय सीमा पर एक मित्र का शासन स्थापित हो जायेगा। किन्तु दोस्त मोहम्मद को अपदस्थ करने लिए अफगानिस्तान के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करना अनिवार्य था। ऑकलैण्ड ने 26 जून, 1838 को रणजीतसिंह और शाहशुजा के साथ मिलकर एक त्रदलीय संधि कर ली और शाहशुजा को अफगानिस्तान का अमीर बनाने का निश्चय कर लिया।

1839 ई. में अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर गजनी और कंधार पर अधिकार कर लिया।1839 ई. में अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर गजनी और कंधार पर अधिकार कर लिया।

दोस्त मोहम्मद ने आत्मसमर्पण कर दिया और उसे बंदी बनाकर कलकत्ता भेज दिया गया।1840 ई. में शाहशुजा अफगानिस्तान का अमीर बना। परंतु स्वाभिमानी अफगान ऐसे व्यक्ति को अपना शासक स्वीकार नहीं कर सकते थे। जो विदेशी सहायता से शासक बना हो। अतः अफगानों ने दोस्त मोहम्मद के पुत्र अकबरखाँ के नेतृत्व में 1841 ई. में विद्रोह कर दिया।

अनेक अंग्रेज अधिकारी कत्ल कर दिये गये और अंग्रेजों को, अफगानों से संधियाँ करने के लिए बाध्य होना पङा, जिनके द्वारा अंग्रेजों ने संपूर्ण खजाना और संपूर्ण तोपें छोङने का भी वायदा किया। अंग्रेज सेना अपने सभी शस्त्र समर्पित कर काबुल से जलालाबाद के लिए रवाना हुई। मार्ग में अफगानों ने अंग्रेजों का भीष्ण कत्ले आम किया। केवल एक व्यक्ति डॉ. ब्राइडन जलालाबाद पहुँच सका।

अफगानिस्तान में ब्रिटिश सेना के विनाश से ऑकलैण्ड की बङी बदनामी हुई। अतः ऑकलैण्ड को वापिस इंग्लैण्ड बुला लिया गया। और फरवरी, 1842 में एलनबरो भारत का गवर्नर जनरल बनकर भारत आया।

एलनबरो ने पोलक के अधीन एक सेना भारत से भेजी।अंग्रेज सेनानायक जनरल नॉट पहले ही कंधार में उपस्थित था।

जनरल पोलक और जनरल नॉट ने मिलकरर काबुल और गजनी पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार अंग्रेजों के सम्मान को पुनः स्थापित करके अंग्रेज सेना भारत वापिस आ गई। दोस्त मोहम्मद को कैद से मुक्त कर दिया गया। वह अफगानिस्तान पहुँचकर पुनः वहाँ का अमीर बन गया।

इस प्रकार प्रथम अफगान-युद्ध समाप्त हुआ, जिससे अंग्रेजों को कोई लाभ नहीं हुआ। अंग्रेज शाहशुजा को अफगानिस्तान की गद्दी पर अधिक समय तक नहीं रख सके। अफगानिस्तान का अमीर वही व्यक्ति रहा जो युद्ध से पहले था और वह अंग्रेजों के प्रभाव से सर्वथा मुक्त रहा।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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