इतिहासमध्यकालीन भारत

विजयनगर साम्राज्य का समाज कैसा था | Vijayanagar saamraajy ka samaaj | Society of Vijayanagara Empire

विजयनगर साम्राज्य का समाज – विजयनगर साम्राज्य में सामाजिक व्यवस्था सैद्धांतिक रूप से शास्त्रीय परंपराओं पर आधारित थी। समकालीन अभिलेखों एवं साहित्यिक ग्रंथों में वर्णाश्रम धर्म का उल्लेख है। अनेक अभिलेखों में शासकों द्वारा समस्त वर्णों एवं जातियों के हितों की रक्षा करने का वर्णन है। विजयनगर अभिलेखों में राज्य कर्तव्यों से संबंधित दो वाक्यांशों वर्णाश्रमधर्म मंगलानुपालिसुत्त एवं सकलवर्णाश्रमधर्म मंगलानुपालिसुत्त अर्थात् समस्त वर्णों के मंगल या कल्याण की रक्षा करने का प्रायः उल्लेख मिलता है। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि विजयनगर नरेश किसी वर्ण विशेष के हितों की रक्षा करने के स्थान पर समस्त वर्णों के हितों की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते थे। चारों वर्णों में ब्राह्मण सर्वप्रमुख थे परंतु वर्णाश्रम व्यवस्था के दूसरे अंग क्षत्रियों के संबंध में हमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। मध्यवर्गों में शेट्टी या चेट्टी नामक एक बहुत बङे समूह का उल्लेख किया जा सकता है। इनकी अनेक शाखाएँ या उपशाखाएँ थी। इन चेट्टियों का विजयनगर युग में बहुत प्रभाव था। अधिकांश व्यापार इनके हाथों में केंद्रित था। पुर्तगाली यात्री वार्बोसा ने उनके संबंध में लिखा है कि वे बहुत धनाढ्य और सम्मानित हैं तथा वे बहुत साफ जीवन बिताते हैं। इनकी संतान भी बहुत अल्पायु में व्यापार में लग जाती थी। चेट्टी बहुत अच्छे लिपिक एवं लेखाकार्यों में दक्ष होते थे। चेट्टियों के ही समतुल्य व्यापार करने वाले तथा दस्तकार वर्ग के लोग थे जिन्हें वीर पांचाल कहा जाता था। कैकोल्लार (जुलाहे) कंबलत्तर अर्थात् चपरासी और शास्त्रवाहक, नाई और आंध्र क्षेत्र में रेड्डी कुछ महत्त्वपूर्ण समुदायों में माने जाते थे। इस काल में उत्तर भारत से बहुत बङी संख्या में लोग दक्षिण में आकर बस गए थे। इन्हें बडवा कहा जाता था। इन उत्तर भारतीय नवागंतुकों ने पुराने दक्षिणवासियों के व्यापार को हथिया लिया। इससे बङा सामाजिक विद्वेष उत्पन्न हुआ और दक्षिण के पुराने समुदायों की स्थिति में पतन आया। इस काल की समाज-व्यवस्था की दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि नीची जाति के कुछ वर्गों ने ऊँची जाति के लोगों के विशेषाधिकारों को हथिया लिया। इसने नए सामाजिक तनाव को जन्म दिया।

विजयनगर के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में ब्राह्मणों की स्थिति बहुत ऊँची थी। उन्हें सबसे अधिक विश्वासपात्र माना जाता था। उन्हें किसी भी अपराध के लिये मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता था और विजयनगर की सेना एवं शासन व्यवस्था में वे अनेक उच्च पदों पर आसीन थे। अभिलेखों में विजयनगर की सेना में अनेक सफल ब्राह्मण सेनानायकों का उल्लेख मिलता है। बङे-बङे नायक एवं विजयनगर नरेश उन्हें बहुत अधिक भूमि एवं धन का दान देते थे। उन्हें मंत्री और राजदूत जैसे पदों पर भी नियुक्त किया जाता था।

छोटे सामाजिक समूहों में लोहार, स्वर्णकार, पीतल का काम करने वाले, बढई, मूर्तिकार और जुलाहे आदि प्रमुख समुदाय थे। जुलाहे मंदिरों की परिसीमा में भी रहते थे और मंदिर के प्रशासन एवं स्थानीय करों के आरोपण में उनका बहुत बङा हाथ रहता था, जब कि डोंबर (जो बाजीगरी का काम भी करते थे), जोगी और मझुआरों आदि की सामाजिक स्थिति हेय थी। संक्षेप में आर्थिक दृष्टि से उपयोगी तथा भू-स्वामित्व वाले वर्गों की स्थिति सम्मानजनक थी।

दास प्रथा

विजयनगर युग में दास-प्रथा प्रचलित थी। विदेशी यात्रियों के विवरण और समकालीन अभिलेख पुरुष एवं महिला दासों का उल्लेख करते हैं। यह दास प्रथा विजयनगर युग से पहले चोल काल में भी प्रचलित थी। मनुष्यों के इस क्रय-विक्रय को वेस-वाग कहा जाता था। इसके अलावा जो व्यक्ति ऋण-दाता को ऋण नहीं दे पाता था या दिवालिया हो जाता था, उसे प्रायः ऋणदाता का दास होना पङता था।

स्त्रियों की स्थिति

मध्य युग के अन्य प्रदेशों की भाँति विजयनगर युग में भी स्त्रियों की स्थिति हेय थी। उन्हें सामान्यतः भोग की वस्तु समझा जाता था। समकालीन ऐतिहासिक स्त्रोतों में केवल राजपरिवार की स्त्रियों का ही विवरण प्राप्त होता है। समस्त सामाजिक समूहों की कन्याओं को विवाह से पूर्व माता-पिता के नियंत्रण में रहना पङता था। अभिजात वर्ग की कन्याओं को भली-भाँति शिक्षा दी जाती थी। लोकभाषाओं के अलावा उन्हें संस्कृत की भी शिक्षा दी जाती थी। संगीत और नृत्य उनकी शिक्षा के प्रमुख अंग थे। यही कारण है कि इस काल के साहित्यिक क्षेत्र में महिलाओं का योगदान नगण्य नहीं है। कुलीन परिवारों में कन्याओं का विवाह अल्पायु में ही कर दिया जाता था और कन्यादान को आदर्श विवाह माना जाता था। राज परिवार एवं सामंतों के अलावा अन्य वर्गों में एक पत्नीत्व की प्रथा थी। परंतु राज परिवार के लोग बहु-विवाह ही नहीं करते थे, वरन रखैलों एवं नौकरानियों को भी बङी संख्या में रखते थे। राजप्रासाद में रहने वाली इन महिलाओं में अनेक ज्योतिषी, भविष्य-वक्ता, संगीत एवं नृत्य-प्रवीण और राज्य की अंगरक्षिकाएँ होती थी। राजप्रासाद में रहने वाली इन स्त्रियों में से सैकङों को राजा लोग अपने साथ युद्धक्षेत्र में ले जाते थे। कुलीन एवं अकुलीन स्त्रियों के आभूषणों एवं सामान्य जीवन में भी काफी अंतर था। कुलीन परिवारों की स्त्रियाँ सामान्यतः राजप्रासाद या घर की चारदीवारी के भीतर ही रहती थी। मंदिरों में देवपूजा के लिये रहने वाली स्त्रियों को देवदासी कहा जाता था। उन्हें आजीविका के लिये या तो भूमि दे दी जाती थी अथवा नियमित वेतन दिया जाता था।

कुछ निम्न सामाजिक वर्गों की स्त्रियाँ विभिन्न व्यवसायों और हस्तकलाओं में प्रवीण होती थी। इसी संदर्भ में गणिकाओं का उल्लेख कर सकते हैं जिनका विजयनगर के सामाजिक जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। समकालीन साहित्य में चारों वर्णों के साथ इन गणिकाओं का भी उल्लेख है। ये गणिकाएँ दो वर्गों में विभाजित थी – एक तो वे जो मंदिरों से संबद्ध थी और दूसरी वे जो स्वतंत्र जीवनयापन करती थी। गणिकाएँ चाहे किसी भी जाति या समुदाय की हों उनकी जाति एक होती थी। इस वर्ग की स्त्रियाँ पर्याप्त रूप से शिक्षित होती थी। अधिकांस गणिकाएँ धनाढ्य और विशेषाधिकार प्राप्त होती थी। गरीब माता-पिता अपनी युवा पुत्रियों को या तो गणिकाओं को सौंप देते थे अथवा उन्हें बेच देते थे। विषेष बात तो यह है कि इन गणिकाओं को समाज में हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता था। सार्वजनिक उत्सवों पर समस्त गणिकाएँ अनिवार्यतः उत्सव में भाग लेती थी। राजा और सामंत दोनों निस्संकोच रूप से गणिकाओं से संपर्क रखते थे। समाज में पर्दा-प्रथा प्रचलित नहीं थी और परिवार में महिलाओं की भूमिका उपयोगी मानी जाती थी। किंतु इस काल में भी विधवाओं का जीवन बहुत हेय और अपमानजनक माना जाता था।

सती प्रथा

विजयनगर साम्राज्य में सती प्रथा के प्रचलन का तत्कालीन अभिलेखों एवं विदेशी वृत्तांत दोनों में उल्लेख मिलता है। विजयनगर के अभिलेखों में 1354 ई. के एक अभिलेख में माला गौङा नामक महिला का अपने पति की मृत्यु के बाद सती या सहगमन करके स्वर्गारोहण का उल्लेख है। इस काल में स्त्रियों द्वारा अपने पति की मृत्यु के बाद सती होना मुक्ति का प्रतीक माना जाता था। विजयनगर कालीन अभिलेखों में सती या सहगमन के काफी मात्रा में संदर्भ प्राप्त होते हैं और लगभग समस्त विदेशी यात्रियों ने इस क्रूर प्रता का बङे विस्तार के साथ उल्लेक किया है। अभिलेखीय प्रमाणों के आधार पर यह अनुमान किया गया है कि यह प्रथा केवल नायकों और राजपरिवार तक ही सीमित थी। डुआर्ट बार्बोसा ने लिखा है कि यह प्रथा लिंगायतों, चेट्टियों और ब्राह्मणों में प्रचलित नहीं थी। सती होने वाली स्त्रियों की स्मृति में पाषाण-स्मारक लगाए जाते थे। फिर भी यह प्रथा सैद्धांतिक रूप से प्रचलित नहीं ती यद्यपि इसे सम्माननीय माना जाता था। सती प्रथा के संबंध में राज्य का दृष्टिकोण तटस्थ नहीं था, विधवा विवाह करने वाले युगल विवाह कर से मुक्त थे। अतः प्रतीत होता है, कि राज्य व्यावहारिक दृष्टि से सती प्रथा को प्रश्रय नहीं देता था।

वस्त्राभूषण

विदेशी यात्री अभिजात वर्ग के वस्त्राभूषणों का विशद विवेचन करते हैं। सामान्य वर्ग के पुरुष धोती और सफेद सूती या रेशमी कमीज पहनते थे। कंधे पर दुपट्टा डालने का भी प्रचलन था। समकालीन दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में टोपी या पगङी पहनने की भी प्रथा प्रचलित थी। जाति एवं व्यावसायिक आधार पर परिधानों में बङी विविधता और विषमता थी। राजपरिवार के पुरुष एवं स्त्रियाँ दोनों कीमती एवं जरीदार कपङे पहनते थे। यही स्थिति जूतों के संबंध में भी थी। सामान्य लोग जूते नहीं पहनते थे, किंतु अभिजात एवं राजपरिवार के लोग रोमन शैली के जूते पहनते थे। सामान्य वर्ग की स्त्रियाँ साङी और चोली धारण करती थी। राजपरिवार की स्त्रियाँ पावड (एक प्रकार का पेटीकोट), दुपट्टा और चोली पहनते थी। इनके वस्त्र कीमती एवं जरीदार होते थे। सामान्यतः स्त्री और पुरुष दोनों आभूषणप्रिय थे। हार, पैरों के कङे एवं भूजबंध स्त्री एवं पुरुष दोनों द्वारा पहने जाते थे। जङाऊ भूजबंध और कुंडल भी लोकप्रिय थे। किंतु स्त्री एवं पुरुषों के आभूषणों की बनावट में बङा अंतर होता था। युद्ध में वीरता दिखाने वाले पुरुषों के लिये गंडपेद्र नामक पैर में धारण करने वाले कङे को सम्मान का प्रतीक माना जाता था। प्रारंभ में इसे युद्ध में वीरता का प्रतीक माना जाता था, परंतु बाद में इसे सम्मान का प्रतीक माना जाने लगा। विजयनगर नरेश सैनिकों, मंत्रियों, विद्वानों और मान्य लोगों को इसे प्रदान करके सम्मानित करते थे। विजयनगर युग के आभूषणों में बङी विविधता और कलात्मकता थी। धनाढ्य एवं अभिजात वर्ग के लोगों में सुगंध के प्रयोग के प्रति बङा लगाव था। चंदन, अगरु, कस्तूरी और केसर आदि से सुवासित करना बङा लोकप्रिय था। इसी प्रकार मिश्रित सुगंधों एवं सुगंधित पुष्पों का भी प्रयोग बङा लोकप्रचलित था।

शिक्षा एवं मनोरंजन

शिक्षा के मामले में राज्य सक्रिय रुचि नहीं लेता था। विजयनगर नरेश मठों में प्रश्रय देते थे। विजयनगर नरेशों ने चोलों और पल्लवों की भाँति अपनी प्रजा की शिक्षा के लिये विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना नहीं की। इतना होने पर भी अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने विद्या को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने मठों और असंख्य अग्रहारों की स्थापना करके शिक्षा और ज्ञान को प्रोत्साहन दिया। प्रत्येक अग्रहार में ज्ञान की किसी विशेष शाखा में पारंगत ब्राह्मण होते थे, जहाँ आसपास के विद्यार्थी अध्ययन के लिये आते थे। विद्वान ब्राह्मणों को करमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी। मंदिर, मठ एवं अग्रहार विद्या के केंद्र थे। ऐसा लगता है कि विजयनगर काल में कुछ मंदिर और मठ तो विद्या एवं ज्ञान के बहुत बङे केन्द्र थे। अग्रहारों में मुख्यतः वेदों की शिक्षा दी जाती थी। इतिहास, काव्य, नाटक, आयुर्वेद और शास्त्र एवं पुराण अध्ययन के लोकप्रिय विषय थे। समकालीन वैष्णव संतों ने उदारवादी शिक्षा के विस्तार में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। साथ ही तुलुव वंश ने विद्या एवं ज्ञान को पर्याप्त प्रश्रय दिया। राजकीय सेवा के इच्छुक विद्यार्थियों के लिये विशेष विद्यालय होते थे, जहाँ उन्हें भाषा और गणित की शिक्षा दी जाती थी।

मनोरंजन के क्षेत्र में नाटक और यक्षगान (जिसमें मंच पर संगीत और वाद्यों द्वारा अभिनय किया जाता था) इस काल में बहुत लोकप्रिय थे। सामान्यतः अभिनय विशेष अवसरों पर किए जाते थे। इनमें स्त्री और पुरुष दोनों हिस्सा लेते थे। बोमलाट छाया नाटक भी लोकप्रिय थे। शतरंज एवं पासा खेलना बहुत लोकप्रिय था। कृष्णदेव राय स्वयं बङे शतरंज प्रेमी थे तथा उन्होंने प्रवीण शतरंज खिलाङियों को पर्याप्त प्रोत्साहन भी दिया था। अभिजात वर्ग के स्त्री एवं पुरुष दोनों में जुआ खेलने के प्रमाण भी मिलते हैं।

सामाजिक समस्याएँ तथा राज्य की भूमिका

उत्तर भारत से दक्षिण भारत में आकर बसने वाले लोगों से उत्पन्न स्थिति, सामाजिक कुरीतियों एवं रूढियों ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया। ये समस्याएँ कभी-कभी सामुदायिक भी होती थी। इन समस्याओं के निवारण के लिये या तो समुदाय विशेष के लोग सामूहिक रूप से अथवा राज्य हस्तक्षेप करके विधान बनाता था। प्रो. महालिंगम ने इन समस्याओं का सामाजिक अधिनियम या विधान के रूप में विस्तार से उल्लेख किया है। इन समस्याओं में सर्वप्रथम विवाह एवं दहेज से संबंधित समस्या का सर्वप्रथम उल्लेख किया जा सकता है। बाल-विवाह के कारण दहेज की कुरीति बहुत अधिक बढ गयी थी। ऐसी स्थिति से थककर ब्राह्मण समुदाय के लोगों ने मिलकर दहेज को अवैधानिक घोषित करने का निर्णय लिया। राज्य ने इसे स्वीकृति देकर विधान का रूप दिया। 1424-25 ई. के एक अभिलेख में दहेज को अवैधानिक घोषित करते हुए कहा गया है कि जो पिता धन देगा और जो धन को स्वीकार करेगा, वह राजा द्वारा दंड का भागी होगा। जो कोई भी कन्यादान को स्वीकार करके, धन या स्वर्ण लेंगे उन्हें भी जाति से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। इस प्रकार ब्राह्मणों ने विशुद्ध सामाजिक मामले में राज्य के हस्तक्षेप को स्वीकार किया।

सामाजिक विवादों और सांप्रदायिक समस्याओं के संबंध में 1379 ई. के एक अभिलेख में नायकों और गौङों (नगर प्रशासक) को निर्देश दिया गया कि यदि कभी कोई जाति-संबंधी विवाद पैदा हो तो वे विवादग्रस्त जातियों को अपने सम्मुख आमंत्रित करें और उन्हें उचित परामर्श दें। चूँकि उन्हें दंड देने का अधिकार है, अतः विवादग्रस्त दलों को उनके परामर्श से कार्य करना चाहिए। इस प्रकार की कार्यवाही को करमुक्त रखने का भी आदेश दिया गया। कभी-कभी इस प्रकार के विवाद अंग्रेजों, नगर श्रेष्ठियों और विद्वान ब्राह्मणों को भी निर्णय के लिए सौंप दिए जाते थे।

राज्य, बुनकरों एवं दस्तकारों जैसे छोटे समुदायों के विवादों में भी हस्तक्षेप करता था। अनेक अभिलेखों में राज्य द्वारा इस प्रकार के विवादों में राज्य के हस्तक्षेप का उल्लेख है। श्रीरंग के शासनकाल के सन 1632 के एक अभिलेख में कुछ ग्रामों के निवासियों को आदेश दिया गया कि वे तीन दस्तकार समुदायों – बढई, लोहार और स्वर्णकार के साथ न तो भविष्य में दुर्व्यवहार करें और न उन्हें उनके विशेषाधिकारों से वंचित करने का दुष्प्रयास करें। इस आदेश की अवहेलना करने वाले निवासियों को बारह पण के अर्थदंड का भागी होने का प्रावधान रखा गया।

कुछ सामाजिक अपराधियों या जाति के नियमों को तोङने वालों को ब्राह्मण सहित (समस्त वर्गों के लोगों को) जाति बहिष्कृत होने का भागीदार होना पङता था। यदि कोई व्यक्ति किसी सामाजिक अपराध का दोषी होता था तो उसकी संपत्ति या भूमि छीन ली जाती थी किंतु यह सब राज्य के निर्देश पर ही होता था तो उसकी संपत्ति या भूमि छीन ली जाती थी किंतु यह सब राज्य के निर्देश पर ही होता था। इसी प्रकार मंदिरों की भूमि पर बलात अधिकार करने, दान पर अधिकार करने, पुण्य की भावना से प्रेरित निर्माण-कार्यों को नष्ट करने, प्रतिबंधित सीमा के भीतर किसी स्त्री से विवाह करने, अपने गुरु, पत्नी या ब्राह्मण की हत्या करने और देव भोग में जहर मिलाने जैसे अपराधों की अभिलेखों में कठोर शब्दों में भर्त्सना की गयी है और इनके लिये विभिन्न दंड प्रस्तावित किए गए हैं। इसी प्रकार सांप्रदायिक विवादों के मामले में भी राज्य के हस्तक्षेप का उल्लेख है। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में जैन एवं वैष्णव संप्रदाय के विवाद में राज्य द्वारा जैन संप्रदाय के हितों की रक्षा करने का उल्लेख है। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि सामाजिक सांप्रदायिक मामलों में राज्य तटस्थ दृष्टिकोण ही नहीं अपनाता था, वरन विजयनगर नरेश सामाजिक सांप्रदायिक मामलों में राज्य तटस्थ दृष्टिकोण ही नहीं अपनाता था,वरन विजयनगर नरेश सामाजिक एकता बनाए रखने का हर संभव प्रयास करते थे और सामाजिक एकता की रक्षा करने में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण होता था। विजयनगर नरेश सामाजिक मामलों में बिना किसी भार के सामाजिक समरूपता और एकता बनाए रखने के लिये प्रयत्नशील रहते थे।

Related Articles

error: Content is protected !!