इतिहासराजस्थान का इतिहास

मराठों का राजस्थान में प्रवेश कैसे हुआ

मराठों का राजस्थान में प्रवेश

मराठों का राजस्थान में प्रवेश (Arrival of Marathas in Rajasthan)-

गुजरात और मालवा दोनों पर ही मराठों का प्रभाव कायम होता जा रहा था, किन्तु अभी तक किसी मराठा सेनानायक ने राजपूताना में प्रवेश नहीं किया था। अब पारस्परिक गृह-कलह के कारण राजपूताना में भी मराठों का प्रवेश हो गया। राजस्थान में गृह-कलह के मुख्य तीन केन्द्र बन गये, ये थे – बून्दी, जयपुर और जोधपुर

संघर्ष का मुख्य कारण सिंहासन के लिये दो उम्मीदवारों का आपसी झगङा था। प्रत्येक उम्मीदवार को उसके मित्रों तथा पङौसियों ने सहयोग दिया। कभी-कभी तीनों का ही संघर्ष एक ही संघर्ष में परिवर्तित हो जाता था।

उदयपुर का महाराणा कभी बून्दी और कभी जयपुर के संघर्ष में भाग लेता रहा। प्रायः बाहर से भी विशेषकर मराठों से सहयोग माँगा जाता रहा और इस सहयोग के लिये उन्हें भारी धनराशि का आश्वासन भी दिया जाता रहा।

परिणाम स्वरूप भिन्न-भिन्न मराठा सेनानायक प्रतिस्पर्धा राजपूत उम्मीदवारों का पक्ष लेते रहे। एक लंबे संघर्ष के बाद ही विवाद का हल हो पाता था जिसकी वजह से विजेता उम्मीदवार भी उतना ही बर्बाद हो जाता था जितना कि पराजित। परंतु मराठे हमेशा लाभ में ही रहे। जो भी हो, तथ्य की बात यह है कि राजपूताना में मराठों का प्रवेश पहले तो भाङे के साथी के रूप में हुआ और बाद में चौथ वसूल करने वाले तथा लूटमार करने वालों के रूप में हुआ।

बून्दी-उत्तराधिकार संघर्ष

मराठों का राजस्थान में प्रवेश

सवाई जयसिंह इस तथ्य से सुपरिचित था कि मुगल सत्ता तेजी से पतन की ओर जा रही है। इसलिए, मालवा की अपनी अल्पकालीन सूबेदारी से लाभ उठाकर उसने दक्षिण-पूर्वी राजस्थान को अपने नियंत्रण में लाने का सफल प्रयास किया। उसके राज्य की सीमा पर स्थित बून्दी राज्य का राजा बुद्धसिंह, जयसिंह का बहनोई था।

फरूखसियर को सिंहासन से हटा दिये जाने के बाद जयसिंह और बुद्धसिंह दोनों ने मिलकर सैयदों की सत्ता का सामना किया था। 1727 ई. तक साले बहनोई में घनिष्ठ संबंध बने रहे, परंतु फिर अचानक दोनों के संबंध तनावपूर्ण हो गये और अंत में बिल्कुल टूट गये और दोनों एक दूसरे के विरोधी बन गये। महाराव बुद्धसिंह जयसिंह की बहिन (कछवाही रानी) से घृणा करने लगा और अपनी चूङावती रानी के इशारे पर काम करने लगा।

कुछ दिनों बाद बुद्धसिंह ने कछवाही रानी से उत्पन्न पुत्र भवानीसिंह को अपना पुत्र मानने से भी इन्कार कर दिया और जयसिंह से यह कह दिया कि वह कछवाही रानी के निकट कभी गया भी नहीं, यह संतान अवैध है। इस पर जयसिंह का क्रोधित होना स्वाभाविक ही था। क्योंकि बुद्धसिंह के इस कथन का अर्थ था, उसकी बहिन को बदचलन ठहराना। अतः उसने बुद्धसिंह को सिंहासनच्युत करने का निश्चय कर लिया।

जब महाराव बुद्धसिंह किसी कारणवश अपनी राजधानी से दूर गया हुआ था तो उसकी अनुपस्थिति में जयसिंह ने अपनी सेना भेजकर बून्दी दुर्ग पर अधिकार कर लिया तथा करवङ के जागीरदार हाङा सालिमसिंह के द्वितीय पुत्र दलेलसिंह को बून्दी की गद्दी पर बैठा दिया (19 मई, 1730ई.)। जयसिंह ने बादशाह से भी इसकी स्वीकृति प्राप्त कर ली।

बुद्धसिंह को अपने पैतृक राज्य से वंचित हो जाना पङा। बून्दी का नया शासक अब जयसिंह पर आश्रित होकर उसके सामंतों की श्रेणी में आ गया और राजपूताना के अन्य घराने भी अब बून्दी को एक स्वतंत्र राज्य न मानकर जयपुर राज्य का एक अंग मानने लगे। इस समय जबकि मुगल साम्राज्य पतनोन्मुख था और मराठों का सामना करें और मौजूदा राजनैतिक स्थिति का लाभ उठाकर उत्तरी भारत में अपने प्रभाव को बढाने का प्रयास करें।

परंतु बुद्धसिंह को अपदस्थ करने से राजपूत राज्यों में पहले से व्याप्त वैमनस्य और भी अधिक गहरा हो गया। जयसिंह की इस कार्यवाही ने कुछ ही वर्षों बाद मराठों को राजपूताना की राजनीति में हस्तक्षेप करने का मौका दे दिया।

1729 के अंत में जब जयसिंह, जो बूंदी के नये शासक दलेलसिंह का एकमात्र सहारा था, जयपुर से मालवा चला गया तो बुद्धसिंह ने अपने खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये 15,000 सैनिकों के साथ बून्दी राज्य पर आक्रमण कर दिया। सालिमसिंह हाङा ने उसकी सेना को रोके रखा और कुछ ही दिनों बाद उसकी सहायता के लिये जयपुर की सेना भी आ पहुँची। पंचोला नामक स्थान के पास दोनों पक्षों में जमकर युद्ध लङा गया जिसमें बुद्धसिंह को पराजित होकर भागना पङा। अब दलेलसिंह का कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं रहा।

इस बीच, जयसिंह भी मालवा से बून्दी के लिये चल चुका था। 19 मई, 1730 को जयसिंह ने पुनः दलेलसिंह को बून्दी की गद्दी पर बैठाया और उसका विधिवत राज्याभिषेक किया। दो वर्ष बाद 1732 ई. में जयसिंह ने अपनी पुत्री कृष्णाकुमारी का विवाह दलेलसिंह के साथ कर दिया।

मराठों का राजपूताना पर पहला आक्रमण

पंचोला के युद्ध में परास्त बुद्धसिंह ने पहले उदयपुर में और फिर अपने ससुर बेगूं (मेवाङ) के ठाकुर देवीसिंह के यहाँ आश्रय लिया। यहाँ अत्यधिक मद्यपान के कारण वह पागल सा हो गया, परंतु भाग्यवश यहाँ उसे एक ऐसा साथी मिल गया जिसकी उसने कल्पना भी न की थी।

सालिमसिंह के बङे लङके प्रतापसिंह ने जब अपने छोटे भाई दलेलसिंह को बून्दी का राजा बनते देखा तो उसके स्वाभिमान को गहरा धक्का लगा और उसने और उसने बुद्धसिंह का पक्ष लेने का निश्चय कर लिया। उधर मालवा पर मराठों का नियंत्रण कायम हो चुका था तथा फरवरी, 1733 में मन्दसौर के निकट मराठों से परास्त होने के बाद जयसिंह को उनके साथ अपमानजनक संधि के लिये विवश होना पङा था।

मराठों की बढती हुई शक्ति को देखकर बुद्धसिंह की कछवाही रानी ने प्रतापसिंह को मराठों से सहायता प्राप्त करने के लिये दक्षिण भेजा। वस्तुतः कछवाही रानी अपने तथाकथित पुत्र भवानीसिंह को बून्दी के सिंहासन पर बैठाकर शासन सत्ता अपने हाथ में रखना चाहती थी। वैसे भवानीसिंह को उसने जन्म नहीं दिया था और न जाने कहाँ से उसे मँगवाया था और अपना पुत्र घोषित कर दिया था।

बुद्धसिंह ने उसे अपना पुत्र मानने से इन्कार कर दिया था और बाद में जयसिंह के इशारे पर भवानीसिंह को मरवा दिया गया। तभी से कछवाही रानी अपने सौतेले भाई से बुरी तरह से नाराज हो गई थी। 1730 ई. में बुद्धसिंह की भी मृत्यु हो गयी। परंतु उसके लङके उम्मेदसिंह को बून्दी-जयपुर संघर्ष विरासत में मिला। कछवाही रानी ने अब उम्मेदसिंह को पुनः बून्दी दिलवाने का बीङा उठाया और प्रतापसिंह को दक्षिण भेजा।

प्रतापसिंह ने होल्कर और सिन्धिया को 6 लाख रुपया देने का आश्वासन दिया। अतः 18 अप्रैल, 1734 ई. को मल्हार राव होल्कर और राणोजी सिन्धिया के नेतृत्व में मराठा सेना ने बून्दी पर चढाई कर दी। चार दिन के संघर्ष के बाद 22 अप्रैल को बून्दी पर मराठों का अधिकार हो गया। इस संघर्ष में राजपूताना के भावी राजनीतिज्ञ जालिमसिंह हाङा को गहरी चोट आई और मराठे उसे बंदी बनाकर अपने साथ ले गये।

बून्दी में महाराव उम्मेदसिंह का शासन स्थापित हो गया। अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये कछवाही रानी ने होल्कर के राखी बाँधकर उसे अपना भाई बनाया। चूँकि उम्मेदसिंह अभी छोटा था अतः प्रतापसिंह को शासन कार्य सौंपा गया।

मराठों के बून्दी से लौटते ही जयसिंह ने 20,000 सैनिकों को बून्दी पर आक्रमण करने के लिये भेजा। इस सेना ने बून्दी पर अधिकार कर दलेलसिंह को पुनः बून्दी का शासक बना दिया। प्रतापसिंह बून्दी से भागकर नेनगर नामक स्थान पर होल्कर से मिला, परंतु वह दुबारा हस्तक्षेप करने के लिये तैयार नहीं हुआ।

वास्तव में पेशवा बाजीराव ने यह अनुभव कर लिया था कि जयसिंह बून्दी के मामलों में अपनी बात पर अङा हुआ है और कुछ लाख रुपयों के प्रलोभन के लिये उससे संबंध बिगाङना उचित नहीं होगा। इसीलिए 1735 ई. के बाद मराठों ने जयसिंह के साथ अच्छे संबंध बनाये रखने का प्रयास किया, क्योंकि पेशवा मुगल सरकार के साथ समझौता करने में जयसिंह की सेवाओं का लाभ उठाना चाहता था। यही कारण है कि उन्होंने जयसिंह के जीवनकाल में बून्दी के मामले में हस्तक्षेप नहीं किया।

हुरङा सम्मेलन

मालवा, गुजरात और बुन्देलखंड में मराठों को रोकने में मुगल सरकार की असफलता तथा राजस्थानी राज्य के आंतरिक झगङों में मराठों के इस प्रथम हस्तक्षेप ने राजस्थान के समस्त विचारशील शासकों की आँखें खोल दी। राजपूत शासकों ने अनुभव किया कि मराठों के बढते हुये प्रभाव को रोकने के लिये उन्हें सामूहिक प्रयास करने चाहिएँ अन्यथा राजस्थान की भी वही दशा हो जायेगी जो मालवा और गुजरात की हुयी है।

वस्तुतः राजस्थान के सभी शासकों को मराठों से समान भय था। मेवाङ के महाराणा संग्रामसिंह को इस बात का भय था कि मालवा पर मराठों का अधिकार हो जाने से, वे मेवाङ के पङौस में होने के कारण यहाँ की शांति भंग कर सकते हैं…अधिक जानकारी

मराठों के विरुद्ध अभियान

अक्टूबर, 1734 ई. में शाही दरबार ने अपने दो सर्वोच्च सेनानायक – वजीर कमरुद्दीनखाँ और बख्शी खाने-दौरान के नेतृत्व में, मराठों को मालवा से निकालने के लिये एक विशाल सेना भेजने की योजना बनायी। इन दोनों सेनाओं को अलग-अलग रास्तों से मालवा की ओर जाना था।

नवम्बर, 1734 ई. में दोनों सेनाएँ साथ-साथ दिल्ली से रवाना हुई। वजीर कमरुद्दीनखाँ अपने 25,000 सैनिकों के साथ आगरा के रास्ते से बुन्देलखंड की तरफ बढा, किन्तु इस तरफ मराठा सरदार पिलाजी जाधव सक्रिय था। फरवरी 1735ई. में दो तीन छोटी-छोटी लङाइयाँ हुई, लेकिन वजीर को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। अतः थककर 9 मई, 1735 को वजीर पुनः दिल्ली लौट आया।

खाने दौरान अपनी सेना लेकर दिल्ली से अजमेर की तरफ रवाना हुआ। रास्ते में सवाई जयसिंह, अभयसिंह, दुर्जनशाल व कुछ अन्य राजपूत शासक अपनी-अपनी सेनाओं के साथ उससे आ मिले। इस प्रकार उसकी सेना की संख्या एक लाख से ऊपर पहुँच गयी। मुकन्दरा दर्रे को पार कर शाही सेना रामपुरा पहुँची, जहाँ सिन्धिया व होल्कर के आने की सूचना मिली थी।

फरवरी, 1735 के आरंभ में सिन्धिया व होल्कर इस तरफ आये और जब उन्हें शाही सेना की उपस्थिति का पता चला तो उन्होंने आस-पास के गाँवों में लूटमार करने भेजी हुई टुकङियों को तुरंत बुलाया तथा उनके आने पर शाही सेना के रसद मार्ग को काटकर उसको चारों ओर से घेर लिया। आठ दिनों तक मराठों ने शाही सेना को घेरे रखा। इन दिनों में मराठों व मुगलों में छुटपुट झङपें होती रही, लेकिन मुगल सैनिक मराठों का घेरा नहीं तोङ सके।

वस्तुतः मुगल सैनिकों की मराठों से लङने की इच्छा ही नहीं थी और फिर मुगल दरबार में मराठों के प्रति नीति के संबंध में अलग-अलग राय होने के कारण शाही सेना में भी पूर्ण एकता नहीं थी। इन दोनों कारणों से मुगल सेना मराठों के घेरे को न तोङ सकी। घेरे के नवें दिन मराठों ने अचानक शाही सेना पर आक्रमण कर दिया। इसके बाद मराठों ने घेरा उठा लिया और बख्शी खाने-दौरान व उसके साथियों को पीछे छोङकर मुकंदरा दर्रे को पार करके बून्दी और कोटा जा पहुंचे, जिसकी रक्षा का इस समय कोई प्रबंध नहीं था। वहाँ से जयपुर और जोधपुर के प्रदेशों में जा घुसे।

मराठों की इस चाल ने, जयसिंह को खाने-दौरान का साथ छोङकर, अपने राज्य की रक्षार्थ, अपने राज्य की ओर लौटने को विवश कर दिया। इसी प्रकार अभयसिंह और दुर्जनसाल भी अपने-अपने राज्यों की रक्षार्थ अपने-अपने राज्यों को लौट गये। अपना रास्ता साफ देखकर 28 फरवरी, 1735 ई. को होल्कर ने साँभर के सम्पन्न नगर को लूटा। यहाँ से मराठों को खूब धन मिला। वहाँ के फौजदार फखरू का सामान लूट लिया।

फखरू के पास केवल शरीर पर धारण किये कपङे मात्र रह गये। मार्च, 1735 ई. के प्रारंभ में दोनों पक्षों की स्थिति इस प्रकार थी सवाई जयसिंह जयपुर में, होल्कर और राणोजी सिन्धिया उससे 20 मील आगे और खाने-दौरान बून्दी में था। इस प्रकार मराठों ने अपनी कुशल रणनीति से विशाल शाही सेना को अनेक भागों में बँट जाने को बाध्य कर दिया, जो अबअपनी-अपनी जगह मराठों की अगली चाल की चिन्ता में हतोत्साहित खङे थे।

ऐसी स्थिति में मराठों के विरुद्ध सफलता की कोई संभावना नहीं थी। अतः जयसिंह ने होल्कर और सिन्धिया को चार-पाँच हजार के मनसब तथा कुछ लाख रुपये नकद देने का प्रस्ताव रखा, जिसे खाने-दौरान ने स्वीकार कर लिया। समझौता वार्ता के लिये मराठों की ओर से पंडित रामचंद्र, पहले जयसिंह से और बाद में खाने-दौरान से मिला।

तत्पश्चात 31 मार्च, 1735 को होल्कर व सिन्धिया, राजा अयामल के साथ जयसिंह ने पेशवा की अनुमति के बिना मनसब स्वीकार करने में अपनी असमर्थता प्रकट की तथा मालवा की चौथ की माँग की। खाने-दौरान ने बादशाह की ओर से मराठों को मालवा की चौथ के रूप में 22 लाख रुपये देना स्वीकार किया।

चौथ की वसूली के संबंध में तय हुआ कि उन सभी परगनों में, जो सीधे सरकार के नियंत्रण में है, एक-एक मराठा अधिकारी नियुक्त किया जायेगा। मराठे, तहसील की आधी आय लेंगे और जयपुर के अधिकारियों द्वारा जारी किये जाने वाले परगनों पर मराठा अधिकारियों की भी मुहर लगेगी। यद्यपि ये शर्तें कभी कार्यान्वित नहीं हुई और न ही बादशाह ने कभी इन्हें स्वीकार किया, लेकिन इन्हें सवाई जयसिंह और खाने-दौरान द्वारा स्वीकार करना एक महत्त्वपूर्ण बात की।

जयसिंह के विरुद्ध शिकायत

मराठों के विरुद्ध विशाल शाही सैनिक अभियान पूरी तरह से असफल रहा। इसलिए मुगल दरबार में जयसिंह और खाने-दौरान के विरोधियों, विशेषकर अवध के सूबेदार सादतखाँ को बादशाह से शिकायत करने का अवसर मिल गया। सादतखाँ ने बादशाह से कहा कि जयसिंह ने गुप्त रूप से मराठों को सहायता देकर सूबे को बर्बाद करवा दिया है।

यदि आगरा व मालवा के सूबे उसे दे दिये जायँ तो वह अपने मित्र निजाम की सहायता से मराठों को मालवा से निकाल सकता है। इसके प्रत्युत्तर में जयसिंह और खाने-दौरान की ओर से बादशाह को कहा गया कि सैनिक शक्ति द्वारा मराठों को निकालने का परीक्षण कई बार हो चुका है। उनका विचार पेशवा की बादशाह से भेंट करवाना है ताकि समझौते की स्थायी शर्तें तय की जा सकें।

उन्होंने यह भी कहा कि स्वयं पेशवा भी समझौते के लिये इच्छुक है और इसका प्रमाण यह है कि वह अपनी माँ को उत्तर भारत के तीर्थ स्थानों की यात्रा के लिये भेज रहा है। उन्होंने बादशाह का आगाह किया कि यदि सादतखाँ और निजाम दोनों मिल गये तो वे किसी अन्य शाहजादे को बादशाह बना देंगे। खाने-दौरान ने बादशाह को आश्वासन दिया कि यदि मराठों की माँगे स्वीकार कर ली गयी और उन्हें जागीर दे दी गयी तो फिर वे मुगल सूबे में उपद्रव नहीं करेंगे।

बादशाह इन दो परस्पर विरोधी मतों में से किसी एक को चुनने में असमर्थ था। अगस्त 1735 ई. में जब जयसिंह को दोनों प्रान्तों की सूबेदारी से हटाने के समाचार पहुँचे तब तो उसने निश्चित रूप से मराठों का साथ देने का निश्चय कर लिया। जयसिंह ने अपने यहाँ नियुक्त मराठा प्रतिनिधि के द्वारा पेशवा को मिलने के लिये आमंत्रित किया तथा जयसिंह ने पेशवा को प्रतिदिन पाँच हजार रुपये खर्च के देने का भी आश्वासन दिया।

उसने पेशवा को यह भी कहलवाया कि जयपुर में पेशवा के पहुँचने पर वर्तमान स्थिति पर विचार किया जायेगा और जब बादशाह की ओर से पेशवा की सुरक्षा का विश्वास दिलाया जायेगा तब पेशवा को बादशाह से मिलने ले जाया जायेगा अन्यथा पेशवा को जयपुर से ही वापिस लौटा दिया जायेगा।

इसी बीच पेशवा बाजीराव की माँ राधाबाई उत्तर-भारत के तीर्थ स्थानों की यात्रा करने आई वह जिन राजपूत राज्यों की राजधानी में गयी वहाँ उसके भव्य स्वागत तथा सम्मान का पूरा प्रबंध किया गया। 1 जून, 1735 ई. को जब वह जयपुर के निकट पहुँची तो जयसिंह ने कई मील आगे बढकर उसका स्वागत किया।

उसे अपने राजमहल में ठहराया गया तथा सात सप्ताह के प्रवास के दौरान उसके पास प्रतिदिन खर्चे के 125 रुपये भेजे जाते रहे। 8 अगस्त, 1735 ई. को जब वह विदा हुई तो जयसिंह उसे छोङने बदनसिंह जाट की हवेली तक गया और उसे 25 हजार रुपये नकद व एक हाथी भेंट किया गया। राजस्थान में राधाबाई के आदर-सत्कार से मराठे बहुत संतुष्ट हुए। राधाबाई के आदर-सत्कार का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि पेशवा ने जयसिंह के निमंत्रण को स्वीकार कर राजस्थान की ओर आने का निश्चय कर लिया।

पेशवा का राजस्थान में आगमन

बादशाह ने मार्च, 1735 ई. के समझौते की पुष्टि नहीं की। अतः जयसिंह की सहायता का आश्वासन मिलते ही पेशवा ने राजस्थान में जाकर प्रत्येक राजपूत शासक से चौथ के संबंध में शांतिपूर्वक समझौता करने का निश्चय किया और अक्टूबर, 1735 ई. में ससैन्य पूना से रवाना हुआ।

जनवरी, 1736 ई. में वह उदयपुर पहुँचा। मिलने-जुलने और अन्य व्यवहार में पेशवा ने महाराणा के प्रति अत्यधिक नम्रता और विशेष आदर प्रदर्शित किया, किन्तु चौथ के बारे में समझौता करते समय उसने किसी प्रकार की नरमी नहीं दिखाई। महाराणा ने मराठों को डेढ लाख रुपये वार्षिक चौथ देने का वादा किया।

उदयपुर से नाथद्वारा होता हुआ पेशवा जहाजपुर पहुँचा। इसी बीच जयसिंह मालपुरा परगने के झाङली गाँव में पहुँच चुका था। 25 फरवरी, 1736 ई. को जयसिंह ने झाङली में अपने शिविर से कई मील आगे आकर पेशवा का स्वागत किया। दोनों ने एक-दूसरे का अभिवादन किया और गले मिले। इसके बाद कई दिनों तक दोनों में बातचीत होती रही।

समझौता-वार्ता के आरंभ में पेशवा ने निम्नलिखित माँगे प्रस्तुत की

  • हिन्दुस्तान में वतन जागीर
  • अन्य मराठा सरदारों के लिये मनसब व जागीर
  • दक्षिण के सूबों की सरदेशपांडेगिरी (कुल आय का 5 प्रतिशत राजस्व)जिसके बदले में बादशाह को 6 लाख रुपये दिये जायेंगे
  • मालवा की सूबेदारी
  • खर्च के रूप में 13 लाख रुपये, जो तीन किश्तों में दिये जायँ।

जयसिंह की मध्ययस्थता में बादशाह ने ये सभी माँगें स्वीकार कर ली। किन्तु जब पेशवा ने देखा कि निर्बल बादशाह उसकी सभी माँगे बिना किसी प्रतिरोध के मानने के लिये तैयार है तब उसने अपनी माँगें बढा दी जिनका आशय यह था कि दक्षिण के सूबों पर मराठों का नियंत्रण अधिक सुदृढ हो जाय और उन्हें पहले की अपेक्षा अधिक आर्थिक लाभ भी हो।

फलस्वरूप बादशाह ने किसी की माँगे की स्वीकृति अथवा अस्वीकृति की सूचना नहीं दी। अतः 11 जुलाई, 1736 ई. को पेशवा ने दिल्ली में स्थित मराठा प्रतिनिधि महादेव भट्ट को लिखा कि वह बादशाह को सूचित कर कर दे कि पेशवा अपनी ओर से किये गये वायदों को पूरा करने को तैयार है किन्तु मुगल सरकार अपना वायदा नहीं निभा रही है।

पेशवा सात सप्ताह तक मुगल सरकार के निश्चित उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा। फिर उसने अपने प्रतिनिधि को लिखा कि अब वह होल्कर को 12-15 हजार सवारों के साथ मालवा में छोङकर वापिस जा रहा है। यदि दिल्ली से संतोषजनक उत्तर आ जाता तो वह कुछ नहीं करता, लेकिन अब जो भी आवश्यक होगा उसे करना पङेगा।

अंत में 29 सितंबर, 1736 ई. को बादशाह ने पेशवा के पास एक फरमान भेजा जिसमें बाजीराव को जागीर तथा सात हजारी मनसब, उसके वतनके महल (अपनी निजी जागीर)आदि दिये जाने का उल्लेख था, किन्तु मालवा की सूबेदारी दिये जाने का कोई उल्लेख नहीं था।

अतः पेशवा ने, फरमान में जो कुछ दिया गया उसे स्वीकार नहीं किया। पेशवा समझ गया कि मुगल दरबार में जयसिंह विरोधी गुट (सादतखाँ, कमरुद्दीनखाँ, निजाम आदि) उसके और बादशाह के मध्य समझौते में रुकावटें डाल रहे हैं। अतः पेशवा ने इन विरोधियों को सबक सिखाने का निश्चय किया।

पेशवा का उत्तर भारत पर आक्रमण

सवाई जयसिंह ने मध्यस्थ बनकर पेशवा और बादशाह के बीच समझौता कराने का भरसक प्रयत्न किया, किन्तु पेशवा बाजीराव की असीम महत्वाकांक्षा, वादशाह की ढुलमिल नीति तथा जयसिंह विरोधी गुट के विरोध के कारण संधि असंभव हो गयी। अतः 12 नवम्बर, 1736 ई. को पेशवा बाजीराव ने ससैन्य पूना से प्रयास किया और मराठा शक्ति का प्रदर्शन करते हुए आगरा के 70 मील निकट पहुँच गया।

ज्योंही इसकी सूचना दिल्ली पहुँची, मुगल दरबार में घबराहट फैल गयी। फिर, वजीर करमरुद्दीनखाँ व खाने-दौरान बङी सेनाओं के साथ पेशवा का मार्ग रोकने के लिये चल पङे। सवाई जयसिंह भी शाही आदेश पर ससैन्य बसवा तक बढा, किन्तु उसने पेशवा का मार्ग रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया, क्योंकि उसे मालूम था कि पेशवा के आक्रमण का उद्देश्य पुराने मुगल गुट को सबक सिखाना है, जो मराठों व बादशाह के मध्य समझौते में रुकावटें डाल रहा था। महाराजा अभयसिंह भी अपनी सेना लेकर मौजाबाद पहुँच गया।

सादतखाँ भी एक सेना लेकर तेजी से आगरा की ओर बढा। सादतखाँ को रोकने के लिये पेशवा ने होल्कर को 10 हजार सवारों के साथ भेज दिया। 12 मार्च, 1737 ई. को जलेसर नामक स्थान पर होल्कर व सादतखाँ के मध्य भीषण युद्ध हुआ जिसमें होल्कर पराजित होकर भाग खङा हुआ। शादतखाँ ने समझा कि उसने पेशवा को परास्त कर दिया है । उसने तुरंत इस आशय की सूचना दिल्ली भिजवा दी। इससे हतोत्साहित दिल्ली दरबार में खुशी का वातावरण छा गया।

जब पेशवा को सूचना मिली कि सादतखाँ ने झूठी खबर दिल्ली भिजवा दी है तब उसका क्रोध भङक उठा। लेकिन इस समय उसका दिल्ली की तरफ जाना खतरनाक था, क्योंकि तीन बङी मुगल सेनाएँ उसके मार्ग में पङी हुई थी। लेकिन इस समय यदि वह वापिस लौट जाता है तो मराठों की प्रतिष्ठा भारी आघात पहुँचता।

अतः पेशवा ने अपने लक्ष्य में कोई परिवर्तन नहीं किया। वह कुछ पीछे हटकर बायीं ओर चक्कर काटकर जाटों के प्रदेश से तेजी से निकलता हुआ और मुगल सेनाओं को तनिक भी आभास दिये बिना दिल्ली के निकट जा पहुँचा और वहाँ लूटमार आरंभ कर दी, जिससे मुगल दरबार को उसकी उपस्थिति का पता चला।

अब मुगल दरबार में मातम छा गया। दिल्ली में उपस्थित सैनिकों की एक सेना पेशवा के विरुद्ध भेजी गयी लेकिन वह परास्त होकर लौट आयी। इस समय यदि पेशवा चाहता तो दिल्ली पर अधिकार कर सकता था, लेकिन उसका लक्ष्य दिल्ली पर अधिकार करना नहीं था।

क्योंकि प्रथम तो वह केवल तुरानी मुगल गुट को आतंकित करने हेतु आया था और दूसरी बात यह कि वह इस तथ्य से भलीभाँति परिचित था कि दो बङी मुगल सेनाएँ उसके दायें-बायें मंडरा रही हैं और यदि उसने दिल्ली पर अधिकार करने का प्रयास किया तो उसका वापसी का मार्ग अवरुद्ध हो जायेगा। अतः वह विद्युत गति से कोटपूतली और लालसोट होता हुआ वापिस लौट गया। वापिस लौटने के संबंध में बाजीराव ने लिखा कि वह जानता था कि खाने-दौरान व बादशाह उसकी माँगें स्वीकार करने के लिये तैयार हैं।

किन्तु तुरानी मुगल गुट इसके विरुद्ध था। वह राजधानी को हानि पहुँचाकर अपने मित्रों की, मुगल दरबार में स्थिति बिगाङना नहीं चाहता था। वह ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहता था जो मराठों व मुगल सरकार के बीच समझौते में बाधा बने।

पेशवा बाजीराव के इस अभूतपूर्व दिल्ली अभियान का परिणाम यह निकला कि अब सादतखाँ व कमरुद्दीन पर से बादशाह का विश्वास समाप्त हो गया। अब बादशाह ने दक्षिण से निजाम को दिल्ली बुलाया। 2 जुलाई, 1737 ई. को निजाम दिल्ली पहुँचा। बादशाह ने उसे साम्राज्य की सर्वोच्च उपाधि आसफजहाँ से विभूषित किया और मराठों को नर्बदा के उस पार खदेङने पर उसे पाँच सूबे व एक करोङ रुपया देने का आश्वासन दिया।

3 अगस्त, 1737 ई. को जयसिंह को मालवा व आगरा की सूबेदारी से हटाकर निजाम के पुत्र गाजीउद्दीन को इन सूबों की सूबेदारी दे दी। निजाम को मराठों के विरुद्ध सैनिक तैयारी के लिए 60 लाख रुपये दिये और अनेक प्रमुख सेनानायकों को उसके साथ जाने की आज्ञा दी गयी।

जयसिंह ने भी बङी अनिच्छा से अपने ज्येष्ठ पुत्र ईश्वरीसिंह व राजा अयामल को एक सेना देकर निजाम के पास भेजा। उज्जैन के आस-पास के क्षेत्र में मराठों की शक्ति अधिक समझी जाती थी। इसलिए निजाम भोपाल की तरफ रवाना हुआ और दिसंबर, 1737 ई. में वह भोपाल के निकट पहुँचा।

इस समय निजाम की सेना में 50,000 से भी अधिक सैनिक थे। इस अवसर पर बाजीराव ने अपनी सैनिक प्रतिभा का परिचय देते हुए निजाम को उसकी विशाल सेना सहित चारों ओर से घेर लिया। विवश होकर निजाम को बिना युद्ध 6 जनवरी, 1738 को दुराहासराय की अपमानजनक संधि स्वीकार करनी पङी। संधि के अनुसार निजाम ने बादशाह से मालवा की सूबेदारी, नर्बदा व चंबल के बीच का क्षेत्र तथा हर्जाने के तौर पर 50 लाख रुपये पेशवा को दिलाने का वायदा किया।

निजाम की इस अपमानजनक पराजय से जयसिंह की मराठों की प्रति नीति का औचित्य प्रमाणित हो गया। निजाम ने इस बार भी दक्षिण में अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखने के लिये पेशवा को ऐसे अधिकार देने का वचन दे दिया जो बादशाह की सार्वभौमिकता के विरुद्ध थे।

संभव है बाजीराव निजाम के द्वारा ऐसी अपमानजनक शर्तें प्रस्तावित कराकर तुरानी मुगल गुट के प्रभाव को समाप्त करना चाहता था। अपमानित होकर निजाम दिल्ली लौट गया और पेशवा कोटा चला आया, जहाँ उसे महाराव दुर्जनसाल को, निजाम की सहायता पहुँचाने तथा मराठों से अमैत्रीपूर्ण व्यवहार के लिये 10 लाख रुपये चुकाने का वचन देने के लिये विवश किया। कोटा से पेशवा पूना लौट गया। इसके बाद पेशवा सालसेट अभियान में व्यस्त रहा। सालसेट अभियान 12 मई, 1739 ई. को समाप्त हुआ । इस अभियान की समाप्ति के बाद पेशवा बाजीराव ने पुनः मुगल दरबार से बातचीत करने का निश्चय किया।

नादिरशाह का आक्रमण

नादिरशाह का आक्रमण – नादिरशाह के आक्रमण के समय मुगल शासक मुहम्मदशाह रंगीला था।नादिरशाह फ़ारस का शासक था। उसे “ईरान का नेपोलियन” कहा जाता है। भारत पर नादिरशाह का आक्रमण 16 फ़रवरी, 1739 को हुआ था। वह बहुत ही महत्वाकांक्षी चरित्र का व्यक्ति था और भारत की अपार धन-सम्पदा के कारण ही इस ओर आकर्षित हुआ…अधिक जानकारी

धौलपुर समझौता

चिमनाजी के साथ-साथ नया पेशवा बालाजी बाजीराव, जयसिंह के साथ सद्भावनापूर्ण संबंधों को अधिक महत्त्व देने लगा। क्योंकि उनका निश्चित मत था कि बादशाह के साथ समझौता जयसिंह की मध्यस्थता से ही संभव हो सकता है। जयसिंह ने भी मराठों से समझौता-वार्ता जारी रखी।

किन्तु जयसिंह जानता था कि निजाम समझौता वार्ता को असफल करने का प्रयास करेगा। अतः जयसिंह ने चिमनाजी को लिखा कि मालवा में एक शक्तिशाली सेना भेज दी जाय, क्योंकि जयसिंह की मान्यता थी कि बिना सैन्य-शक्ति-प्रदर्शन के राजनीतिक वार्ता सफल नहीं हो सकती। चिमनाजी ने होल्कर व सिन्धिया के साथ 10-15 हजार सवार मालवा में भेज दिये और पूना दरबार ने यह भी निर्णय लिया कि पेशवा स्वयं उत्तर की ओर जाकर जयसिंह से विचार-विमर्श कर स्वर्गीय पेशवा की इच्छा पूरी करे…अधिक जानकारी

अन्य राजपूत राज्यों से मराठों के संबंध

18 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मुगलों की केन्द्रीय सत्ता पतनोन्मुख हो गयी, तब राजस्थानी राज्यों पर नियंत्रण रखने वाली कोई सर्वोच्च शक्ति नहीं रही। अतः राजस्थान के राजपूत राज्यों में अराजकता तथा अशांति का एकछत्र शासन हो गया। प्रत्येक राज्य में सच्चे झूठे उत्तराधिकार के प्रश्न पर गृहयुद्ध आरंभ हो गये।

बून्दी के आंतरिक झगङे में जब सवाई जयसिंह ने बून्दी के राव बुद्धसिंह को पदच्युत कर दिया तब बुद्धसिंह की रानी ने जयपुर के विरुद्ध मराठों मराठों को अपनी सहायता के लिए आमंत्रित किया। फलस्वरूप राजस्थान की राजनीति में मराठों का प्रथम प्रवेश हुआ। इसके बाद तो राजपूत शासक मराठों से सैनिक सहायता प्राप्त करने को लालायित हो उठे। राजपूतों के आपसी संघर्ष में मराठों द्वारा सहायता देने का मुख्य उद्देश्य अधिक धन प्राप्त करना था।

जब मराठा सरदारों पर पेशवा के निमंत्रण में कमी आने लगी तब मराठों में भी दलबंदी उत्पन्न हो गयी। अतः दो पक्षों के आपसी संघर्ष में यदि एक मराठा सरदार एक पक्ष का समर्थन करता तो दूसरी, विरोधी पक्ष का समर्थन करने लग जाता । कभी-कभी तो एक ही मराठा सरदार पहले एक पक्ष और बाद में उसके विरोधी का समर्थन भी कर सकता था। प्रश्न केवल इतना था कि मराठों की सैनिक सेवाओं का अधिक मूल्य कौन दे सकता था।

आगे चलकर जब राजपूत शासक वायदे के अनुसार मराठों को धन नहीं चुका सके तब मराठों को सैनिक शक्ति द्वारा धन वसूली का मार्ग अपनाना पङता। इस प्रकार मराठे आरंभ में भाङेत सैनिक सहयोगी के रूप में राजस्थान में आये और धीरे-धीरे वे प्रान्त में सर्वेसर्वा बन गये।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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