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बलबन का राजत्व का सिद्धांत

राजत्व का सिद्धांत – बलबन का एक दास के पद से उत्कर्ष उसकी योग्यता व प्रतिभा का प्रमाण है। बलबन ने मंत्री के रूप में अपने प्रभाव, शक्ति व सत्ता को इतना अधिक दृढ कर लिया था कि सिंहासनारोहण में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई। हबीबुल्लाह के अनुसार – लगभग बीस वर्षों तक महमूद ने राज्य किया था परंतु शासन नहीं किया। बलबन ने इन बीस वर्षों में सल्तनत की शक्ति को संगठित रखा, प्रशासन संभाला और राजवंश के पतन को रोका। बरनी के अनुसार नायक के रूप में भी बलबन को राजकीय उपाधि प्राप्त थी, अतः जब वह गद्दी पर बैठा तो उसे किसी भी प्रकार के विरोध का सामना नहीं करना पङा। भारत में शासन करने और अपनी प्रजा से अपनी इच्छा मनवाने का तरीका बलबन से अधिक और कोई सुल्तान न जान पाया था।

बलबन ने यह अनुभव किया कि उस समय समस्त सैनिक और असैनिक शक्तियों से युक्त शासक की आवश्यकता थी। कुशल नेतृत्व के बिना विभिन्न अभिजात वर्गों को संगठित रखना कठिन था। बलबन का कार्य सरल नहीं था। दिल्ली सल्तनत की प्रतिष्ठा कम हो गयी थी और तुर्क अमीर शक्तिशाली थे। इसलिए सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा को ऊंचा उठाना आवश्यक था। बलबन ने सर्वप्रथम फारस के इस्लामी राजत्व के राजनीतिक सिद्धांतों व परंपराओं के आधार पर अपने शासन को संगठित किया। उसने देश के प्रसिद्ध व योग्य अधिकारियों को राज्य में नियुक्त किया, जिससे राज्य का कार्य कुशलतापूर्वक चलाया जा सके। राजनीतिक आवश्यकताओं ने उसे बाध्य किया कि वह शासन की समस्याओं को ध्यानपूर्वक सुलझाए। उसने राज्य-कार्य को नया उत्साह के साथ लागू करके उसने राज्य शक्ति के पतन को रोका। शासन की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने में उसको अधिक समय नहीं लगा।

संभवतः बलबन दिल्ली का एकमात्र सुल्तान है जिसने राजत्व संबंधी अपने विचारों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। सुल्तान के उच्च पद और शासक के कर्तव्यों के विषय में उसने अपने स्पष्ट व विस्तृत विचार प्रकट किये। राजमुकुट को उच्च व सम्मानित स्तर पर स्थापित करने के लिये और सामंतशाही के विरोध व संघर्ष को समाप्त करने के लिए भी यह आवश्यक था कि राजा के पद को अधिक प्रतिष्ठित बनाया जाए। हिंदू व मंगोल आक्रमणों के विरुद्ध एक संगठित शासन की आवश्यकता थी जिसमें शासक की शक्ति सर्वोपरि और निर्विवाद रूप से स्वीकार की जाए। इल्तुतमिश ने राजा के पद की केवल रूपरेखा खींची थी, परंतु बलबन ने उसे पूर्ण उच्चता व नवीन शक्ति प्रदान की। निजामी का विचार है कि इन निरंतर उपदेशों के पीछे उसकी हीन भावना और अपराध भाव की जटिल प्रक्रिया का भी आभास मिलता है। अपने मलिकों और अमीरों के (जिनमें अधिकांश उसके साथी थे) कानों में निरंतर चिल्ला-चिल्लाकर यह कहने से कि राजत्व एक दैवी संस्था है, उसका यह उद्देश्य था कि राजहत्या का जो कलंक उसके माथे पर लगा था, उसे धो डाले और उसके मन में यह विचार भली-भाँति बिठा दे कि वह दैवेच्छा से ही सिंहासनारोहण हुआ है, किसी हत्यारे के विष भरे प्याले या कटार के बल पर नहीं। हबीबुल्लाह जो बलबन को अपने स्वामी का हत्यारा होने का दोषी नहीं मानते, लिखते हैं कि गद्दी पर अपने वंशानुगत उत्तराधिकारी के अभाव को जानते हुए उसने अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि करने के लिये स्वयं को तुर्की पौराणिक वीर अफरासियाब का वंशज बताया। अपने शब्दों और कार्यों में उसने निरंतर सुल्तान की पवित्रता पर बल दिया। संभवतः इसका यह भी कारण था कि वह दासता से मुक्त नहीं किया गया था। मिनहाज या बरनी ने उसकी दासता से मुक्ति का कोई उल्लेख नहीं किया है। ऐसी स्थिति में वह इस कानूनी अयोग्यता के कारण सुल्तान के पद का अधिकारी नहीं था। यही कारण है कि उसने दैवी दायित्व का सहारा लेकर अपनी सत्ता को वैधानिक रूप देने का प्रयत्न किया।

बलबन राजा के कर्तव्यों के संबंध में जो विचार रखता था, वह उसकी वसीयतों (वसाया) से प्राप्त होते हैं। मध्यकालीन फारस की एक लोकप्रिय परंपरा यह थी कि प्रसिद्ध शासकों और राजनीतिज्ञों के वसाया को संकलित किया जाए। दिल्ली के सुल्तानों में बलबन के वसाया को बरनी ने संकलित किया। अपने पुत्रों को राजत्व के या राजपद के संबंध में उसने जो समझाया, वह उसके विचारों को व्यक्त करता है। अपने पुत्रों – मुहम्मद और महमूद – को जो आदेश उसने दिए, उनसे न केवल मध्यकाल की राजनीतिक विचारधारा का संकेत मिलता है वरन वे स्वयं उसके राजनीतिक व्यक्तित्व के आंतरिक संघर्षों को स्पष्ट करते हैं। वसाया का प्रथम भाग सुल्तान के कर्तव्यों पर आधारित है। दूसरे भाग में उसने अपने पुत्रों को राजत्व के संबंध में निर्देश दिए हैं जिनमें से कुछ ये थे –

व्यक्तियों के ऊपर शासन करने को एक मामूली और महत्वहीन कार्य न समझो, यह एक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है, जिसे पूर्ण गंभीरता व उत्तरदायित्व की भावना के साथ पूरा किया जाना चाहिए।

राजा का ह्रदय ईश्वर की कीर्ति को प्रतिबिंबित करता है। वह यदि नरिंतर ईश्वरीय ज्योति प्राप्त नहीं करता है तो शासक कभी अपने अनेक और अति महत्त्वपूर्ण कर्तव्यों को पूरा नहीं कर सकता। अतः राजा को अपने ह्रदय तथा आत्मा की पवित्रता के लिये प्रयत्न करना चाहिए और ईश्वर की दया के लिये अनुग्रहीत रहना चाहिए।

एक अनुग्रही राजा सदा ईश्वर के संरक्षण के छत्र से रक्षित रहता है।

राजा को इस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिए कि उसके शब्दों, कार्यों, आदेशों, व्यक्तिगत योग्यताओं व गुणों से लोग शरीअत के नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने के योग्य हो सकें।

इस प्रकार बलबन के राजत्व सिद्धांत का स्वरूप और सार फारस के राजत्व से प्रेरित था। उसने फारस के लोक प्रचलित वीरों से प्रेरणा लेकर अपना राजनीतिक आदर्श निर्मित किया था। उनका अनुकरण करते हुए उसने राजत्व की प्रतिष्ठा को उच्च सम्मान दिलाने का प्रयत्न किया। राजा को धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि नियाबत खुदाई माना गया। बलबन के अनुसार मान-मर्यादा की दृष्टि से वह केवल पैगम्बर के बाद है। राजा जिल्ले अल्लाह अर्थात ईश्वर का प्रतिबिंब है और उसका ह्रदय दैवी प्रेरणा व कांति का भंडार है। ईश्वर उसे राजसी दायित्व की पूर्ति के लिये प्रेरित व निर्देशित करता है। इस प्रकार के विचारों को बलबन ने इसलिए व्यक्त किया कि यह धारणा निराधार मानी जाए कि राजा की शक्ति का स्त्रोत अभिजात वर्ग या जनता है। उसने इस पर बल दिया कि राजा को शक्ति ईश्वर से प्राप्त होती है, इसलिए उसके कार्यों की सार्वजनिक जाँच नहीं की जा सकती। निजामी के अनुसार यह एक जटिल धार्मिक युक्ति थी जिससे वह अपनी निरंकुश सत्ता को पवित्र बनाना चाहता था। उसने यह घोषणा की कि राजा का ह्रदय ईश्वर कृपा का विशेष कोष है और समस्त मनुष्य जाति में उसके समान कोई नहीं है। उसने माना है कि राजत्व निरंकुशता का शारीरिक रूप है। इस प्रकार की निरंकुशता सुल्तान की हत्या का खतरा उत्पन्न करती थी। अतः उसे अपनी सुरक्षा के प्रति सावधान रहना चाहिए और जनता में अपने प्रति भय की भावना जागृत करनी चाहिए।

दिखावटी मान मर्यादा और प्रतिष्ठा को बलबन ने राजत्व के लिये आवश्यक बना दिया। अपने पूरे शासनकाल में इसने साधारण व्यक्तियों से कोई संपर्क नहीं रखा। वह साधारण व्यक्तियों से बात करना पसंद नहीं करता था। फख्र बावनी नामक दिल्ली के एक धनी व्यक्ति ने राजमहल के अधिकारियों को रिश्वत देकर सुल्तान से भेंट करने का प्रयत्न किया परंतु बलबन ने अपने दरबारियों का निवेदन स्वीकार नहीं किया। वह किसी भी शर्त पर राजत्व के आदर्श की महानता बनाए रखना चाहता था। उसने राजा के पद को जीवित रखने के लिये कुछ मूलभूत तत्वों को आवश्यक समझा, जैसे राजकीय प्रतिष्ठा, सम्मान, वैभव, मान-मर्यादा और आचार-व्यवहार । उसने राजा के पद को एक ऐसी संस्था का रूप दिया जिसका जनसाधारण के साथ निकट संपर्क नहीं होना चाहिए। जनता की अपेक्षा राजा का पद अधिक ऊँचा था। ऐसी स्थिति में जनता के साथ उसका कोई एकीकरण नहीं हो सकता था। उसका विचार था कि अगर राजत्व को जनता के निकट ले जाया जाए तो उसका अंत हो जाएगा। इसका परिणाम यह होगा कि साधारण लोग भी राजा का पद प्राप्त करने की लालसा करने लगेंगे। इसिलए यदि राजत्व की संस्था का अस्तित्व बनाए रखना है तो राजा को न तो जनसाधारण से संपर्क रखना चाहिए और न ही उनसे प्रभावित होना चाहिए।

यदि राजा के व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन से राजत्व के तत्व, जैसे प्रतिष्ठा, सम्मान, महानता आदि अदृश्य हो जाएँगे तो वह राजमुकुट को सुरक्षात्मक सहयोग नहीं दे सकेगा। राजा और जनता के बीच कोई निर्धारित अंतर नहीं रह जाएगा। ऐसा राजत्व आक्रमण के खतरे से भी नहीं बच सकेगा। कोई भी इस पद को हङप कर सकेगा। इस प्रकार राजत्व की कीर्तिमय संस्था स्वयं शासक द्वारा नष्ट कर दी जाएगी और राज्य के कानून समाप्त हो जाएँगे। साधारण व्यक्ति राजा की आज्ञा नहीं मानेगा, उसका आदर नहीं करेगा और उसके प्रति स्वामिभक्त नहीं रहेगा। बलबन के अनुसार राजा का यह प्रमुख कर्तव्य था कि जनता की स्वामिभक्ति अपने प्रति रखे और यह तभी संभव होगा जब राजत्व का भय और आतंक राजत्व का मुख्य तत्व होगा। यदि राजत्व स्वयं को जनसाधारण के सन्मुख असम्माननीय और आदरहीन बनाएगा तो उससे यह आशा नहीं की जा सकती कि वह अपने पद को सुरक्षित रख सकेगा।

वंशावली के महत्व पर बलबन ने अत्यधिक बल दिया। उसने स्वयं को फिरदौसी के शाहनामा में वर्णित अफरासियाब के वंश से संबंधित घोषित किया। उपने समस्त अधिकारियों तथा सरकारी कर्मचारियों के पारिवारिक स्तर का निश्चित करने के लिये सभी प्रदेशों से वंशावली विशेषज्ञ एकत्रित किए गए। बलबन ने ऐसे लगभग तीस अधिकारियों को पदच्युत कर दिया जो उच्च वंश के नहीं थे। उसने अपने दरबारियों को इसलिए बहुत डाँटा कि उन्होंने कमाल नहियार नाम के एक नए मुसलमान को अनुरोध के मुतसर्रिफ के पद पर चुना था। वह सदैव कुलीन व अकुलीन परिवार के व्यक्तियों में अंतर करता था। अकुलीन व्यक्तियों से न वह व्यक्तिगत संपर्क रखता था, न ही उन्हें कोई पद देता था। उसने कहा जब मैं किसी तुच्छ परिवार का व्यक्ति देखता हूँ तो मेरे शरीर की नाङी क्रोध से उत्तेजित हो जाती है। बलबन ने केवल तुर्की की प्रधानता बनाए रखने का निश्चय किया। परंतु बलबन के काल की परिस्थितियों में परिवर्तन हो चुका था। इल्तुतमिश के समय में नए राज्य की नींव मजबूत बनाने व इसके विस्तार के लिये तुर्कों का सहारा लिया गया क्योंकि हिंदूकुश के पार से तुर्कों का बङी संख्या में आगमन होता रहा। परंतु बलबन के काल में अनेक हिंदू मजदूर वर्ग – जैसे जुलाहे, कसाई, महावत, आदि इस्लाम धर्म ग्रहण कर रहे थे। वह ऐसी सरकार स्वीकार नहीं कर सकते थे जिसमें समस्त उच्च पद सुल्तान के तुर्क अमीरों के लिये ही सुरक्षित हों। दूसरे, हिंदू भारी संख्या में फारसी सीख रहे थे परंतु बलबन की शासन व्यवस्था में उनके लिये भी कोई स्थान नहीं था। बलबन की शांति तथा संगठन की नीति के फलस्वरूप एक मिश्रित हिंदू मुस्लिम संस्कृति का अप्रत्यक्ष रूप से विकास हो रहा था। इसलिए यह स्वाभाविक था कि स्लतनत भी अब तुर्क न रहकर एक हिंदू मुस्लिम राज्य में परिवर्तित हो जाए। परंतु बलबन ने इस प्रक्रिया को रोकने का प्रयत्न किया जो हबीबुल्लाह के अनुसार, न केवल निरर्थक अपितु अत्यंत बुद्धिहीनतापूर्ण थे। उच्च कुलीन तुर्कों की संख्या कम होती जा रही थी। ऐसी स्थिति में उनकी प्रधानता बनाए रखना असंभव था।

बलबन ने अपने राजत्व को प्रभावशाली बनाने के लिये फारस की रहन-सहन की परंपराओं को अपनाया। अपने व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक जीवन में उसने फारस के रीति-रिवाजों का अनुकरण किया। उसने अपने पौत्रों के नाम भी फारस के सम्राटों की भाँति कैकुबाद, कैखुसरो और कैकास रखे। उसने अपने दरबार का स्वरूप भी इरानी परंपरा के आधार पर निर्मित किया तथा उसी प्रकार के शिष्टाचार और औपचारिकता को सावधानी के साथ लागू किया। उसने दरबार की शोभा इस प्रकार की बनाई कि वह उसके राज्य की व्यवस्था, समृद्धि और वैभव को प्रतिबिंबित करे। राज्यारोहण से पूर्व ही, जब हलाकू के प्रतिनिधि 1259 में भारत आए तो बलबन ने उनके स्वागत की वैभवपूर्ण योजना बनाई और दरबार को सावधानी के साथ बङी शान-शौकत से सुसज्जित किया। गद्दी पर बैठने के बाद उसने सस्सानियों व ख्वारिजमी शासकों के दरबार का अनुकरण किया और राजत्व की मान-मर्यादा से संबंधित तत्वों के महत्व पर बल दिया। दरबार का शिष्टाचार इन तत्वों में से एक था। बलबन स्वयं संपूर्ण राजसी वैभव व उपकरणों के साथ ही दरबार में उपस्थित होता था। अपने निजी सेवकों के सामने भी सदा वह शाही पोशाक, मोजे और मुकुट के साथ ही उपस्थित होता था। सोलहवीं शताब्दी के लेखक फिजूनी अस्तराबादी के अनुसार उसके लंबे चेहरे पर दाढी थी और उसके ऊंचे मुकुट से उसकी दाढी के अंतिम छोर तक लगभग एक गज की लंबाई होती थी। इस भय उत्पन्न करने वाले व्यक्तित्व के साथ वह दरबार में बैठता था और शिष्टाचार व दरबार की प्रतिभा के तत्वों को महत्त्व देता था। सस्सानियों व ख्वारिजमी शासकों के समान उसने उच्च वेतन प्राप्त करने वाले, भय जागृत करे वाले अंगरक्षकों को नियुक्त किया। वे अपनी चमचमाती तलवारों के साथ सुल्तान के चारों ओर खङे होते थे।

गद्दी पर बैठने के तुरंत बाद उसने अपनी जीवनचर्या व आदतों में परिवर्तन किया। अपनी सामाजिक सभाओं में होने वाले नृत्य, संगीत, मद्यपान सभी पर उसने सिजदा (घुटने पर बैठकर सिर झुकाना) और पायबोस (सुल्तान का चरण-चुंबन) को अपनाया जिसका पालन उन लोगों को पूरी तरह करना पङता था, जिन्हें उसके समक्ष आने का विशेषाधिकार प्राप्त होता था। उसने ऐसे शान-शौकत वाले रिवाजों को शुरू किया जिन्हें बरनी के अनुसार, दिल्ली के किसी अन्य सुल्तान ने नहीं किया था। उसने अपने व्यक्तित्व को पूर्णतः राजत्व के अनुरूप ढाला। उसकी मौजूदगी में कोई हँसी-मजाक या फालतू बात नहीं हो सकती थी। दरबार में वह न तो स्वयं हँसता था न किसी को इसकी छूट देता था। वह अत्यंत गंभीर मुद्रा में दरबार में बैठता था और किसी ने उसे साधारण व्यक्ति के समान व्यवहार करते हुए नहीं देखा। दरबार में केवल वजीर ही उससे वार्तालाप कर सकता था। सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिये सिंहासन के पीछे विश्वसनीय अमीर और मलिक बैठते थे। अन्य लोग अपने पद के अनुसार समक्ष खङे रहते थे।

बलबन ने कठोरतापूर्वक अपने व्यक्तित्व को अपने राजत्व के लिये बलिदान किया। अपने निजी सेवकों के समक्ष भी वह अपनी भावनाएँ व्यक्त नहीं करता था। उसके बङे पुत्र की मृत्यु ने उसका ह्रदय तोङ दिया, परंतु उसने किसी के समक्ष अपनी दुर्बलता को प्रकट नहीं किया। केवल रात के एकांत में वह फूट-फूट कर रोता था। मंगोलों के विनाशकारी युद्धों के प्रकोप से सुरक्षित होने के लिये अन्य देशों से विख्यात विद्वान और शहजादे भारत आए। बलबन ने उन्हें अपने दरबार में स्थान दिया जिससे उसके दरबार की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। विदेशों में मुस्लिम संस्कृति के संरक्षक के रूप में उसे पर्याप्त ख्याति मिली। समारोह के समय दरबार की शान शौकत दर्शनीय होती थी। कढे हुए कालीन, सजावटी पर्दे, रंग-बिरंगे वस्त्र तथा सोने चाँदी के बर्तन उसके दरबार की कीर्ति बढाते थे। बरनी के अनुसार, इन समारोहों के कई दिन बाद तक लोग दरबार की सजावट के विषय में बातें करते थे। विदेशी राजदूत उसके दरबार की शान से प्रभावित होते थे। जब वह जुलूस में जाता था तो सैनिक चमकती तलवार लेकर उसके साथ चलते थे। तलवारों की चमक, उसके मुख की कांति और सूर्य की चमक से जुलूस अत्यंत प्रभावशाली लगता था। इसी प्रकार के जुलूस शक्ति सत्ता और प्रतिष्ठा का प्रदर्शन करने के लिए निकाले जाते थे। बलबन का उद्देश्य था, इस प्रकार के प्रदर्शन से जनसाधारण के लोगों में भय व आतंक उत्पन्न करना जो राजत्व की प्रतिष्ठा का एक मूल तत्व था।

बलबन खलीफा की राजनीतिक सत्ता को मान्यता देता था। अपनी राजनीतिक शक्ति के प्रयोग के लिये वह खलीफा की अनुमति प्राप्त करने की चर्चा करता है। मंगोलों ने खिलाफत को नष्ट कर दिया था तथा खलीफा की हत्या की जा चुकी थी। इन सबके कारण मुस्लिम सत्ता पर गहरा आघात लगा था। चूँकि दिल्ली अनेक राजाओं और राजकुमारों के लिये शरणस्थली बन गयी थी और बलबन यह अनुभव करता था कि पूर्व में इस्लाम की पताका को फहराने का श्रेय उसी को है, इसलिए उसने खलीफा के स्मरण के लिये अपने सिक्कों पर खलीफा का नाम अंकित किया तथा मस्जिदों के खुत्बे में उसका नाम पढा जाता था।

ईश्वर टोपा के अनुसार – बलबन का राजत्व का सिद्धांत संकीर्ण, भौतिकतावादी तथा निरंकुश नहीं था। उसने इसके नैतिक सिद्धांतों पर विशेष बल दिया। उसका उद्देश्य था राजत्व के आधार को मजबूत करना और बिना सोचे-समझे व्यवहार पर रोक लगाना। बलबन का विश्वास था कि जो सुल्तान अपने कार्य या व्यवहार से अत्याचारपूर्ण नीतियों का पालन करता है, वह ईश्वर के प्रति विश्वासघात करता है। इस प्रकार बलबन ने शासन की निरंकुशता को रोकने के लिये नैतिक सीमाएँ लगानी चाही। बलबन के लिये राजत्व मनुष्य द्वारा निर्मित राजनीतिक और नियंत्रण एवं पथ-प्रदर्शन करने वाली संस्था नहीं था। वह ईश्वर की इच्छा के फलस्वरूप प्राप्त हुआ था। यही कारण है कि बलबन ने शासन के दायित्व पर अत्यधिक बल दिया है।

बलबन का विश्वास था कि राजा का पद ईश्वर द्वारा इसलिए प्रदान किया गया है कि वह जनता के कल्याण के लिये कार्य करे। सुल्तान द्वारा प्राप्त होने वाले संरक्षण व देखभाल के लिये जनता को उसका आभारी होना चाहिए। यह तभी संभव था कि सुल्तान अपने कर्तव्यों के प्रति सतर्क हो। यदि वह जनहित की ओर ध्यान न देकर राजा के पद तथा प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाएगा तो उसे अपने राज्यकाल में किए गए अपराधों और दुष्कर्मों के लिये अंतिम फैसले के दिन दंड भोगना पङेगा। बलबन के अनुसार इसका प्रथम कारण यह था कि राजा के लिये उसके पद की प्रतिष्ठा बनाए रखना उसका सर्वोच्च कर्तव्य है।

बलबन ने ईश्वर, शासक तथा जनता के बीच त्रिपक्षीय संबंध को राज्य का आधार बनाने का प्रयत्न किया। इसी कारण उसने जनहित को शासन का व्यावहारिक आदर्श बनाया। राजत्व को वह एक विरासत मानता थआ और विरासत में प्राप्त होने वाला राजत्व ही वास्तविक तथा औचित्यपूर्ण था। इससे ही उसे वैधानिक आधार प्राप्त होता था। वह मानता था कि यदि इस प्रकार का राजत्व क्रूर व अत्याचारी हो तब भी जनता उसको स्वीकार करेगी और उसके नियमों का पालन करेगी। परंतु जो राजत्व विरासत में प्राप्त नहीं होगा उसमें राजत्व के गुण और विशेषताएँ नहीं होंगी। वह वैभवशाली और गंभीर होने पर भी अल्पकालीन होगा और जनता का समर्थन प्राप्त नहीं कर सकेगा।

बलबन कुरान के नियमों को शासन का आधार मानता था। एक मुसलमान होने के कारण वह इस्लामी शासन को गैर इस्लामी शासन से भिन्न मानता था। जो धर्म के कानून के विरुद्ध था, वह वैधानिक शासन नहीं माना जा सकता। बलबन ने उन शासकों की आलोचना की जो इस्लाम की राजनीतिक परंपरा का पालन करने में असफल रहे थे और जिन्होंने इस्लाम से पूर्व के ईरानी राजत्व का अनुकरण किया था। उसका विश्वास था कि राज्य को धर्म के आदेश के अनुसार चलना चाहिए। परंतु यह केवल आदर्शवादी बलबन का विचार था। वास्तविक परिस्थितियों के कारण उसे अपने राजनीतिक विचारों में परिवर्तन करना पङा। भारत में हिंदुओं के बहुसंख्यक होने के कारण बलबन को वास्तविक परिस्थिति के साथ समझौता करना पङा। कहना चाहिए कि राज्य की आदर्शवादिता को शासन की यथार्थवादिता के लिये त्यागना पङा। राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आदर्शवादी विचारों को बलबन कार्यान्वित नहीं कर सका। धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति लगाव के बावजूद बलबन ने न केवल भारतीय राजनीतिक समस्या को सुलझाने का प्रयत्न किया वरन निष्पक्ष न्याय, प्रशासन की निरंकुशता के दमन और बुद्धिमान, धर्मभीरु, ईमानदार तथा योग्य व्यक्तियों के हाथ में सत्ता देकर राज्य के अस्तित्व को औचित्य प्रदान किया। यथार्थवादी होने के नाते ही वह युग की आवश्यकताओं को भली-भाँति समझता था। यथार्थवादी होने के कराण ही वह इस्लाम धर्म को राजनीति से अलग रखने की चेष्टा करता रहा।

उसने अपने पुत्रों तथा अधिकारियों को चेतावनी दी थी कि यदि वे निष्पक्ष न्याय नहीं करेंगे तो उन्हें दंड दिया जाएगा। बलबन का विश्वास था कि केवल न्याय का पालन करके ही वह न केवल अपनी मुक्ति प्राप्त कर सकता है वरन धर्म की रक्षा तथा राजकीय कर्तव्य की पूर्ति भी कर सकता है। उसका विश्वास था कि यदि उसके प्रशासकीय तथा अन्य कार्य न्याय पर आधारित नहीं होंगे, यदि उनकी राजकीय प्रतिष्ठा तथा वैभव राज्य से अत्याचार और दमन का विनाश करने में सफल नहीं हुए तो शासक के रूप में वह पूर्णतः असफल होगा। बलबन के अनुसार हजार बार नमाज पढकर, सारा जीवन उपवास करके, अपराध न करके और धार्मिक कार्य करके भी वह नरक का भागी होगा। अतः जाति के आधार पर न्याय न करके ही शासक अपना दायित्व पूरा कर सकता है। किसी साधारण व्यक्ति पर अत्याचार करने वाले अपने अधिकारी तथा संबंधी को दंड देने में बलबन संकोच नहीं करता था। उसके बरीद (समाचार लेखक व गुप्तचर) साम्राज्य के विभिन्न प्रदेशों में अधिकारियों के कार्यों की पूर्ण सूचना सुल्तान को देते थे। यदि वे बरीद अपना कार्य निष्ठापूर्वक नहीं करते थे और स्थानीय अधिकारी के अन्याय की सूचना नहीं देते थे तो उन्हें भी कठोर दंड दिया जाता था। बदायूँ के बरीद का वध ऐसा ही उदाहरण है।

इस प्रकार बलबन ने शासन की सुरक्षा के लिये निष्ठावान गुप्तचर प्रणाली की स्थापना की।

बलबन ने राज्य के प्रमुख व्यक्तियों को उनके अपराध के लिये कठोर दंड दिए। बदायूँ के अक्तादार मलिक बकबक का कोङे मारकर वध कर दिया गया और अवध के अक्तादार को पाँच सौ कोङे की सजा तथा बीस हजार टंके जुर्माना देना पङा, क्योंकि उन्होंने अपने घरेलू नौकरों की हत्या की थी। इस प्रकार के अपराधियों के लिये कठोर दंड देने का वास्तविक कारण यह था कि वह तुर्क अमीरों की शक्ति को नष्ट करने के लिये कृतसंकल्प था और किसी न किसी साधारण अपराध के लिये वह उनका विनाश करने को तैयार था। इसी प्रकार अपने विरोधियों तथा विद्रोहियों के संबंध में वह न तो न्याय व ईमानदारी का ध्यान करता था, न ही शरीअत का। उन्हें वह क्रूरतापूर्वक दंड देता था। बरनी का कहना है कि विद्रोह के अपराध में वह किसी संपूर्ण नगर और उसकी सेना को पूर्णतः नष्टभ्रष्ट कर देता था। विद्रोहियों को दंड देते समय वह अत्याचारियों की परंपराओं से सूई की नोक के बराबर भी पीछे नहीं हटता था। राजत्व का भय और सम्मान स्थापित करने के लिये वह धर्म के समस्त नियम त्याग देता था। और अपनी सत्ता के थोङे से दिनों में वह जो हितकर समझता था कर डालता था, चाहे शरिअत में उनके लिए अनुमति हो या नहो। प्रमुख बात यह है कि बलबन की न्यायप्रियता जनसाधारण के झगङों में ही अधिक निष्पक्ष और प्रशंसनीय थी।

बलबन का राजत्व का सिद्धांत शक्ति प्रतिष्ठा और न्याय पर आधारित था। उसका उद्देश्य था, सैनिक और प्रशासनिक अधिकारियों पर प्रभुत्व रखना। वह इल्तुतमिश के समान केवल अभिजात वर्ग का मुखिया बनकर रहने से संतुष्ट नहीं था। वह राजा के पद को एक विशेष स्थान प्रदान करना चाहता था, जो अपनी शक्ति व सत्ता के लिये अभिजात वर्ग पर निर्भर न रहकर अपनी व्यक्तिगत शक्ति पर आधारित हो। बलबन ने अनुभव किया था कि सुल्तान की निरंकुशता के मार्ग में सबसे बङी बाधा तुर्क अमीर थे। वह सुल्तान तथा अभिजात वर्ग के बीच हुए पहले जैसे संघर्ष से अपने उत्तराधिकारियों की रक्षा करना चाहता था। सीमांत प्रदेशों पर तुर्क अमीरों ने शक्ति से एकाधिकार कर रखा था और राज्य में महत्त्वपूर्ण पदों पर वे ही थे। इस स्थिति को समझते हुए बलबन ने निम्न वर्ग के तुर्कों को महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया और उन्हें चालीस के समकक्ष स्थान भी दिया। बलबन के निरंकुश शासन में अभिजात वर्ग के प्रभुत्व का प्रश्न ही नहीं उठता था। उन्हें उसमें भाग लेने का अधिकार भी नहीं दिया गया। अपनी इस निरंकुशता में बलबन पूर्णतः सफल हुआ था क्योंकि उसके बीस वर्ष के नायब काल में ही तुर्कान-ए-चहलगानी सदस्य या तो मर चुके थे या वृद्ध हो गए थे। सुल्तान की निरंकुशता का विकास बलबन के राज्यकाल की सर्वप्रमुख विशेषता है। प्रभावशाली अमीरों की शक्ति तथा सम्मान को उसने नष्ट कर दिया, मलिक बकबक और हबत खाँ जैसे अक्तादारों को कठोर दंड दिया गया जो अन्य मलिकों के लिये घातक चेतावनी थी। बलबन ने अपने चचेरे भाई शेर खाँ को विष देकर मरवा दिया, क्योंकि सुल्तान उसकी योग्यता और महत्वाकांक्षा के कारण उससे ईर्ष्या करता था। इसके साथ ही उसने इल्तुतमिश के परिवार के समस्त सदस्यों की निर्दयतापूर्वक हत्या करवा दी।

बलबन ने जिस निरंकुश राजत्व की नींव रखी थी, उसके लिये सेना का पुनर्गठन आवश्यक था। बलबन ने अपने राजनीतिक अनुभव से सेना की शक्ति के महत्व को समझा था। बलबन ने सेना में वृद्धि करने के साथ निष्ठावान व योग्य अधिकारी नियुक्त किए। सैनिकों का वेतन बढाया गया जिससे वे संतुष्ट रहे। वह निरंतर सैनिक अभ्यास पर बल देता था, जिससे सेना सतर्क और क्रियाशील रहे। बरनी लिखता है कि वह एक हजार अश्वारोहों तथा एक हजार पैदल बाण चलाने वाले सैनिकों के साथ शरद रितु में प्रातः काल रेवाङी की ओर जाता था और रात में लौटता था। वह शिकार खेलने के बहाने जाता था जब कि उसका वास्तविक उद्देश्य था सेना को फुर्तीला बनाए रखना। बलबन अपने सैनिक अभियानों को गुप्त रखता था जहाँ उसकी सेना विद्रोहों के दमन के लिये शक्ति का प्रयोग करती थी, वहीं दरिद्र और असहाय व्यक्तियों की सहायता करने के कारण प्रशंसनीय भी थी। कूच के समय जनसाधारण को कोई हानि न पहुँचे, इसका ध्यान रखा जाता था। बलबन ने संगठन की नीति का पालन किया। इसका प्रधान कारण यह है कि वह व्यर्थ सैनिक अभियानों के विरुद्ध था, कभी भी, कहीं भी कूच करने से पहले वह अत्यधिक विचार करता था।

बलबन ने सैनिकों को प्रदान की गयी अक्ताओं से संबंधित भ्रष्टाचार को भी रोकने का प्रयत्न किया। इस कार्य में वह आंशिक रूप से ही सफल रहा। इल्तुतमिश ने भारी संख्या में अक्ताएँ प्रदान की थी जिनमें से दो हजार तुर्क सैनिकों को दोआब में अक्ताएँ दी गयी थी। बलबन के समय तक अक्तादारी व्यवस्था विकेन्द्रीकरण और विघटन का स्रोत बन गई थी। बलबन ने दोआब की अक्ताओं की शर्तों व अवधि की जाँच करवाई। इन अक्ताओं के अधिकारियों में अधिकांश की मृत्यु हो चुकी थी और अन्य वृद्ध हो चुके थे। बलबन ने वृद्ध तथा दुर्बल सैनिकों को बीस से तीस टका पेंशन देकर उनकी अक्ताओं को पुनर्गग्रहण का आदेश दिया। युवा व स्वस्थ सैनिकों को स्थायी सेना में भरती किया गया। परंतु दिल्ली के कोतवाल, मलिक फखरुद्दीन की सिफारिश पर बलबन ने अपने उन आदेशों को वापस ले लिया जो वृद्ध सैनिकों से संबंधित थे।

मध्यकालीन सैनिकों को प्रशासन में भी निपुणता प्राप्त होती थी। बलबन अपनी शक्ति का प्रयोग लापरवाही से नहीं करता था तथा वह अपने सलाहकारों की राय का आदर करता था। बलबन ने शहजादा मुहम्मद को सलाह दी थी कि न्याय, प्रतिष्ठा, सत्ता, कोष, रैयत, जनता और चुने हुए राज्य अधिकारी राज्य के स्तंभ होते हैं। यदि इनमें से एक भी स्तंभ कमजोर होकर हिल जाए तो राजत्व का अंत हो जाता है। शहजादा को उसने यह भी बताया कि किस प्रकार के अधिकारियों को विश्वसनीय तथा महत्त्वपूर्ण पदों के लिये चुनना चाहिए। सुल्तान को उनका आदर करना चाहिए और उन पर विश्वास भी करना चाहिए वरना जनता का शासन में विश्वास नहीं रहेगा। राज्य के कार्यों को सावधानीपूर्वक करना चाहिए। विश्वसनीय तथा ईमानदार अधिकारियों के सहयोग तथा परामर्श से ही राज्य के महत्त्वपूर्ण कार्यों को करना चाहिए। सरकारी अधिकारियों को इस प्रकार के मधुर तथा उच्च गुणों से पूर्ण होना चाहिए कि जनता स्वयं उन्हें अपना आदर्श मान ले और उनका अनुकरण करे। इस प्रकार बलबन ने सुल्तान, उसके अधिकारियों व जनसाधारण के बीच राजनीतिक संबंधों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया।

राजनीतिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बलबन ने फूट उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों को दृढता से दबाया। वह केन्द्रीय राजनीतिक सत्ता में विश्वास करता था और वह समस्त नौकरशाही पर कङी दृष्टि रखता था। अधिकांश सरकारी नियुक्तियाँ वह स्वयं करता था या वे उसकी अनुमति से की जाती थी। प्रांतीय राज्यपालों पर कङी निगरानी रखी जाती थी और वे उसे अपनी सामयिक रिपोर्ट भेजते थे। तुगरिल के विद्रोह से उत्पन्न समस्या के बाद वह सीमांत प्रांतों की सुरक्षा के संबंध में संचेत हो गया । मुल्तान व लखनौती जैसे सीमांत सीमांत प्रांतों में उसने अपने पुत्रों को राज्यपाल नियुक्त किया। साथ ही साथ बलबन ने अपने राज्य में सैनिक तथा आर्थिक अधिकारों को अलग कर दिया जिससे किसी अधिकारी के हाथों में अधिक शक्ति न एकत्र हो जाए। उसने वजीर से उसके सैनिक व आर्थिक अधिकार छीन लिए जिससे उसके पद का महत्त्व कम हो गया। यहाँ यह कहना होगा कि बलबन ने अपने समय की राजनीतिक समस्याओं पर गंभीरता से विचार किया। उसके अनुसार राज्य की प्रतिष्ठा केवल सुल्तानों के हाथों में न होकर अधिकारियों के भी हाथ में होती है। इन अधिकारियों के कार्यों का जनजीवन पर गहरा प्रभाव पङता था। उन्हें ईमानदार, न्यायप्रिय तथा धार्मिक प्रवृत्ति का होना चाहिए जिससे जनता सुरक्षित रह के और उसे अत्याचार, अन्याय, बेईमानी तथा शोषण से मुक्ति मिल सके। जिस प्रकार जनता सुल्तान के जीवन का अनुकरण करती है, उसी प्रकार अधिकारियों के व्यवहार से भी प्रभावित होती है। अतः जनता के सामने उच्च उदाहरणों को रखकर बलबन ने अप्रत्यक्ष रूप से जनता के जीवन को भी ऊँचा उठाने का प्रयत्न किया।

बलबन के समक्ष सबसे प्रमुख समस्या थी हर मूल्य पर शासन को स्थायित्व प्रदान करना। यद्यपि वह शासनकार्य में दक्ष था तथापि परिस्थितियों के कारण शासन व्यवस्था में भारी परिवर्तन नहीं कर सका। फिर भी जो कुछ उसने अपने राज्य के स्थायित्व के लिये आवश्यक समझा, उसे सफलतापूर्वक पूरा किया।

साधारण नागरिकों के प्रति बलबन बङा दयालु था और उनके प्रति उसने पितातुल्य चिंता का प्रदर्शन किया। वह जानता था कि राजत्व के कार्यों के प्रति अज्ञान ठीक नहीं है। शासक को शासन कार्य में कुशल होना चाहिए। बलबन ऐसी नीति का पालन करना चाहता था जो जनता का ह्रदय जीत सके। वह मानता भी था कि सुल्तान की नीति को न तो अधिक कठोर होना चाहिए, न ही अत्यधिक उदार। राजनीति के क्षेत्र में स्वार्थपरता परिलक्षित नहीं होनी चाहिए। बलबन जानता था कि शासन की समस्याएं कठिन हैं, और उनके समाधान के लिये गंभीर चिंतन व सावधानी आवश्यक है। अतः राज्यारोहण के बाद बलबन के व्यक्तित्व में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए।

सन 1287 में बलबन की मृत्यु हो गयी। बरनी लिखता है, बलबन की मृत्यु से दुःखी हुए मलिकों ने अपने वस्त्र फाङ डाले और सुल्तान के शव को नंगे पैरों दारुल-अमन के कब्रिस्तान को ले जाते हुए उन्होंने अपने-अपने सिरों पर धूल फेंकी। उन्होंने चालीस दिन तक उसकी मृत्यु का शोक मनाया और भूमि पर सोए। यह बात कम आश्चर्यजनक नहीं है कि कठोर शासक अपने सरदारों में प्रिय हो और उसकी मृत्यु पर इस प्रकार का दुःख प्रकट किया जाए। बलबन के राजत्व की सबसे प्रमुख विशेषता यही थी कि उसने जनहित को शासक का मुख्य कर्तव्य समझा था। शांति और व्यवस्था उसके राजत्व के मूल मंत्र थे। उसकी मृत्यु के बाद शीघ्र ही उसके वंश का अंत हो गया। परंतु दिल्ली का राज्य सुरक्षित था। बलबन द्वारा स्थापित व्यवस्था के कारण ही खलजी वंश की उपलब्धियाँ संभव हो सकी।

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