इतिहासदिल्ली सल्तनतमध्यकालीन भारत

इल्तुतमिश कौन था?

इल्तुतमिश (1210-1236ई.) – तुर्क अमीरों और सैनिक अधिकारियों ने सबसे योग्य और बहादुर तुर्क को अपना सुल्तान चुना और इल्तुतमिश बिना किसी कठिनाई के गद्दी पर आसीन हुआ। वह इल्बारी जनजाति का तुर्क था। उसका पिता ईलम खाँ एक जनजातीय सरदार था। 1200 ई. में ग्वालियर विजय के बाद उसे उस नगर का अमीर बनाया गया। बाद में कुतुबुद्दीन ने उसे बदायूँ की अक्ता शासन करने के लिये दी जो रैवर्टी के अनुसार दिल्ली साम्राज्य में सबसे उच्च थी। इस प्रकार प्रशंसनीय गुणों के कारण इल्तुतमिस ने बहुत ही कम समय में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया।
दिल्ली सल्तनत में इल्तुतमिश का स्थान
इल्तुतमिश द्वारा किये गये निर्माण कार्य

इल्तुतमिश

इल्तुतमिश के 26 वर्ष के शासनकाल को तीन भागों में बाँटा गया है –

  • 1210-1220ई. तक उसने अपने विरोधियों का दमन किया।
  • 1221 ई.से 1227 ई. तक उसे मंगोल आक्रमण के खतरे का सामना करना पङा।
  • 1228 से 1236 ई. तक जब वह अपनी वैयक्तिक और वंशीय सत्ता के संगठन के लिए कार्य करता रहा।

इस समय तीन शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी थे जिनसे इल्तुतमिश को अपने संबंध निश्चित करने थे – गजनी में यल्दूज, सिंध में कुबाचा और लखनौती में अलीमर्दान। यदि इल्तुतमिश उनकी सत्ता को स्वीकार करता तो यह उसकी सल्तनत के लिये विनाशकारी सिद्ध होता। अतः विनाश करना आवश्यक था।

इसके अलावा इल्तुतमिश को उन स्वतंत्र राज्यों पर अधिकार करना था जो हिंद शासकों के अधीन थे, जैसे जालौर और रणथंभौर।

प्रथम काल

इस काल में इल्तुतमिश को यल्दूज और कुबाचा के साथ संघर्ष करना पङा। ख्वारिज्मियों द्वारा गजनी से खदेङे जाने पर यल्दूज ने लाहौर पर अधिकार कर लिया। कुबाचा को वहाँ से भागना पङा। पंजाब और थानेश्वर पर भी यल्दूज ने लाहौर पर अधिकार कर लिया। कुबाचा को वहाँ से भागना पङा। पंजाब और थानेश्वर पर भी यल्दूज ने अधिकार कर लिया। तराइन के मैदान में जो युद्ध हुआ (1215-1216ई.) उसमें इल्तुतमिश ने यल्दूज को पराजित कर दिया। इसामी के अनुसार यह हाँसी भाग गया और बंदी बनाया गया। यह सही नहीं प्रतीत होता है, क्योंकि हसन निजामी के अनुसार उसे घायल होने पर बंदी बनाया गया। इसके बाद उसे बदायूँ ले जाया गया जहाँ उसकी हत्या कर दी गयी। के.ए.निजामी के अनुसार इल्तुतमिश के लिये यह दोहरी विजय थी, उसकी सत्ता को ललकारने वाले सबसे भयंकर शत्रु का विनाश और गजनी से अंतिम रूप से संबंध विच्छेद जिसके फलस्वरूप दिल्ली का स्वतंत्र अस्तित्व निश्चित हो गया।

कुबाचा की बढती हुई महत्वाकांक्षाएँ इल्तुतमिश के लिये चिंता का कारण थी। उसे लाहौर पर शासन का अधिकार दिया गया था, पर वह सरहिंद पर अधिकार करने का इच्छुक था। अतः 1217 ई. में इल्तुतमिश कुबाचा के विरुद्ध बढा, पर वह भाग खङा हुआ। कुबाचा का पीछा करके उसे पराजित किया गया, पर उसे पूरी तरह कुचला नहीं जा सका, क्योंकि जलालुद्दीन मँगबरनी के भारत आने से इल्तुतमिश के लिये नई व्यवस्था उठ खङी हुई और उसे वापस आना पङा। लाहौर पर उसने अपने पुत्र नासिरुद्दीन महमूद को नियुक्त किया।

द्वितीय काल (1221-1227ई.)

चंगेज खाँ के प्रकोप से बचने के लिए ख्वारिज्म शाह का पुत्र जलालुद्दीन मँगबरनी सिंधु घाटी पहुँचा। संभवतः चंगेज खाँ ने इल्तुतमिश के पास अपने दूत भेजे थे कि यह मँगबरनी की सहायता न करे। इल्तुतमिश भी सावधान था कि मंगोलों से शत्रुता मोल न लेनी पङे। अतः उसने मँगबरनी की कोई सहायता नहीं की और जब 1228 ई. में मँगबरनी भारत से चला गया तो इस समस्या का समाधान हो गया।

तृतीय काल(1228-1236ई.)

अब इल्तुतमिश को अपनी विजय और संगठन की योजनाओं की ओर ध्यान देने का समय मिला। बंगाल में अलीमर्दान ने आपसी सत्ता स्थापित की थी, पर उसकी हत्या कर दी गयी। 1211 ई. में हुसामुद्दीन एवज खलजी को उस पद पर बिठाया गया। वह एक स्वतंत्र शासक बन गया और उसने सुल्तान ग्यासुद्दीन का खिताब धारण किया। उसने बिहार में अपनी शक्ति का प्रसार किया और जाजनगर, तिरहुत, बंग और कामरूप के राज्यों से खिराज वसूल किया। जब 1225 ई. में इल्तुतमिश ने बंगाल की ओर कूच किया तो उसने दिल्ली की अधीनता स्वीकार कर ली और भारी हर्जाना दिया। किंतु इल्तुतमिश के वापस लौटते ही उसने मालिक जानी को पराजित कर दिया जिसे इल्तुतमिश ने बंगाल को मुक्ता नियुक्त किया था। वह फिर एक स्वतंत्र शासक बन गया। इल्तुतमिश के पुत्र नासिरुद्दीन महमूद ने उसे पराजित किया और वह मारा गया। बाद में नासिरुद्दीन महमूद को लखनौती का मुक्ता नियुक्त किया गया।

1226 ई. में रणथंभौर और 1227 ई. में मंडोर दुर्ग पर इल्तुतमिश ने विजय प्राप्त की। इसके बाद वह कुबाचा के विरुद्ध बढा। भटिंडा, सुरसुती और लाहौर पर अधिकार करने के बाद वह उच्छ की ओर बढा। कुबाचा भागकर वह भक्कर पहुँचा और उसने अपने पुत्र अलाउद्दीन बहराम को संधि का प्रस्ताव करने के लिये इल्तुतमिश के पास भेजा। इल्तुतमिश ने बिना शर्त समर्पण की माँग की परंतु कुबाचा ने सिंधु नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली। इल्तुतमिश ने सिंध और पंजाब में अपनी शक्ति स्थापित की और बारह सामरिक महत्व के दुर्गों को जीतकर मकरान तक अपनी सत्ता की स्थापना की।

18 फरवरी, 1229 को बगदाद के खलीफा के राजदूत दिल्ली आए और उन्होंने इल्तुतमिश के सम्मान में अभिषेक पत्र प्रदान किया। यह मात्र एक औपचारिकता थी जिसके द्वारा खलीफा ने दिल्ली सल्तनत की स्वतंत्र स्थिति को मान्यता प्रदान की। इस वैधानिक स्वीकृति से इल्तुतमिश की प्रतिष्ठा अधिक ऊंची हो गयी और उसकी एक दीर्घकालीन अभिलाषा भी पूरी हुई।

अपनी योग्यता और क्षमता के आधार पर ही इल्तुतमिश दिल्ली के सुल्तान के पद पर पहुँचा था। मिनहाज-उस-सिराज के अनुसार उसकी सुंदरता, बुद्धिमता और कुलीनता का मुकाबला नहीं था। वह लिखता है, इतना परोपकारी, सहानुभूतिपूर्ण और विद्वानों तथा बुजुर्गों की इज्जत करने वाला कोई भी ऐसा राजा नहीं हुआ जिसने स्वयं अपने प्रयास से राजगद्दी प्राप्त की हो। इल्तुतमिश एक साहसी सैनिक और योग्य सेनापति था। वह एक दूरदर्शी शासक था। उसने भारत में नव निर्मित तुर्की राज्य को शक्तिशाली व संगठित किया और उस पर अपने वंश के अधिकार को सुरक्षित रखा। ए.बी.एम हबीबुल्ला के अनुसार ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की सीमाओं और उसकी संप्रभुता की रूपरेखा बनाई। इल्तुतमिश, निस्संदेह उसका पहला सुल्तान था। अपने अथक परिश्रम व सावधानी से उसने गोरी द्वारा अधिकृत प्रदेश की दुर्बलता को समाप्त करते हुए एक सुसंगठित सल्तनत का निर्माण किया। उसमें रचनात्मक योग्यता थी जिसके आधार पर छब्बीस वर्ष की निरंतर राजनयिक और सैनिक गतिविधियों के बाद उसने दिल्ली की सल्तनत की रूपरेखा बनाई। के.ए.निजामी के शब्दों में ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की रूपरेखा के बारे में सिर्फ दिमागी खाका बनाया था, इल्तुतमिश ने उसे एक व्यक्तित्व, एक पद, एक प्रेरणा-शक्ति, एक दिशा, एक शासनव्यवस्था और एक शासक वर्ग प्रदान किया। राज्यारोहण के समय उसे अस्त-व्यस्त राजनीतिक वातावरण और अनिश्चित परिस्थितियों के संकट से गुजरना पङा। उसके पथ-प्रदर्शन के लिये कोई परंपरा नहीं थी और उसने अपना मार्ग अपने आप चुना। अपने परिश्रम और दूरदर्शिता से वह अपने राज्य को संगठित कर सका। उसे मध्यकालीन भारत का एक श्रेष्ठ शासक माना जाता है। आर.पी.त्रिपाठी कहते हैं – भारतवर्ष में मुस्लिम प्रभुसत्ता का वास्तविक श्रीगणेश उसी से होता है।

इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी

इल्तुतमिश की मृत्यु (30 अप्रैल, 1236ई.) के बाद तीन वर्षों का इतिहास सुल्तानों व अमीरों के बीच सत्ता के अधिकार के लिये संघर्ष का इतिहास है। इस काल की दो मुख्य विशेषताएँ हैं – इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों का दुर्बल होना और तुर्की अधिकारियों की महत्वकांक्षाएँ। सुल्तानों की दुर्बलता का लाभ उठाकर वे अपनी शक्ति को बढाने के लिये कृतसंकल्प थे। इन तीस वर्षों में इल्तुतमिश के वंश के पाँच शासक सिंहासन पर बिठाए गए और बाद में पदच्युत करके मार डाले गए। इन उत्तराधिकारियों का बलि के बकरों की भाँति वध किया गया और अंत में तीस वर्ष बाद उसके अमीरों में से एक ने उसके वंश के समस्त सदस्यों को नष्ट कर दिया।

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