इतिहासमध्यकालीन भारत

भारत पर तुर्क आक्रमण के प्रभाव

भारत पर तुर्क आक्रमण के प्रभाव – तुर्कों द्वारा किए गए आक्रमण भारतीय इतिहास में कोई आधारभूत परिवर्तन नहीं ला सके और न ही उनका भारतीय संस्कृति एवं इतिहास पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव दिखाई देता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन आक्रमणों ने जीवन के सभी स्तरों पर नए तत्व पैदा किए। लेकिन धीरे-धीरे ये देश की सभ्यता में समाहित होते चले गए, इसलिए इन आक्रमणों के प्रभाव दूरगामी सिद्ध नहीं हुए।

भारत में सल्तनत की स्थापना की दृष्टि से पहला महत्त्वपूर्ण वंश ममलूक शासकों का था। सल्तनत का केवल पादशाह ही मालिक था। फारस पर विजय प्राप्त करने के बाद (जबकि तुर्कों की राजधानी बगदाद थी) वहाँ के रीति-रिवाज, सरकार व्यवस्था तथा अन्य प्रकार के विचारों ने दिल्ली सल्तनत को प्रभावित किया। यह सल्तनत फारसी परंपरा पर आधारित थी। सल्तनत शरीअत और इस्लाम से प्रभावित धर्मतांत्रिक राज्य न था, बल्कि राजनीति से प्रभावित होकर धर्म निरपेक्ष लौकिक राज्य था जो सत्ताशाही या पादशाही के ऊपर निर्भर था।

सैद्धांतिक रूप से दिल्ली सल्तनत पूर्वी खिलाफत के अधीन थी। अपने पद को स्थायित्व देने के लिये सुल्तान खलीफा के नाम का सहारा लेते थे तथा अपने को उसका अधीनस्थ प्रतिनिधि कहकर खलीफा की मान्यता प्राप्त करते थे। शम्सुद्दीन इल्तुतमिश दिल्ली का प्रथम सुल्तान था जिसे खलीफा ने भारत के रूप में मान्यता दी थी। अब्बासी खलीफा से प्रार्थना करके उसने मंशूरे प्रतिष्ठापन प्राप्त किया, जिसमें उसे वफादार का नायब कहा गया था। शासकों को नसीर-ए-अमीर-उल्मोनिन अर्थात् स्वामिभक्त सरदारों के सहायक की उपाधि प्राप्त थी। सच्चाई यह थी कि सुल्तान प्रभुत्व संपन्न शासक एवं स्वतंत्र राजा था। साथ ही, वह शासन-प्रणाली का प्रधान था। मुस्लिम सुल्तान पहले के हिंदू शासकों से भिन्न था। वह भारतीय न था, और वह एक ऐसे धर्म में विश्वास करता था, जिसके द्वारा राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों का हल हिंदू धर्म से भिन्न किंतु भारतीय परंपराओं को ध्यान में रखते हुए ही निकाला जा सकता था।

इल्तुतमिश ने दिल्ली को संपूर्ण राज्य की राजधानी बनाया। परिणाम यह हुआ कि इसके कारण लाहौर का महत्त्व कम हो गया।

उत्तराधिकार का नियम

मुस्लिम शासकों में उत्तराधिकार का कोई स्पष्ट नियम न था। इस्लाम के सिद्धांतों में चुनाव की व्यवस्था नहीं थी। सैनिक शक्ति की गद्दी का हकदार बनने का मुख्य तरीका था। मुस्लिम भारत में अमीर वर्ग राजनीति के मुख्य अंग थे। राजपूत सरदारों की तरह न तो ये वंश परंपरा पर निर्भर थे, न ही किसी वंशीय परंपरा में विश्वास करते थे। मिन्हाज-उस-सिराज और जियाउद्दीन बरनी ने अपनी पुस्तक तबकाते नासिरी तथा तारीखे फीरोजशाही में यह सिद्ध किया कि सारे महत्त्वपूर्ण ओहदों पर (केंद्रीय, प्रांतीय और जिले के प्रशासन में) तुर्क अधिकारियों का एकाधिकार हो गया था। ये सब तथाकथित गुलाम वंश के अधिकारी थे। ममलूक काल के समय इन्हें चहलगानी या चालीस की उपाधि दी गयी थी जो संस्था एवं संख्या ही नहीं, अपितु उनकी शक्ति का सूचक थी। उच्च अधिकारियों को खाँ, मलिक या अमीर कहते थे। तेरहवीं शताब्दी में लगातार कुछ न कुछ विवाद पादशाहत और सत्ता संपन्न अमीरों के बीच बना रहा, क्योंकि अमीर अपने आपको राजसत्ता का भी अधिकारी समझते थे। यही कारण था कि बलबन को राजा के पद और अधिकारों के बारे में विस्तृत रूप से विचार करना पङा। बल्बन के राज्य सिद्धांत की दो मुख्य विशेषताएँ थी – प्रथम, सुल्तान का पद ईश्वर के द्वारा प्रदान किया गया है, और दूसरे, सुल्तान का निरंकुश होना आवश्यक है। इसके अनुसार – सुल्तान पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है और उसका स्थआन पैगंबर के बाद है। इस कारण से अमीरों में विरोध करने का साहस न था, परंतु बलबन की मृत्यु के बाद यह विवाद पुनः उठ खङा हुआ।

इक्ता प्रथा

तुर्की विजय उत्तर भारत में छोटे-छोटे राज्यों की विभाजित सत्ता को समाप्त करने के लिये आवश्यक थी। इल्तुतमिश और बल्बन दोनों सत्ता के केंद्रीकरण में विश्वास करते थे। दिल्ली सल्तनत की संपूर्ण शक्ति का मूलाधार सेना थी। पूरे राज्य के विभिन्न क्षेत्रों को अक्ता के रूप में बाँट दिया गया था और उन्हें प्रमुख सेनापतियों को सौंप दिया जाता था। अक्ता की परिभाषा निजाम-उल-मुल्क की किताब सियासतनामा में दी गई है। अक्ता राजस्व के हस्तांतरण से संबंधित संस्था थी जिससे सेना के अधिकारी अपनी सेना का व्यय निर्वाह करते थे और साथ-साथ इलाके में कानून और व्यवस्था बनाए रखते थे। इसके द्वारा शासक वर्ग के लोगों का सामाजिक स्तर और राजनीतिक प्रभाव निश्चित किया जाता था। हर एक अक्तादार अपने ऊंचे स्तर के बावजूद सुल्तान का आज्ञापालक होता था। किंतु यदि वह अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाना चाहता था, उसको दंड दिया जाता था।

सामंतवाद का पतन

तुर्कों के आक्रमण के समय भारत का सामाजिक और राजनीतिक रूप इस प्रकार से था जिसमें (राजपूत प्रशासनिक ढाँचे) शासक वर्ग की स्थानीय सरदारों के ऊपर प्रभुसत्ता कायम रहती थी यद्यपि इनमें से कई स्थानीय सरदार राजपूत न थे, तथापि वे स्थानीय जन जाति के सदस्य थे। इनमें से अधिकांश नीची जाति के लोग थे। तुर्क शासकों ने विशेष रूप से प्रमुख राजपूत सरदारों को उनके स्थान से हटा दिया और शेष से कुछ शर्तों पर अपनी सत्ता की अधीनता स्वीकार करवा ली। इससे ऐसा प्रतीत होता है, कि सल्तनत और राजपूत अमीरों के बीच एक प्रकार का नजदीकी संबंध था। शासक वर्ग का जमीन के किसी विशेष अंग या इलाके पर कोई अधिकार न रहा। सुल्तान की स्वीकृति के बिना वे अपना दावा किसी भी जमीन के हिस्से पर नहीं कर सकते थे। सारा अधिकार राजा के हाथों में केंद्रित था, जिसके द्वारा राजनीतिक और आर्थिक केंद्रीकरण हुआ। परिणाम यह हुआ कि शोषण करने की नई पद्धति का आरंभ हुआ। किंतु राजपूत सरदार, जैसे राय, राणा, रावत और ठाकुर का जङ से उन्मूलन नहीं किया गया, बल्कि उन्हें अधीनस्थ बना लिया गया।

इस समय में ग्रामीण सभ्यता में कोई परिवर्तन नहीं आया था। नए अक्तादार, जिन्होंने राजपूत सामंतों की जगह ली थी, राजा और किसान वर्ग के बीच कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं कर सके। जो तुर्क भारत में आए, वे केवल शहरी योद्धा थे। उन्हें राजस्व या कृषि के मामलों में विशेष उत्सुकता नहीं थी।

आर.पी.त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक सम आस्पेक्ट्स ऑफ मुस्लिम एडमिनिस्ट्रेशन में लिखा है कि तुर्क मूल रूप से सैनिक थे, वे लङाइयों और विजयों में अधिक विश्वास करते थे। समान्य रूप से उन्होंने मुसलमानों की अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों को अपनाया। भारत में इस्लामिक व्यवस्था का प्रारंभ हुआ। यह व्यवस्था बगदाद के मुख्य काजी अबू याकूब द्वारा लिखित किताब-उल-खिराज में अभिलेखबद्ध है। इस व्यवस्था का आधार खिराज और उश्र के बीच भिन्नता पर निर्भर है। उश्र एक प्रकार का कर था जो मुसलमानों से कुल पैदावार पर लिया जाता था। बाद में राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों के कारण जमीन का वर्गीकरण नहीं किया गया। जिन जमीनों से कर लिया जाता था, वे खिराजी जमीनें कहलाती थी। भारत में कुतुबुद्दीन ऐबक ने खिराज और उश्र के बीच अंतर को लागू किया। उसने लाहौर के मुसलमानों की जायदाद पर निश्चित कर लगाया। हिंदुओं की राजस्व प्रणाली में भी किसानों को पैदावार का कुछ भाग कर के रूप में देना पङता था। मनु की किताब में यह हिस्सा 1/8, 1/10, 1/12 बताया गया है। ऐसी स्थिति में मुसलमानों द्वारा लागू की गयी कर व्यवस्था भारत के लिये नई नहीं थी। बटाई तथा जमीन को मापना दोनों प्रणालियाँ भारत में प्राचीन काल से थी। ऐसी स्थिति में राजपूत सरदारों की स्थिति पर कोई गहरा प्रभाव नहीं पङा। वास्तविक रूप से देखा जाए तो हिंदू और मुसलमान व्यवस्था बहुत कुछ हद तक समान थी।

अतः हम कह सकते हैं, कि तुर्कों की विजयों के प्रभाव से गाँव में पूर्ण परिवर्तन के रूप में क्रांति कभी नहीं हुई। केवल अलाउद्दीन खलजी के समय राजस्व के विनियमों के द्वारा तुर्कों ने इस उद्देश्य की पूर्ति की। गाँव के शासक वर्ग के स्थान पर शहरी शासक वर्ग आ गया, जिसके द्वारा राजनीतिक समानता स्थापित हुई। साथ ही केंद्रित राजस्व व्यवस्था शुरू हुई, जिससे राजपूत सरदारों की स्वतंत्रता समाप्त होने लगी। इस प्रकार की सरकार और व्यवस्था को कार्ल मार्क्स ने पूर्वी तानाशाही कहा है।

मुसलमानों की सामाजिक व्यवस्था हिंदुओं से भिन्न थी। उनमें सामाजिक एकता की भावना की गहरी छाप थी। मुस्लिम समाज में भेद-भाव नहीं था। भारत के अधिकांश लोगों के लिये राजपूतों के स्थान पर तुर्की राज्य के स्थायित्व हो जाने का अर्थ था – भेद भाव और ऊँच-नीच की समाप्ति। राजनीतिक संगठन, जिससे जातिवाद को प्रेरणा मिली थी, अब उसने एक नई व्यवस्था को जन्म दिया, जिसमें हर व्यक्ति को समान अधिकार थे। यह सच है कि कोई भी विदेशी सरकार अगर प्रजा को उसके अधिकारों से वंचित रखती है तो वह बहुत समय तक टिक नहीं सकती। सामाजिक रूप से इस्लाम ने सामाजिक समानता को संतुलित रूप दिया और जाति भेद की आलोचना की। इसने जन्म और वंश के महत्त्व को कम कर दिया, सारे सामाजिक बंधनों को तोङ दिया और हिंदू और मुसलमानों के बीच की खाई को पाटने का हर संभव उपाय किया। हिंदूओं का आदर्शवाद भेद भाव पर निर्भर था। उसमें विस्तार की संभावना प्रायः नहीं थी। यदि कोई सामाजिक और आर्थिक क्रांति संभव थी भी, तो उसे जातिवाद के कारण ला पाना संभव न था।

परंपरागत ऐश्वर्य के पतन के साथ एक आधारभूत सामाजिक क्रांति हुई। विभिन्न प्रकार के कारीगर अब शहर में प्रवेश कर सकते थे। उनकी उपस्थिति औद्योगिक कार्यों तथा नई सरकार को चलाने में आवश्यक थी। कुशल कारीगर, जिनका पहले कोई महत्त्व नहीं था, अब समाज में ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकते थे। महत्त्वपूर्ण हस्तकलाएँ (जैसे कालीन बुनना) भारत में प्रारंभ हुई। जुलाहे, जिन्हें हिंदुओं की जाति व्यवस्था में नीचा स्थान मिला था, ऊँचे स्थान पर पहुँच गए। यहाँ से एक नई शहरी अर्थव्यवस्था शुरू हुई। इस परिवर्तन का प्रभाव विशेष रूप से दिल्ली, लाहौर और लखनौती जैसे शहरों में देखने को मिलता है।

थोङे ही समय में ये शहर व्यवसाय के ऐसे केन्द्र बन गए जहाँ पर बाजार और व्यापार उन्नत दशा में थे। यहीं पर हमें लाहौर के मुसलमान व्यापारियों का गुजरात कि हिन्दू व्यापारियों से संपर्क दिखाई पङने लगता है। नहरवाला के एक हिंदू व्यापारी विसाल अबजार ने गजनी के साथ व्यापार किया। इसामी ने लिखा है कि इल्तुतमिश के समय चीन के व्यापारी दिल्ली आते थे। परिणाम यह हुआ कि भारत अपनी कूपमंडूक दशा से उबरा और संसार के सब देशों से अधिकतर एशिया और अफ्रीका से, उसका संपर्क बढा। इरफान हबीब ने यह मत प्रस्तुत किया है कि तुर्कों के आक्रमण के बाद भारत के आर्थिक जीवन में भारी विकास हुआ। मूलतः यह विकास मुसलमान कारीगरों और व्यापारियों के आगमन से हुआ जो कि अपने साथ कारीगरी की नई तकनीक लाए थे। इसके अलावा यह सब संभव इसलिए और भी हुआ कि मुसलमानों ने बङी संख्या में गुलाम बनाए तथा इस प्रकार की व्यवस्था स्थापित की जिसके द्वारा कृषि अधिशेष का बङा भाग काम में लग सकता था। यहाँ पर तीन विशेष बातें महत्त्वपूर्ण हैं – 1.) शहरों का विकास, 2.) कारीगरी की वस्तुओं का विस्तार और 3.) वाणिज्य व्यापार को प्रोत्साहन। उदाहरण के लिए इरफान हबीब यह खोज सामने लाते हैं, कि चरखा प्राचीन भारत में केवल 12 वीं शताब्दी में ईरान से आया। इससे कपङे के उत्पादन को बढावा मिला। यह व्यापार से संबंधित था, जिसके द्वारा अत्यधिक शहरी नगर स्थापित हुए। इन सब परिवर्तनों से जो व्यवस्था स्थापित हुई उसे इरफान हबीब ने मध्यकालीन भारतीय अर्थव्यवस्था की संज्ञा दी है।

तुर्की आक्रमणों के प्रभाव से भारत में सांस्कृतिक विकास के एक ऐसे युग का सूत्रपात होता है जिसमें स्थापत्य कला की विशेष ढंग से उन्नति होती है। तुर्क अपने साथ इस्लाम के सिद्धांत लाए थे। हिंदू और तुर्कों के बीच जलवायु धार्मिक विचार और भौगोलिक स्थिति में अंतर था जिसकी वजह से दोनों के स्थापत्य कला के तरीके पर्याप्त भिन्नता रखते थे। मुसलमानों के आने के बाद चूना मिश्रित नए मसाले का प्रयोग बढ गया। इन नवीन साधनों के उपलब्ध होने से इमारतों में नई दृढता आई। सल्तनत स्थापित करने के बाद नए विजेताओं की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता मस्जित थी। इसलिए कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद की स्थापना की गयी। मुख्य इमारतों में महराब और गुंबदों का निर्माण किया गया।

ममलूक काल में एक और मुख्य विकास था – मदरसे की स्थापना। सामान्य रूप से मुसलमानों के कोई स्कूल और कॉलेज नहीं थे। केवल मस्जिद से ही शिक्षा दी जाती थी। इल्तुतमिश ने राज्य से चलाए गए दो कॉलेजों में इस्लाम की शिक्षा की एक नई परंपरा चालू हुई जिसके द्वारा विद्वानों के एक विशेष वर्ग का उदय हुआ। हिंदू और मुस्लिम संस्कृति के सम्मेलन से भारत में नई भाषा हिंदवी को जन्म मिला जिसका उदाहरण हमें अमीर खुसरो की पहेलियों में मिलता है। फारसी भाषा की शुरूआत के साथ एक प्रकार की समानता आरंभ हुई। अमीर खुसरो के अनुसार —- हिंदुस्तान से सिंध नदी के तट से भारतीय समुद्र तक केवल फारसी गुफ्तार ही है …. भारतीय भाषा हर सौ कोस के बाद बदलती है, परंतु फारसी भाषा चार हजार फास्संग तक एक ही है।

नई आर्थिक व्यवस्था

दिल्ली सल्तनत की स्थापना का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू था मध्यकालीन अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में उसका योगदान। तुर्कों के प्रभाव से जो परिवर्तन आया उसका स्वरूप और परिणाम क्या था, इस विषय में इतिहासकारों के बीच विवाद जारी है।

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