इतिहासराजस्थान का इतिहास

धौलपुर का समझौता क्या था

Dholpur Agreement

धौलपुर का समझौता (Dholpur Agreement)-

चिमनाजी के साथ-साथ नया पेशवा बालाजी बाजीराव, जयसिंह के साथ सद्भावनापूर्ण संबंधों को अधिक महत्त्व देने लगा। क्योंकि उनका निश्चित मत था कि बादशाह के साथ समझौता जयसिंह की मध्यस्थता से ही संभव हो सकता है। जयसिंह ने भी मराठों से समझौता-वार्ता जारी रखी।

किन्तु जयसिंह जानता था कि निजाम समझौता वार्ता को असफल करने का प्रयास करेगा। अतः जयसिंह ने चिमनाजी को लिखा कि मालवा में एक शक्तिशाली सेना भेज दी जाय, क्योंकि जयसिंह की मान्यता थी कि बिना सैन्य-शक्ति-प्रदर्शन के राजनीतिक वार्ता सफल नहीं हो सकती।

चिमनाजी ने होल्कर व सिन्धिया के साथ 10-15 हजार सवार मालवा में भेज दिये और पूना दरबार ने यह भी निर्णय लिया कि पेशवा स्वयं उत्तर की ओर जाकर जयसिंह से विचार-विमर्श कर स्वर्गीय पेशवा की इच्छा पूरी करे। लेकिन निजाम ने इस बार फिर यही प्रयत्न किया कि जयसिंह की मध्यस्थता में बादशाह, पेशवा से बातचीत न करे।

अतः निजाम ने पेशवा को कहलवाया कि बादशाह राजपूतों से नाराज है, क्योंकि उन्होंने नादिरशाह के आक्रमण के समय कुछ भी सहायता नहीं भेजी थी। उसने यह भी कहा कि वह (निजाम) पेशवा की बादशाह से बातचीत करवा देगा।

उसने पेशवा को 15 लाख रुपये (जो बादशाह ने पहले देना स्वीकार किया था) के स्थान पर 20 लाख रुपये, मालवा का सूबा, चंबल के पूर्व का प्रदेश (जो आगरा के सूबे में था), कुछ अन्य अच्छे स्थान व उतनी ही रुपया, जिससे कि पेशवा का कर्ज, सुगमतापूर्वक चुकाया जा सके, दिलवाने का वादा किया।

किन्तु पूना दरबार ने जयसिंह की मध्यस्थता में ही मुगल सरकार से समझौता करने का निश्चय किया। दिल्ली से महादेव भट्ट ने लिखा कि मराठे आरंभ से ही सवाई जयसिंह की मध्यस्थता स्वीकार करते आये हैं और राधाबाई की जयपुर यात्रा के बाद तो स्वर्गीय पेशवा व सवाई जयसिंह के बीच भ्रातृत्व स्थापित हो गया था।

पेशवा भी यथासंभव जयसिंह को नाराज करना नहीं चाहता था। इसीलिए जब होल्कर ने रामपुरा व बून्दी से बकाया राशि मिलने मिलने में विलंब होने के कारण उन क्षेत्रों में लूटमार की तो पेशवा ने उसे फटकारा और होल्कर को लिखा कि क्या उसे (होल्कर को)मालूम नहीं कि जयसिंह से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये रखना आवश्यक है, क्योंकि उसी के (जयसिंह के) मार्फत बादशाह से बातचीत चल रही है।

पेशवा ने होल्कर को रामपुरा में, जो जयसिंह के उत्तराधिकार क्षेत्र में था, किसी प्रकार की गङबङ न करने का आदेश दिया। तत्पश्चात मार्च, 1741 ई. में पेशवा जयसिंह से बातचीत करने के लिये पूना से रवाना हुआ। किन्तु इसी बीच होल्कर ने धार प्रदेश पर अधिकार कर मालवा में भयंकर लूटमार की।

अतः बादशाह ने क्रुद्ध होकर जयसिंह को शीघ्र ससैन्य आगरा पहुँचने का आदेश दिया तथा इलाहाबाद के सूबेदार अमीरखाँ व अवध के सूबेदार व मंसूर अलीखाँ को जयसिंह से मिलने का आदेश दिया। ऐसी स्थिति में पेशवा ने अमीरखाँ व मंसूर अलीखाँ को जयसिंह से मिलने से रोकने के लिये एक छोटी सी घुङसवार सेना भेज दी।

इसलिए वे दोनों सूबेदार आगरा नहीं पहुँच सके। इसी बीच जयसिंह ने पेशवा से मिलने का समय और स्थान निश्चित कर लिया। फलस्वरूप पेशवा और जयसिंह की भेंट धौलपुर में हुई। 18 मई, 1741 ई. तक पेशवा धौलपुर में ही रहा और जयसिंह से समझौते की बातचीत की। अंत में दोनों के बीच एक समझौता हो गया, जिसकी शर्तें इस प्रकार थी-

धौलपुर का समझौता की शर्तें

  • पेशवा को मालवा की सूबेदारी दे दी जायेगी, किन्तु पेशवा को यह वायदा करना होगा कि मराठा मुगल क्षेत्रों में उपद्रव नहीं करेंगे।
  • पेशवा 500 सैनिक बादशाह की सेवा में रखेगा और आवश्यकता पङने पर पेशवा 4,000 सवार और बादशाह की सहायतार्थ भेजेगा जिसका खर्च मुगल सरकार देगी।
  • पेशवा को चंबल के पूर्व व दक्षिण के जमींदार से नजराना व पेशकश लेने का अधिकार होगा।
  • पेशवा बादशाह को एक पत्र लिखेगा जिसमें बादशाह के प्रति वफादारी और मुगल सेवा स्वीकार करने का उल्लेख होगा।
  • सिन्धिया और होल्कर भी यह लिखकर देंगे कि यदि पेशवा, बादशाह के प्रति वफादारी से विमुख हो जाता है तो वे पेशवा का साथ छोङ देंगे।
  • भविष्य में मराठे, बादशाह से धन की कोई नयी माँग नहीं करेंगे।

सवाई जयसिंह की सलाह से बादशाह ने 4 जुलाई, 1741 ई. को उक्त समझौते के आधार पर फरमान जारी कर दिया, जिससे बादशाह की मान प्रतिष्ठा भी बनी रही और शाही समर्पण भी छिपा रहा। परंतु धौलपुर का समझौता मराठों की आकांक्षाओं की पूर्ति में बाधक था।

इस समय जबकि मुगल साम्राज्य दिनों-दिन जीर्ण-शीर्ण होता जा रहा था। मराठे साम्राज्य के अधिक से अधिक भागों पर अपना अधिकार करना चाहते थे। ऐसी स्थिति में मराठों व मुगलों के बीच कोई भी समझौता स्थायी नहीं हो सकता था। समझौते के अनुसार पेशवा को मुगल क्षेत्रों में मराठों की लूटमार रोकनी चाहिये थी, किन्तु पेशवा ने ऐसा नहीं किया।

पेशवा ने अपने प्रतिद्वन्द्वी रघुजी भोंसले को जब पूर्वी भारत में पराजित किया तब शाहू ने सुलह करवाने के उद्देश्य से एक समझौता करवाया, जिसके अनुसार बरार से कटक तक का प्रदेश, बंगाल व लखनऊ भोंसले के अधिकार क्षेत्र मान लिये गये तथा इसके पश्चिम का प्रदेश – आगरा, अजमेर, प्रयाग, मालवा आदि पेशवा के प्रभाव क्षेत्र मान लिये गये। इस समझौते द्वारा धौलपुर का समझौता स्वयमेव भंग हो गया।

जयसिंह के अथक परिश्रम से पेशवा और मुगल सरकार के बीच जो सम्मानजनक समझौता हुआ था, वह परिवर्तित राजनैतिक स्थिति के दबाव तथा शाहू और पेशवा की उत्तरदायित्वहीनता के कारण टूट गया। 1742 ई. में जब जयसिंह ने अयामल के द्वारा पेशवा को शिकायत करवायी कि सिन्धिया, कोटा से एक लाख बीस हजार रुपये के स्थान पर दो लाख चालीस हजार खण्डनी के रूप में माँग रहा है, तब पेशवा ने उत्तर दिया कि कोटा राघोजी और महादजी के तालुके में है।

इसलिए यह मामला उनका है। वर्तमान पेशवा के पिता बाजीराव के समय जयसिंह को इस प्रकार का उत्तर कभी नहीं मिला था। किन्तु बाजीराव के बाद मराठों की नीति में कभी स्थिरता नहीं रही। इसका मुख्य कारण यह था कि मराठा संघ में पेशवा की सर्वोच्चता अब दिनों दिन क्षीण होती जा रही थी, जिससे मराठा सरदारों पर पेशवा का नियंत्रण भी कमजोर होता जा रहा था।

पेशवा के प्रमुख सेनानायक, वेशेषकर सिन्धिया और होल्कर इतने शक्तिशाली हो गये थे कि वे अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु स्वतंत्र नीति का अवलंबन करते हुये मराठा संघ के हितों को आघात पहुँचाने में जरा भी नहीं हिचकिचा रहे थे। मराठों की कभी शांत न होने वाली धन-लिप्सा ने भी मराठों की नीति को अस्थिर बना दिया था। धन वसूल करने के मामले में उन्होंने अपने राजपूत मित्रों का भी कभी लिहाज नहीं किया।

फलस्वरूप मराठों को आगे चलकर इसकी भारी कीमत चुकानी पङी। पानीपत के तीसरे युद्ध में उन्हें किसी भी राजपूत राज्य तथा उत्तरी-भारत के किसी शासक से कोई सहायता नहीं मिली, जिससे उन्हें अपमानजनक पराजय का मुँह देखना पङा

नादिरशाह के लौट जाने के बाद राजस्थानी शासकों में आपसी युद्ध का आरंभ हो गया। नागौर के बख्तसिंह और बीकानेर के महाराजा जोरावरसिंह के बीच पिछले कई वर्षों से मतभेद चले आ रहे थे। जोधपुर के महाराजा अभयसिंह ने अपने भाई का पक्ष लेकर बीकानेर पर चढाई कर दी। सवाई जयसिंह, अभयसिंह से नाराज था, क्योंकि शाही दरबार की राजनीति में अभयसिंह, करमरुद्दीनखाँ के गुट का समर्थक था।

अतः जोरावरसिंह के द्वारा सहायता माँगने पर जयसिंह ने तुरंत जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि जुलाई 1740 ई. में अभयसिंह ने जयसिंह से संधि करके उस समय तो उसे वापिस लौटा दिया, किन्तु अब वह जयपुर पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगा। ज्योंही जयसिंह को इसकी सूचना मिली, जयसिंह ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। जयसिंह का सामना करने के लिये बख्तसिंह जोधपुर की सेना लेकर आगे बढा।

पुष्कर से 11 मील उत्तर-पूर्व में गंगवाणा नामक स्थान के पास 11 जून, 1741 ई. में दोनों पक्षों में भीषण युद्ध हुआ। युद्ध के प्रारंभ में बख्तसिंह के भीषण प्रहार से जयपुर की सेना के पाँव उखङ गये, किन्तु शीघ्र ही बख्तसिंह के एक तीर व गोली लगने के कारण उसे युद्ध मैदान छोङना पङा, जिससे जयपुर की सेना की स्थिति पुनः संभल गयी। अंत में उदयपुर के महाराणा ने बीच-बचाव करके दोनों में संधि करवा दी।

किन्तु जोधपुर के राठौङ अपने अपमान को नहीं भूल सके और उन्होंने मुगल बादशाह पर, हस्तक्षेप करने हेतु दबाव डाला। 5 अगस्त, 1743 ई. को बादशाह ने एक फरमान जारी कर जोधपुर व जयपुर के तनावपूर्ण संबंधों पर चिन्ता प्रकट की और जयसिंह को बातचीत के लिये दिल्ली बुलाया। किन्तु 21 सितंबर, 1743 ई. को जयपुर में सवाई जयसिंह की मृत्यु हो गयी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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