इतिहासतुगलक वंशमध्यकालीन भारत

फिरोजशाह तुगलक का इतिहास

फिरोजशाह तुगलकराजनीति एवं आर्थिक विकेंद्रीकरण 20 मार्च 1351 में मुहम्मद तुगलक की थट्टा (सिंध) में मृत्यु के बाद उसका चचेरा भाई फिरोजशाह तुगलक दिल्ली का सुल्तान बना। मुहम्मद तुगलक के खोए हुए प्रदेशों को वापस लेने का मामूली सा प्रयास किया गया। इस उद्देश्य से बंगाल तथा सिंध में सैनिक अभिया भेजे गए जब कि दक्षिण में स्वतंत्र मदुरा, बहमनी तथा विजयनगर राज्य को वापस लेने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया। इस दृष्टि से फिरोजशाह का प्रशासन कमजोर निकला। इस कमजोरी पर पर्दा डालने के लिये उलेमा वर्ग को प्रसन्न रखा गया जिन्होंने धीरे-धीरे संकुचित हो रहे साम्राज्य की बात न करके फिरोजशाह के सैंतीस वर्षों को शांति तथा समृद्धि का काल माना, हालाँकि यह समृद्धि केवल एक दिखावा मात्र थी। फिरोजशाह के राज्यकाल के अंतिम चरण में गंभीर राजनीतिक तथा आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया तथा उसकी मृत्यु के कुछ वर्ष बाद विशाल तुकलक साम्राज्य छिन्न-भिन्न होकर कई स्वतंत्र राज्यों में बँट गया।

जिन परिस्थितियों में फिरोजशाह तुगलक गद्दी पर बैठा था वे आने वाले समय का सूचक थी। बरनी का मत हि कि मुहम्मद तुगलक ने फिरोजशाह को सुल्तान के लिये नामजद किया था तथा वही उसकी दृष्टि में इस पद के योग्य था, सही प्रतीत नहीं होता। सिंध में मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के समय जो अमीर शाही खेमे में थे वे तय नहीं कर पाए थे कि गद्दी किसको मिलेगी। अंततः यह फैसला किया गया कि सेना दिल्ली की ओर प्रस्थान करे जहाँ नया सुल्तान विधिवत नियुक्त होगा। इससे पता चलता है कि सुल्तान के कोई लङका नहीं था और न ही उसने किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। कहते हैं कि इस परिस्थिति में उलेमा वर्ग के कुछ लोगों ने फिरोजशाह से धार्मिक रियायतों का वायदा ले लिया। इसके बाद अमीर तथा उलेमा वर्ग, दोनों ने फिरोज तुगलक को सुल्तान बनाने का निर्णय स्वीकार कर लिया। सुल्तान ने सिंध से लेकर दिल्ली तक के मार्ग में आने वाली मस्जिदों, दरगाहों तथा खानकाहों को दिल खोलकर धार्मिक अनुदान दिए। उलेमा वर्ग नए सुल्तान के पक्ष में हो गया। दिल्ली में मुहम्मद तुगलक के निकट संबंधियों द्वारा उत्तराधिकार के प्रश्न पर विद्रोह को सुगमता से दबा दिया गया। दिल्ली की सल्तनत सँभालते ही उसने फिरोजशाह मलिक मकबूल को अपना वजीर बनाया तथा दोनों ने मुहम्मद द्वारा उत्पन्न की गयी मुसीबतों को समाप्त करने का प्रयास किया। जिन लोगों को सरकार के कर्ज चुकाने थे वे कर्ज समाप्त कर दिए गए। लोगों से दिवंगत सुल्तान के लिए माफीनामे लिखवाए गए ताकि उसकी आत्मा को शांति मिले। उपज के अनुसार लगान तय किया गया। खून खराबा तथा अत्याचार को समाप्त करने की आज्ञा दी गई। फिर सरकारी पदों को भी वंशानुगत कर दिया गया। इस तरह जहाँ तक हो सका सभी वर्गों के लोगों पर सरकारी नियंत्रण में ढील दे दी गयी। शायद इन्हीं बातों से प्ररित होकर समकालीन इतिहासकार फिरोजशाह के काल को समृद्धि का समय मानते हैं। उनके अनुसार आवश्यक वस्तुओं के दाम कम थे। दैवी कृपा से कोई अकाल तथा महामारी नहीं फैली और न ही एक घटना के अलावा सुल्तान के विरुद्ध कोई षङयंत्र हुआ। किन्तु इसके विपरीत इन्शा-ए-माहरु के पत्रों से पता चलता है, कि वंशानुगत पदों पर विराजमान अमीर तथा अफसर किसी को हानि तो नहीं पहुँचाते थे किंतु वे केवल सरकार को लूटते थे। चारों तरफ भ्रष्टाचार व्याप्त था जिस पर काबू पाने कि लिये सुल्तान ने कोई प्रयास नहीं किया। बल्कि उसने आँखे बंद कर ली तथा उसे इस बात पर गर्व हो गया था कि वह किसी को नाजायज सजा नहीं दे रहा है और न ही किसी मुसलमान का खून बङा रहा है। योग्य प्रशासन की अनदेखी करके उलेमा वर्ग को रियायतें देना, सैनिक अफसरों के कार्यों में न्यूनतम हस्तक्षेप करना शायद लोगों की सुल्तान के प्रति वफादारी का कारण रहा हो। किंतु ये कारण ही तुगलक साम्राज्य के पतन के लिये भी उत्तरदायी थे।

फिरोज तुगलक ने कोई भी सैनिक अभियान साम्राज्य के विस्तार के लिए नहीं किया। जो भी आक्रमण साम्राज्य के बाचव के लिए किए गये उमें भी सुल्तान तथा उनकी सेना की दुर्बलता स्पष्ट रूप से नजर आती है। जब बंगाल के इलियास शाह को सजा देने के लिये सैनिक कार्यवाही की गयी तो किले पर विज पाने से ही सुल्तान ने घोषणा कर दी कि वह और किसी मुसलमान का खून नहीं बहा सकता क्योंकि ऐसा करने से उसमें तथा असभ्य मंगोलों के बीच क्या अंतर रहेगा। परिणामस्वरूप सुल्तान 1354 में वापस लौट आया। इस कार्यवाही से बंगाल के शासक का साहस बढ गया। 1359 में जब जफर खाँ ने, जो बंगाल के शासक से बचकर समुद्र के रास्ते सिंध तक पहुँच गया था और जिसने फोरज तुगलक से सहायता के लिए अपील की थी, तब एक और अभियान भेजा गया। यद्यपि इस सैनिक कार्यवाही से कुछ प्रदेश सुल्तान के पास आ गए तथापि सैनिक दृष्टि से इसे सफल नहीं कहा जा सकता। फिर भी इस अभियान के दो और महत्त्वपूर्ण परिणाम देखे जा सकते हैं – जौनपुर शहर की स्थापना तथा फिरोजशाह द्वारा अपने लङके फतह खाँ को उत्तराधिराकी नामजद करना और सिक्कों में अपने नाम के साथ उसका नाम भी अंकित करना। फिरोज तुगलक के अंतिम वर्षों में इसी बात पर बहुत गङबङी रही। बंगाल से सीधे दिल्ली लौटने के बजाय फिरोजशाह बिहार के रास्ते जाजनगर (उङीसा) पहुँचा तथा धार्मिक वर्ग से प्रशंसा प्राप्त करने के लिए पुरी में जगन्नाथ मंदिर को हानि पहुँचाई। उसी बीच कुछ छोटे-छोटे हिंदू राजाओं ने सुल्तान की अधीनता भी स्वीकार कर ली।

नगरकोट कांगङा के नए राय ने सुल्तान को भेंट देना बंद कर दिया। अबुल फजल ने इस मत की पुष्टि की है कि काँगङा का दुर्ग मध्य युग में अजेय था। इसे 1331 में मुहम्मद तुगलक ने एक बार जीता था। फिरोज तुगलक के आक्रमण का उद्देश्य नए राय को वफादारी सिखाना था।छह महीने तक किले का घेरा डाले रखा गया। विवश होकर राय ने अधीनता स्वीकार कर ली तथा भेंट देने का चन दिया। सुल्तान ज्वालामुखी मंदिर से संस्कृत के कुछ पुराने दस्तावेज लेकर दिल्ली लौट गया।

सुल्तान के गवर्नर आइन-ए-मुल्क-माहरु की इस शिकायत पर सिंध का जाम (सिंध का शासक) मंगोलों को सहायता दे रहा है तथा उनको सल्तनत के विरुद्ध भङका रहा है(सिंध की विद्रोही प्रवृत्तियों से वह सुल्तान मुहम्मद तुगलक के समय से परिचित था), फिरोजशाह ने जाम के विरुद्ध आक्रमण का आदेश दिया। अफीफ के अनुसार सल्तनत के इतिहास में यह सर्वाधिक कुव्यवस्थित सैनिक अभियान बन गया। सिंधियों द्वारा बेहतर रक्षात्मक तरीके अपनाए गए। इसके विपरीत सुल्तान की सेना में महामारी फैलने से लगभग तीन-चौथाई घुङसवार सेना को विवश होकर गुजरात आना पङा। भागते हुए सैनिकों का सिंधियों ने पीछा किया और यह कहावत प्रसिद्ध हो गयी, – देखो शेख प्रथा (सूफी इब्राहीमशाह आलम) का कमालू, एक तुगलक (मुहम्मद तुगलक) मर गया, दूसरे को जरा सँभाल। यहाँ तक कि जिन सिंधी पथ प्रदर्शकों पर विश्वास किया गया था उन्होंने ही सुल्तान को रास्ते में धोखा दिया। सुल्तान गुजरात पहुँचने के बजाए कच्च के दलदल में फँस गया। जैसे-तैसे वह गुजरात पहुँचा और फिर बहादुरी की बातें करने लगा। एक बार फिर सैनिक कार्यवाही की गयी। इस बार तुगलक सेना सफल हुई किंतु सिंध के जाम ने सुल्तान की धार्मिक कमजौरी का लाभ उठाया तथा उच्च के सूफी सैयद हुसैन बुखारी से मध्यस्थता के लिये प्रार्थना की। समझौते की शर्तें कुछ हद तक जाम के पक्ष में गई। निचले सिंध की सरकार जाम के लङके तथा भाई को दे दी गयी तथा इसके बदले में उन्होंने चार लाख टंका भेंट दी और भविष्य में भी ऐसी भेंट देना का वायदा कियी। किंतु सिंध पर तुगलक प्रशासन का नियंत्रण प्रायः समाप्त होता गया। दो-ढाई वर्ष (1365-67) की अनुपस्थिति के बाद फिरोजशाह दिल्ली वापस आ सका। उसके वजीर खान-ए-जहाँ की स्वामिभक्ति प्रशंसनीय है क्योंकि वह अमीरों को झूठ-मूठ सांत्वना देता रहा कि सुल्तान सिंध में विजय के ऊपर पुनर्विजय प्राप्त कर रहा है।

फिरोजशाह ने दिल्ली पहुँचते ही एक महत्वपूर्ण घोषणा की – सभी अफसर जो सिंध अभियान में मारे गए हैं उनकी जागीरें उनके उत्तराधिकारियों के नाम बगैर शर्त के और स्थायी तौर पर प्रदान कर दी गयी हैं। वे सिपाही जिन्होंने गुजरा में खाजने से साठ प्रतिशत वेतन लेकर भी मुझे छोङ दिया तथा दिल्ली भाग आए उनके वेतन अथवा जागीर भी जारी रखी गई क्योंकि मैं नहीं चाहता कि किसी को भी शिकायत का मौका मिले। अफीफ इसकी पुष्टि में लिखता है, कि यद्यपि फिरोजशाह ने अलाउद्दीन खिलजी तथा मुहम्मद तुगलक की नीतियों तथापि राज्य की आर्थिक स्थिति ठीक रही। ऐसा लगता है, कि वेतन को निश्चित लगान से काटकर (जिनकी कीमत टंके या जीतल में आँक ली जाती थी) शेष लगान का हिस्सा राज्य को मिलता रहा। यह भी हो सकता है कि सभी सैनिकों को वेतन जागीर के रूप में न दिया गया हो, नहीं तो आर्थिक विनाश बहुत पहले हो सकता था। सरकारी पदों को वंशानुगत करना तथा अधिकतर सैनिकों के वेतन के बदले जागीर देना कुछ ऐसे कार्य थे जिससे भ्रष्टाचार को बढावा मिला तथा सैनिक शक्ति प्रायः समाप्त हो गयी। एक ऐसा आर्थिक ढाँचा बन गया जिसमें तुगलक साम्राज्य का स्थायी रूप से कायम रहना प्रायः असंभव हो गया।

दिल्ली सल्तनत की नींव शक्तिशाली सेना पर रखी गयी थी। अलाउद्दीन खिलजी तथा मुहम्मद तुगलक ने सेना ने सेना को योग्य तथा सशक्त बनाने तथा उसमें अनुशासन लाने के लिये अर्ज द्वारा आवश्यक जाँच का नियम बना रखा था। सीमा प्रांत में दुर्ग बनवाए गए। सुल्तान स्वयं आंतरिक विद्रोहों तथा विदेशी आक्रमणों का सामना करने के लिये सेना की विस्मयकारी शक्ति पर निर्भर थआ। सैनिकों की हुलिया रखने तथा घोङों को दागने की प्रथा थी और सैनिकों को वेतन भी प्रायः नगदी में मिला करता था। फिरोजशाह ने सैनिकों के पदों को वंशानुगत बनाकर सैनिकों की योग्यता की जाँच करने के सरकारी मौलिक अधिकार को भी तिलांजलि दे दी। इसका प्रभाव तत्काल तो नहीं पङा किंतु आने वाले समय में विनाशकारी हो गया। लगान से वेतन प्राप्त करने वाला नियुक्तिपत्र (इतलाकनामा) लेकर जब कोई सैनिक लगान वसूल कर रहे कर्मचारियों के पास जाता था तो उसको केवल पचास प्रतिशत लगान मिलता था। शेष पचास प्रतिशत सरकारी खर्चे के लिये छोङ दिया जाता था। कितनी बार सैनिक के कहीं और जाने पर ऐसे इतलाकनामें दलालों को तीस प्रतिशत पर बेच दिए जाते थे जो बीस प्रतिशत लाभ अपने पास रख लेते थे। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि सैनिकों के लङके सैनिक न रहकर लगान वसूल करने वाले पेंशनयाफ्ता बनकर रह गए। हालात यहाँ तक पहुँच गए कि फिरोजशाह की मृत्यु के बाद लगान प्राप्त करना कठिन हो गया क्योंकि लगान वसूली प्रायः सैनिक शक्ति के कारण होती थी और वह शक्ति अब गायब हो गयी थी। इतलाकनामे रद्दी के कागज बन गये जिनकी रक्षा करने में केंद्रीय सेवा में लगभग 80,000 सैनिक थे। किंतु उनको मालूम था कि सुल्तान का किसी भी प्रकार दिल्ली के बाहर सैनिक कार्रवाई करने का कोई इरादा नहीं है। इन सैनिक अफसरों ने घटिया घोङों को (जो संख्या में बहुत कम थे) रिश्वत देकर पास करवा लिया। ठीक यही दशा हथियारों तथा घोङों से संबंधित थी। कभी-कभी जब यह सूचना दी गयी कि घोङे निश्चित संख्या में नहीं आ पाए हैं तब सुल्तान ने उनके लिये महीनों का समय और बढा दिया। सैनिकों को यह बहाना मिल गया कि उन्हें अपनी जागीरों में वेतन की लगान वसूली के लिए दूरदराज के गाँवों में जाना पङता है। इसलिए वे अपने घोङे अगले साल ला सकेंगे।

उपलब्ध साक्ष्यों से ऐसा जान पङता है कि फिरोजशाह के राज्यकाल में व्याक भ्रष्टाचार था। अफीफ के अनुसार सुल्तान का वजीर खान-ए-जहाँ मकबूल स्वयं ईमानदारी के लिये प्रसिद्ध था किंतु ऐसा वजीर भी भ्रष्टाचार को रोकने में असमर्थ था। प्रायः सभी अफसर रिश्वतखोर थे। इमाद-उल-मुल्क बशीर मुल्तानी ने भ्रष्ट तरीकों से असीम दौलत जमा कर ली थी। यही दौलत फिरोजशाह की मृत्यु के बाद उसके दासों के बीच झगङों तथा षङयंत्रों का कारण बनी। सरकारी पदों का दुरुपयोग इतना बढ गया कि जिन करों को गौर इस्लामी कहकर समाप्त किया गया था, अमीर उन्हीं करों को दुबारा लगा देते थे। फिर भी केंद्रीय सरकार ने इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं की। अफीफ एक ऐसे घुङसवार का जिक्र करता है जिसे सुल्तान ने अपने खजाने से एक टंका दिया ताकि वह रिश्वत देकर अर्ज में अपने घोङे पास करवा सके। सामान्यतः भ्रष्टाचार का स्वरूप इस तरह का बन गया था कि छोटे अफसर रिश्वत लेकर बङे अफसरों को कुछ हिस्सा भेज देते थे। एक अनुमान के अनुसार फिरोज सरकार की वार्षिक आय छह करोङ पचहत्तर लाख टंका थी जब कि अकेले सेना मंत्री बशीर (जिसने अपना प्रारंभिक दौर सुल्तान के एक दास से प्रारंभ किया था) के पास तेरह करोङ टंका धन दौलत थी। उसे रापरी का अक्ता मिला हुआ था किंतु वजीर को उसके प्रतिनिधि से फालतू लगान सँभालने का साहस नहीं था। इस अमीर की सिफारिशों को सुल्तान सहर्ष स्वीकार करता था। प्रत्येक बङे अमीर को चार लाख से छह लाख टंका लगान आय की जागीर प्राप्त थी। कभी-कभार तो यह बशीर पद तथा जागीर प्राप्त करने के लिये बोली भी देते थे, जैसे गुजरात की नियाबत (उपराज्यपाल) के लिए अबूरिजा जिया – उल- मुल्क तथा शम्सी दमगानी में बोली देने का मुकाबला हो गया। दमगानी ने लगान से चालीस लाख टंका अधिक की बोली दी। इन नीलामियों से इजारेदारी को बढावा मिला तथा आर्थिक दशा खराब होती गयी।

यह भी सच है कि इसी काल में भवन निर्माण कला को भारी प्रोत्साहन मिला तथा सुल्तान ने कई परोपकारी कार्य किए जिससे उसकी प्रजा तथा उलेमा वर्ग प्रसन्न रहे। पुराने भवनों की मरम्मत की गयी, कुछ नए मदरसे तथा मस्जिदों बनवाई गयी। कुछ नए शहर जैसे हिसार, फिरोजाबाद (दिल्ली) तथा जौनपुर आदि बसाए गए। सौ लाख टंका गरीब किसानों में बाँटा गया ताकि वे अपनी भूमि को आबाद कर सकें। अफीफ के अनुसार उसका लाभ मात्र मुसलमानों को ही नहीं, वरन हिंदुओं को भी मिला। अस्पताल(शफाखाना) तथा गरीबों के लिये दीवान-ए-खैरात से पैसे का प्रबंध किया गया। तोपरा तथा मेरठ से अशोक स्तंभ लाकर दिल्ली में रखे गये। प्रशासन की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हाँसी तथा सिरसा के क्षेत्रों में पानी की कमी दूर करने के लिये नहरों की खुदाई थी। एक नहर सतलज नदी से दीपालपुर के पास तथा दूसरी यमुना नही से सिरमूर के पास खुदवाई गई। यद्यपि इसके पानी से शाही महल (कुशल) की आवश्यकता पूरी की गयी तथापि इन नहरों से 180 मील पूर्व पंजाब के प्रदेश को सिंचित किया गया। साथ ही उपज वृद्धि तथा अकाल से निपटने के लिये ठोस नीति अपनाई गई। किंतु ये परोपकारी शौक बहुत खर्चीले सिद्ध हुए। अफीफ के अनुसार अकेले भवनों पर ही लाखों टंका खर्च किया गया।

उलेमा वर्ग को धार्मिक अनुदान दिए गये। उङीसा से वापस आने पर एक बार छत्तीस लाख टंके का अनुदान शेखों तथा आलिमों में वितरित किया गया। परिणाम यह हुआ कि उलेमा वर्ग का साहस बढता गया। उन्होंने प्रशासन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप आरंभ कर दिया। मुल्तान का गवर्नर आइन-उल-माहरु अपने पत्रों में लिखता है कि लोग अपनी शिकायतें उसे न भेजकर मौलवियों को भेजते हैं और ये मौलवी मुझसे स्पष्टीकरण माँगते हैं। अफीफ भी लिखता है कि सुल्तान अंतिम 15 वर्षों में अधिक कट्टर हो गया था। सुल्तान ने शरीअत के अनुरूप प्रशासन चलाने के लिये निम्नलिखित कदम उठाए – क.) ब्राह्मणों पर भी जजिया लगा दिया गया ख.) शिया मत के नेताओं को मृत्युदंड दिया गया ग.) गैर-इस्लामी सजाएँ समाप्त कर दी गयी घ.) गैर शरीअत कर हटा दिए गए। इनके स्थान पर केवल चार मुख्य कर रखे गए, विशेषतया खराज (भूमिकर), जकात (मुसलमानों से लिया जाने वाला आय के अनुसार कर), खुम्स (लूट के माल का कुछ हिस्सा सैनिकों में बाँटना) तथा जजिया (गैर मुसलमानों से लिया गया कर) । यह कहना ठीक नहीं होगा कि शेष कर बिल्कुल समाप्त कर दिए गए थे। सभी अमीर करों को वसूल करते रहे तथा सुल्तान ने अपनी आज्ञा की अवज्ञा को देखते हुए भी आँखें बंद कर ली।

दासों की संख्या में असाधारण वृद्धि भी तुगलक साम्राज्य की राजनीतिक तथा आर्थिक विघटन का कारण बनी। फिरोजशाह ने यह नियम बनाया था कि वली तथा अमीर जो उपहार सुल्तान को दें उसकी कीमत आँकी जाए। इस मूल्य को अमीरों द्वारा शाही खजाने में भेजे जाने वाले अतिरिक्त लगान में से कम कर दिया जाए। धीरे-धीरे सुल्तान को दास भी उपहार के रूप में भेजे जाने लगे क्योंकि अधिक से अधिक लोगों को रोजगार देने के आदर्श को सुल्तान पसंद करता था। प्रत्येक गवर्नर उपहार में अधिक से अधिक दास भेजने लगा। यहाँ तक कि इनकी संख्या 1,80,000 तक पहुँच गई। यह भी हो सकता है कि सभी पदों को वंशानुगत करने पर सुल्तान को शायद ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता पङी हो जो उसके प्रति सदैव वफादार रह सकें तथा उनमें कुछ गिने-चुने योग्य व्यक्ति उसके अंगरक्षक के रूप में काम कर सकें। सभी दासों को वेतन तथा कोई न कोई पद दिया गया। कई दासों को अमीरों द्वारा पालन-पोषण किए जाने के लिये उनके सुपुर्द कर दिया गया। दासों के लिये एक अलग विभाग खोला गया तथा उन पर खर्चे के लिये अलग खजाना रखा गया। प्रत्येक दास को 10 से 100 टांके के बीच तक वेतन मिलता था तथा कभी-कभी जागीरें भी मिलती थी। कोई 12,000 दासों को छत्तीस शाही कारखानों में रखा गया, किंतु इन कारखानों में भी भ्रष्टाचार बढ गया था। अफीफ के अनुसार फिरोजशाह के अङतीस वर्षों में शायद ही किसी कारखाने के हिसाब-किताब की जाँच की गयी हो। अल मुहासिब बङे-बङे अफसरों द्वारा छिपाए गए माल की रिश्वत लेकर अनदेखी कर देते थे। कुल मिलाकर 40,000 दास हर समय सुल्तानों के महल में सेवारत थे। इनके दर्जे को बहुत ऊँचा कर दिया गया था। अधिकतर दास स्वार्थी तथा अवसरवादी बन गए थे। सुल्तान के अंतिम काल में उन्होंने दरबार में कई षङयंत्र रचाए तथा फिरोजशाह की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर कई दासों ने शाही खानदान के राजकुमारों की भी हत्या कर दी और उनके सिर दरबार के दरवाजों पर लटका दिए। ऐसी स्थिति के कारण सुल्तान का परोपकारी कदम सल्तनत के लिये एक अभिशाप बन बैठा।

इस प्रकार 48 वर्ष के लंबे राज्यकाल में फिरोजशाह ने जो तरीके अपनाए उनमें राजनीतिक बुद्धिमता की कमी रही। दक्षिण सदैव के लिये तुगलुक साम्राज्य से अलग हो गया। बंगाल तथा सिंध पहले की तरह विद्रोही रहे। आगे चलकर तो विशाल साम्राज्य के साथ-साथ विशाल सशस्त्र सेना भी लुप्त हो गयी। फिरोजशाह तुगलक के खर्चे आय से अधिक बढ चुके थे, क्योंकि आय का मुख्य स्त्रोत अमीरों तथा सैनिकों के पास चला गया था।

सन् 1388 में फीरोजशाह की मृत्यु पर उत्तराधिकार के लिये युद्ध छिङ गया। सुल्तान के बाद सुल्तान आने लगे। दशा बिगङती गयी। 1394 ई. तक कन्नौज से पूर्व का भाग भी तुगलक नियंत्रण से निकल गया। मलिक सरकार ने अनुशासन लाने का प्रयास किया किंतु हताश होकर उसने भी जौनपुर में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। उत्तर में खोखरों के विद्रोह हुए। मालवा तथा खानदेश भी स्वतंत्र हो गये। रही-सही कसर 1398 में अमीर तैमूर के आक्रमण ने पूरी कर दी। तुगलक सुल्तान को शरण के लिये गुजरात भागना पङा। तैमूर के लौट आने पर यह राज्य भी स्वतंत्र हो गया और इस प्रकार 1412 ई. तक तुगलक साम्राज्य का पूरी तरह से विघटन हो गया।

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