आधुनिक भारतइतिहास

इल्बर्ट बिल विवाद (ilbart bil vivaad)क्या था

रिपन उदारवाद का प्रतीक था। अतः 1882 ई. में उसने भारत सचिव के निर्देशानुसार रुङकी इंजीनियरिंग कॉलेज (Rungki Engineering College)में पढे हुए भारतीयों को ही सरकारी सेवा में लेने की व्यवस्था की। कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्याय़ाधीशों को समान वेतन देना निश्चित किया तथा कलकत्ता उच्च न्यायालय(Calcutta High Court) के मुख्य न्यायाधीश गार्थ के अवकाश पर जाने पर रमेशचंद्र मित्तर को मुख्य न्यायाधीश बना दिया। रिपन के इन कार्यों से भारत में रहने वाले अंग्रेजों में असंतोष उत्पन्न होने लगा। इस असंतोष का विस्फोट इल्बर्ट बिल ने कर दिया।

रिपन के आगमन तक भारतीय,प्रशासनिक एवं न्यायिक सेवाओं में आ चुके थे। भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत यूरोपियनों के मुकदमे केवल जस्टिस ऑफ पीस अथवा उच्च न्यायालय के यूरोपियन न्यायाधीश ही सुन सकते थे। प्रेसीडेन्सी नगरों(बंबई,कलकत्ता,मद्रास) को छोङकर किसी भारतीय न्यायाधीश को यूरोपियनों के मुकदमे सुनने का अधिकार नहीं था। रिपन इस भेदभाव को उचित नहीं समझता था।

अतः रिपन ने यह मामला विभिन्न प्रांतीय सरकारों तथा अपनी कौंसिल के सदस्यों के पास उनकी संपति के लिए भेजा। किसी ओर से इसका विरोध नहीं हुआ। तत्पश्चात् रिपन ने अपना प्रस्ताव भारत सचिव के पास भेजा और वहाँ भी इसका कोई विरोध नहीं हुआ।अतः रिपन ने अपनी कौंसिल के विधि सदस्य सर सी. पी. इल्बर्ट को इस विषय में एक विधेयक प्रस्तुत करने को कहा।इसलिए इसे इल्बर्ट बिल कहा जाता है।

इस बिल के अनुसार भारतीय सिविल सेवाओं तथा सांविधि सेवाओं के सदस्यों, सहायक कमिश्नरों और छावनी के मजिस्ट्रेटों को जस्टिस ऑफ पीस बनने का अधिकार दिया गया।

सत्र न्यायाधीशों एवं जिला न्यायाधीशों को पदेन जस्टिस ऑफ पीस बना दिया गया तथा सहायक सत्र न्यायाधीशों को तीन वर्ष कार्य करने के पश्चात् यूरोपियनों के मुकदमे सुनने का अधिकार दिया गया । इस बिल का मूल उद्देश्य भारतीय न्यायाधीशों पर लगे प्रजातीय प्रतिबंधों को हटाना था।

फरवरी, 1882 में यह बिल भारतीय धारा सभा में प्रस्तुत किया गया। किन्तु आंग्ल समाज ने इसका संगठित विरोध करना प्रारंभ कर दिया। भारत स्थित अंग्रेजों ने ब्रिटिश सरकार तथा समाचार-पत्रों को लिखा कि भारत में यूरोपियन स्त्रियों की दशा शोचनीय होती जा रही है।

एक अंग्रेज ने अपने जाति बंधुओं को संबोधित करते हुए कहा, क्या वे ऐसे देश में रहना पसंद करेंगे, जहाँ उनकी पत्नी को अपनी आया को एक थप्पङ मार देने के जुर्म में तीन दिन के कारावास की सजा दी जा सकती है ? रिपन का उसके ही देशवासियों ने हर प्रकार से बहिष्कार किया तथा यूरोपियन एवं एंग्लो-इंडियन प्रतिरक्षा संघ का गठन कर लिया।

रिपन जब शिमला से कलकत्ता आया तो उसका खुले रूप से अपमान किया गया। रिपन को ऐसी भयंकर स्थिति उत्पन्न होने की आशा नहीं थी। उसकी तो व्यक्तिगत मान्यता थी कि इस बिल द्वारा अपमान या अनादर का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि यह तो समानता का प्रतीक होगा। फिर भी अंग्रेजों ने इसका बङा व्यापक एवं संगठित विरोध किया जिसे सफेद विद्रोह की संज्ञा दी जाती है.

रिपन ने इस बिल से संबंधित कागजात इंग्लैण्ड की सरकार के पास भेजे और इंग्लैण्ड की सरकार ने रिपन का पूर्ण समर्थन किया। किन्तु कलकत्ता में अंग्रेजों का आंदोलन अत्यधिक भङक चुका था। आंदोलनकारियों ने यह भी षङयंत्र किया कि रिपन का अपहरण करके उसे बलपूर्वक जहाज में बिठा कर लंदन भेज दिया जाय। इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए डॉ.एस.गोपाल ने लिखा है, कलकत्ता शीघ्र ही एक ऐसा स्थान बन जायेगा, जहां अब वायसराय सुरक्षित नहीं रह सकेगा।

इस सफेद विद्रोह के विरुद्ध यद्यपि रिपन दृढ नीति का अवलंबन करना चाहता था, किन्तु उसकी कौंसिल के ही कुछ सदस्य आंदोलनकारियों के साथ समझौता करने की सोचने लगे।अतः विवश होकर रिपन को समझौता करना पङा तथा बिल को संशोधित किया गया, जिसके अनुसार यूरोपियन अपराधी पर अभियोग की सुनवाई सत्र न्यायाधीश अथवा मजिस्ट्रेट कर सकता था, चाहे वह भारतीय हो या यूरोपियन, किन्तु अपराधी को यह अधिकार होगा कि मुकद्दमे की सुनवाई में जूरी की मांग कर सके, जिसमें आधे सदस्य यूरोपीयन अथवा अमेरिकन नागरिक हों।

यह माँग केवल यूरोपियन अपराधी ही कर सकते थे। अतः उनकी स्थिति भारतीयों की अपेक्षा अच्छी रही।यद्यपि रिपन इल्बर्ट बिल को मूल रूप से पारित नहीं कर सका, फिर भी अप्रत्यक्ष रूप से ध्यान से देखा और उन्होंने संगठित होने का सबक सीख लिया।

इसी के परिणामस्वरूप समय-2 पर भारतीयों ने संगठित होकर प्रजातीय विभेद के विरुद्ध कई आंदोलनों की संचालन किया और 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस(Indian National Congress) की स्थापना हो सकी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

Related Articles

error: Content is protected !!