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भारतीय गणराज्य का निर्माण एवं राज्यों का पुनर्गठन

भारतीय गणराज्य

भारतीय गणराज्य का निर्माण (Formation of the Republic of India)

भारतीय संविधान का निर्माण – किसी भी देश का स्वरूप उसका संविधान तय करता है। द्वितीय महायुद्ध के दौरान मार्च, 1942 में जब केबिनेट मिशन भारत आया था, तो उसने कांग्रेस की इस माँग को स्वीकार कर लिया कि, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भारतीयों के प्रतिनिधियों की एक संविधान सभा बुलाई जाय और उसको भारत के लिए नया संविधान बनाने का अधिकार दिया जाय।

भारतीय गणराज्य का निर्माण -

तदनुसार जुलाई, 1946 में संविधान सभा के 210 सामान्य स्थानों और 78 मुस्लिम स्थानों के लिए चुनाव हुए। 9 दिसंबर, 1946 को इसकी बैठक होनी थी। परंतु मुस्लिम लीग ने इसमें भाग नहीं लिया। उसकी अलग संविधान सभा की माँग मान ली गयी। शेष सदस्यों की बैठक निर्धारित दिन पर शुरू हो गयी।

संविधान सभा के पास उस समय प्रभुसत्ता नहीं थी। यह ब्रिटिश संसद के पास थी। इशके सदस्यों का निर्वाचन प्रांतीय सभाओं ने किया था और बहुत सी देशी रियासतों ने संविधान सभा में अपने प्रतिनिधि भी नहीं भेजे थे। परंतु सरदार पटेल ने अपनी सूझबूझ से नरेशों को प्रतिनिधि भेजने तथा संविधान सभा द्वारा तैयार किये जाने वाले संविधान को मानने के लिए रजामंद कर लिया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अक्टूबर, 1947 में जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधि और नवंबर, 1948 में हैदराबाद के प्रतिनिधि भी शामिल हो गये। 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने स्वतंत्र भारत का नया संविधान पारित कर दिया जो 26 जनवरी, 1950 को लागू कर दिया गया। इस नये संविधान ने भारत में एक संपूर्ण-प्रभुत्वसंपन्न-लोकतंत्रात्मक-गणराज्य की आधारशिला रख दी। कालांतर में संविधान संशोधन के द्वारा भारत को प्रभुत्वसंपन्न-लोकतंत्रात्मक-धर्मनिरपेक्ष-समाजवादी-गणराज्य घोषित कर दिया गया।

संघात्मक स्वरूप

भारतीय गणराज्य की रचना में उसका संघीय स्वरूप महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। वैसे मोण्टफोर्ट सुधारों के साथ ही अंग्रेजों ने भारत में संघवाद की बात कहनी शुरू कर दी थी और 1935 के अधिनियम में संघ की व्यवस्था भी कर दी गयी थी। परंतु देशी नरेशों और कांग्रेस के मतभेदों के कारण उस समय संघीय व्यवस्था लागू नहीं की जा सकी। वस्तुतः उस समय ब्रिटिश सरकार भारत में बढते हुए राष्ट्रवाद को रोकना चाहती थी और देशी रियासतों को एक प्रतिक्रियावादी शक्ति के रूप में प्रयोग करना चाहती थी।

जब भारत स्वतंत्र हो गया तो यह दूरदर्शिता समझी गयी कि भारत में एकात्मक सरकार स्थापित न की जाय अपितु संघीय सरकार की व्यवस्था की जाय। इस बात का भारत के सभी लोगों ने स्वागत किया और जनमत का रुख देखकर देशी रियासतें भी संघ में सम्मिलित होने के लिए तैयार हो गयी।

इसलिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1 में भारत को राज्यों का एक संघ (यूनियन) बताया गया है न कि एक संघ, हालाँकि भारत में संघात्मक सरकार की स्थापना की गयी है। इस संबंध में यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि भारतीय संघ अपनी इकाइयों में हुए किसी समझौते की उपज नहीं है। यह तो भारतीय संविधान सभा में इकट्ठे हुए लोगों के प्रतिनिधियों की उत्पत्ति है।

इकाइयों अर्थात् राज्यों को केन्द्र से अलग होने का कोई अधिकार नहीं है और भारतीय यूनियन अविनाशी है। राज्यों और यूनियन – दोनों का संविधान एक ही है और दोनों को संविधान की मर्यादा में रहते हुए ही कार्य करना चाहिए।

गणराज्य की इकाइयाँ –

देशी रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल ने छोटी-बङी रियासतों को मिलाकर उनके संघ बनाए। जो देशी राज्य इस प्रकार के संघों में सम्मिलित होने के लिए तैयार नहीं हुए उनको या तो पङौसी प्रांतों में मिला दिया गया अथवा उनको केन्द्रीय क्षेत्र घोषित करके वहाँ का शासन प्रबंध सीधे केन्द्र ने अपने हाथों में ले लिया।

इस व्यवस्था के बाद स्वतंत्र भारत में चार प्रकार के राज्य बन गये। (संविधान में प्रांत शब्द को नहीं रखा गया है। भूतपूर्व ब्रिटिश प्रांतों और देशी रियासतों – दोनों के लिए राज्य शब्द का प्रयोग किया गया है, ताकि गणराज्य की इकाइयों में किसी प्रकार का भेदभाव दृष्टिगत न हो और समानता दिखलाई पङे।) चार प्रकार के राज्यों के लिए क्रमशः ‘क’, ‘ख’, ‘ग’, ‘घ’, श्रेणी का प्रयोग किया गया।

‘क’श्रेणी के राज्यों के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रदेशों को रखा गया

1.) असम, 2.) बिहार, 3.) बंबई, 4.) मध्यप्रदेश, 5.) मद्रास, 6.) उङीसा, 7.) पंजाब, 8.) उत्तर प्रदेश, 9.) पश्चिमी बंगाल।

‘ख’ श्रेणी के अन्तर्गत छोटे-छोटे देशी राज्यों से निर्मित संघ तथा कुछ बङी देशी रियासतों को रखा गया था। ये निम्नलिखित थे-

1.) हैदराबाद, 2.) जम्मू-कश्मीर, 3.) मध्यभारत, 4.) मैसूर, 5.) पटियाला तथा पूर्वी पंजाब की रियासतों का संघ (पेप्सू),6.) राज्सथान, 7.) सौराष्ट्र, 8.) ट्रावनकोर-कोचीन।

‘ग’ श्रेणी के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रदेशों को रखा गया-

1.) अजमेर, 2.) भोपाल, 3.) कुर्ग, 4.) दिल्ली, 5.) हिमाचल प्रदेश, 6.) कच्छ, 7.) विन्ध्यप्रदेश, 8.) मणिपुर, 9.) त्रिपुरा।

‘घ’ श्रेणी के अन्तर्गत अण्डमान एवं निकोबार द्वीपसमूह को रखा गया।

भारतीय गणराज्य के ये चारों श्रेणियों के राज्यों का स्तर एक समान नहीं था। क्षेत्रफल, जनसंख्या तथा आर्थिक संसाधनों की दृष्टि से उनमें भारी असमानता थी। अतः उनकी शासन व्यवस्था भी एकसदृश नहीं थी। केन्द्रीय सरकार ने ‘क’ और ‘ख’ श्रेणी के राज्यों में पूर्ण-उत्तरदायी सरकार की स्थापना की। ‘क’ श्रेणी के राज्यों में प्रमुख राज्यपाल होते थे। जबकि ‘ख’ श्रेणी के राज्यों के प्रमुख को राजप्रमुख कहा जाता था।

राजप्रमुख के पद पर देशी नरेशों की नियुक्ति होती थी। देशी नरेशों ने राज्यों के संघ बनाते समय ही यह समझौता कर लिया थआ कि किस राजवंश के नरेश को राजप्रमुख बनाया जायेगा। राजस्थान के एकीकरण के चौथे चरण में जब जयपुर को भी सम्मिलित किया गया तो जयपुर नरेश को राजप्रमुख बनाने का निश्चय किया गया।

परंतु चूँकि मेवाङ के राजवंश की प्रतिष्ठा सदियों से चली आ रही थी, अतः मेवाङ के महाराणा को आजीवन महाराजप्रमुख नियुक्त किया गया। यह एकमात्र उदाहरण है जहाँ ‘ख’ श्रेणी के राज्यों में शासन के सर्वोच्च पद पर राजप्रमुख के ऊपर महाराजप्रमुख के पद का सृजन किया गया था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि देशी रियासतों को भारतीय गणराज्य की इकाइयों में परिवर्तित करने के लिए किस प्रकार के राजनैतिक कौशल की जरूरत पङी होगी।

‘ग’ श्रेणी के राज्यों में कुछ नियंत्रित उत्तरदायी सरकार स्थापित की गयी। इन राज्यों में शासन व्यवस्था राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त लेफ्टिनेंट गवर्नर अथवा चीफ कमिश्नर द्वारा संचालित होती थी। ‘घ’ श्रेणी के राज्यों में कोई उत्तरदायी सरकार स्थापित नहीं की गयी। इनका प्रशासन सीधे केन्द्र के नियंत्रण में रखा गया।

एकीकरण तथा लोकतंत्रीकरण का महत्त्व

ब्रिटिश प्रांतों और नरेश राज्यों को मिलाकर जिस भारतीय गणराज्य की रचना की गयी, उससे देश की एकता के लिए जो खतरा ब्रिटिश सरकार ने उत्पन्न कर दिया था, उसे सरदार पटेल तथा कुछ प्रगतिशील नरेशों ने मिल-जुलकर दूर किया और भारतीय गणराज्य को ठोस आधार प्रदान किया इस संदर्भ में सरदार पटेल ने कहा था, भारत की भौगोलिक, राजनैतिक और आर्थिक एकता का जो आदर्श शताब्दियों तक दूर का स्वप्न रहा और स्वतंत्रता के बाद भी वैसा ही दूर और कठिनता से प्राप्त होने वाला प्रतीत होता था, अब वह पूर्ण रूप से प्राप्त हो गया है।

यह परिवर्तन इतने कम समय में और इतनी शीघ्रता से हुआ कि स्वयं पं. जवाहरलाल नेहरू के लिए भी आश्चर्य की बात रही। माइकल ब्रेचर ने इसके महत्त्व का उल्लेख करते हुए लिखा है कि, केवल एक वर्ष में 5,00,000 वर्ग मील क्षेत्र और 9 करोङ आबादी भारतीय संघ में मिल गयी। यह एक महान रक्तहीन क्रांति थी जिसकी तुलना कहीं भी इस शताब्दी में नहीं मिलती।

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