इतिहासद्वितीय विश्वयुद्धविश्व का इतिहास

द्वितीय महायुद्ध के कारण

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द्वितीय महायुद्ध के कारण

पृष्ठभूमि :प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के ठीक बीस वर्ष बाद दूसरा विध्वंसकारी महायुद्ध प्रारंभ हो गया। 1919 में लोगों ने यह आशा व्यक्त की थी कि भविष्य में पुरानी त्रुटियों को दोहराया नहीं जाएगा और कोई भी राष्ट्र पाशविक शक्ति का स्थान ग्रहण नहीं कर सकेगा।

किन्तु ये सभी भविष्यवाणियाँ पूर्णतः मिथ्या प्रमाणित हुई। वर्साय की संधि पर विचार करते हुए मार्शल फौच ने कहा था, “यह शांति संधि नहीं है, यह तो बीस वर्ष के लिये युद्ध विराम संधि है।”

मार्शल फौच की यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। ठीक इसी प्रकार म्यूनिख समझौते के बाद चेम्बरलेन ने लंदन हवाई अड्डे पर अपने स्वागतार्थ आए मित्रों को संबोधित करते हुये कहा था “मैं आपके सम्मानपूर्वक शांति लाया हूँ।” इसके प्रत्युत्तर में चर्चिल ने कहा, “ब्रिटेन और फ्रांस के समक्ष दो मार्ग थे – युद्ध और अनादर, उन्होंने अनादर को चुना, किन्तु वे युद्ध से भी नहीं बच सकते।” चर्चिल की यह भविष्यवाणी भी सत्य हुई।

ये दोनों ही कूटनीतिज्ञ मनुष्य की प्रवृत्ति से अनभिज्ञ नहीं थे। इसलिए उन्होंने अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिाय। प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात जो घटनाक्रम चला वह पुनः दूसरे महायुद्ध की ओर ले गया। अतः उन तत्वों का विवेचन करना समीचीन होगा, जिन्होंने दूसरे विश्व युद्ध को अनिवार्य बना दिया।

द्वितीय महायुद्ध के कारण

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वर्साय की अपमानजनक संधि

वर्साय की संधि के समय विजयी राष्ट्रों ने दूरदर्शिता से कार्य नहीं किया, केवल प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर उन्होंने जर्मनी का दमन किया। अतः जर्मनी द्वारा अपने अपमान का प्रतिशोध लेना तो स्वाभाविक ही था। इसके अतिरिक्त मित्र राष्ट्रों की सहमति, उपेक्षा और विरोध से इस संधि के अनेक भाग भंग होते चले गए।

उदाहरणार्थ, इसके पहले भाग का संशोधन जर्मनी को राष्ट्रसंघ का सदस्य बनाकर किया गया। 1935 में हिटलर ने संधि में जर्मनी की सेनाओं को सीमित रखने संबंधी धारा को तोङ दिया, किन्तु मित्र राष्ट्रों ने इसकी उपेक्षा की। प्रादेशिक व्यवस्था संबंधी धारा को भी हिटलर ने पश्चिमी राष्ट्रों की उपेक्षा और सहमति से भंग कर दिया।

राइन को सेना रहित क्षेत्र रखने संबंधी धारा का भी हिटलर ने उल्लंघन किया(1936ई.)। 1 मार्च, 1938 में आस्ट्रिया के साथ एकीकरण के निषेध की व्यवस्था को भंग किया और अंत में जब उसने पोलिश गलियारे और डेन्जिग के प्रश्न पर वर्साय की व्यवस्था को तोङना चाहा तो द्वितीय विश्व युद्ध का श्रीगणेश हो गया।

वस्तुतः मित्र राष्ट्रों की परस्पर विरोधी एक संधि की शर्तों को कठोरतापूर्वक पालन न कराने की नीति के कारण जर्मनी का साहस बढ गया और उसने दूसरा विश्व युद्ध छेङने की हिम्मत की। लैंगसम के अनुसार “1918 में अपनी भीषण हार के केवल 21 वर्ष बाद ही जर्मनी को इतिहास का सबसे बङा युद्ध छेङने में समर्थ बनाने का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि शांति समझौते को बनाए रखने के लिये ब्रिटेन और फ्रांस ने विभिन्न नीति मार्गों का अवलंबन किया।”

इसलिए जर्मनी द्वारा संधि की विभिन्न शर्तों के उल्लंघन की दोनों उपेक्षा करते रहे, जिससे जर्मनी की हिम्मत बढ गयी और उसने वर्साय संधि के अपमान का प्रतिशोध लेने में कोई संकोच नहीं किया।

द्वितीय महायुद्ध के कारण

तानाशाहों का उत्कर्ष

इस समय कई देशों में तानाशाहों का उत्कर्ष हुआ जिनके कार्यों और उग्र नीति ने द्वितीय विश्व युद्ध को अनिवार्य बना दिया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी में वाइमर गणतंत्र की स्थापना हुई थी और अनेक विरोधी दलों का उत्कर्ष होने लगा था। इन दलों में नाजीदल प्रमुख था जो वर्साय संधि को भंग करके अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में जर्मनी की पुनः प्रतिष्ठा स्थापित करना चाहता था।

1933 में हिटलर जर्मनी का तानाशाह बन गया। इसी प्रकार इटली में भी मित्र राष्ट्रों के प्रति असंतोष था, क्योंकि युद्ध की लूट में उसे उचित हिस्सा प्राप्त नहीं हुआ था। इसलिए इटली भी वर्साय संधि का विरोधी हो गकया। फलतः इटली में फासिस्टवाद का उत्कर्ष हुआ।

1922 में दल इस दल के नेता मुसोलिनी के हाथ में सत्ता आ गई और वह इटली का तानाशाह बन गया। मुसोलिनी के लिये युद्ध जीवन था और शांति मृत्यु । स्पेन में भी हिटलर और मुसोलिनी द्वारा समर्थित जनरल फ्रेंको की तानाशाही स्थापित हुई। जापान में भी साम्राज्यवादी भावनाएँ पनप रही थी।

जापान ने राष्ट्रसंघ की उपेक्षा करते हुये मंचूरिया पर अधिकार कर लिया। रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी ने यूरोप धुरी ने यूरोप की राजनैतिक स्थिति को संकटमय बना दिया। वास्तव में यह संधि तानाशाहों का समझौता थी। इन सभी घटनाओं ने द्वितीय विश्व युद्ध को अनिवार्य बना दिया।

अल्पसंख्यक जातियों का असंतोष

जिस प्रकार शांति समझौते द्वारा सीमाओं में परिवर्तन किया गया वहाँ जातियों का भी अदल-बदल होना स्वाभाविक था। बाल्कन प्रायद्वीप और मध्य यूरोप में यह स्थिति अत्यन्त ही जटिल थी। आस्ट्रिया को जर्मनी से पृथक रखा गया, चेकोस्लोवाकिया को स्वतंत्र राज्य स्वीकार किया गया तथा पोलैण्ड को समुद्र तक पहुँचने का मार्ग देने के लिये पूर्वी प्रशा को शेष जर्मनी से पृथक कर दिया गया।

यद्यपि मित्र राष्ट्रों ने आत्म निर्णय का सिद्धांत स्वीकार किया था, किन्तु इस सिद्धांत को सभी जगह लागू करना संभव नहीं था। फलस्वरूप अनेक स्थानों पर एक दूसरे की विरोधी अल्पसंख्यक जातियाँ बस और उनमें भयंकर असंतोष फैल गया, क्योंकि वे एक राज्य के अधीन असुरक्षा का अनुभव कर रही थी।

कुछ जर्मन जाति के लोग चेकोस्लाविया में थे, कुछ पोलैण्ड में थे और कुछ आस्ट्रिया में। वे सभी अपने को विदेशी शासन के अधीन मानते थे। हिटलर ने उनमें व्याप्त असंतोष का पूरा लाभ उठाया।

उसने जिन-जिन राज्यों में अल्पसंख्यक के रूप में जर्मन जाति के लोग बिखरे हुए थे और असंतुष्ट थे, उनकी सहायता करना आरंभ किया ताकि उनमें तीव्र राष्ट्रीय भावना जीवित रहे। उसने पश्चिम की शक्तियों से सौदेबाजी की और अल्पसंख्यकों पर कुशासन का बहाना बना कर आस्ट्रिया और सूडेटनलैण्ड का अपहरण कर लिया। उसके बाद पोलैण्ड पर हमला कर दिया।

राष्ट्रों के विभिन्न स्वार्थ

प्रथम विश्व युद्ध के बाद आर्थिक सम्पन्नता की होङ, अपने माल की बिक्री के लिये बाजारों में पारस्परिक संघर्ष को प्रोत्साहन दिया। इस प्रकार प्रथम युद्ध की समाप्ति पर प्रत्येक राष्ट्र अपने स्वार्थों के वशीभूत हो चुका था और अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण को कोई स्थान नहीं था।

वर्साय की संधि द्वारा जर्मनी से उसके सभी उपनिवेश झीन लिए गए थे और ये सभी उपनिवेश इंग्लैण्ड, बेल्जियम और फ्रांस में बाँट दिए गए थे। फलस्वरूप इंग्लैण्ड, फ्रांस और बेल्जियम को इन प्रदेशों से कच्चा माल प्राप्त करने की सुविधा बढ गई, किन्तु दूसरी ओर जर्मनी को भारी हानि उठानी पङ रही थी।

जर्मनी की भाँति इटली भी कच्चा माल प्राप्त करने के लिये उपनिवेश स्थापित करने तथा तैयार माल के लिये बाजारों की खोज की फिक्र में था। तेल,लोहे और कोयले की कमी ने तो इटली को साम्राज्यवादी नीति अपनाने के लिये विवश कर दिया था।

इसी प्रकार जापान भी अपनी बढती हुई जनसंख्या को बसाने के लिये, औद्योगिक विकास के लिये कच्चा माल प्राप्त करने और तैयार माल के लिये बाजार स्थापित करने हेतु चीन में अपने पैर फैलाने का प्रयत्न कर रहा था। इन विभिन्न स्वार्थों ने आर्थिक संघर्ष को जन्म दिया। 1929-30 के आर्थिक संकट ने तो एक नयी स्थिति उत्पन्न कर दी।

प्रत्येक राष्ट्र ने अपने उद्योगों की रक्षा के लिये भारी कर-प्रणाली, आयात-निर्यात पर प्रतिबंध, आयातित माल पर भारी तटकर, विदेशी व्यापार पर प्रतिबंध आदि कार्यान्वित किए। इससे सम्पन्न देशों में तैयार माल भारी एकत्रित होने लगा, क्योंकि उनके स्वयं के यहाँ तो इतने माल की खपत हो नहीं रही थी।

सर्वाधिक समस्या तो उन देशों के समक्ष उत्पन्न हुई, जिनके पास न तो कच्चा माल था और न उपनिवेश थे। इस प्रकार की विषम स्थिति उन देशों में अधिक थी जिन्हें प्रथम विश्व युद्ध में भारी हानि उठानी पङी थी।

अतः जर्मनी, जापान और इटली अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये एक दूसरे के निकट आने लगे, जापान ने मंचूरिया पर आक्रमण कर उस पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया, इटली ने अबीसीनिया पर अधिकार कर लिया और जर्मनी ने भी यूरोप में अपने खोए प्रदेशों का अपहरण करना आरंभ कर दिया। ये सभी घटनाएँ द्वितीय विश्वयुद्ध की अग्रदूत बन गयी।

विश्व का दो गुटों में विभाजन

जिस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व यूरोप दो परस्पर विरोधी गुटों में विभाजित हो गया था, उसी प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व भी विश्व दो गुटों में विभाजित हो गया। 1937 तक अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच पर दो शक्तिशाली गुटों का निर्माण हो चुका था। एक तरफ जर्मनी, इटली और जापान जैसे राष्ट्र थे जो वर्साय संधि के विरोधी तथा अधिनायकवाद के समर्थक थे।

अतः तीनों ने मिलकर रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी का निर्माण कर लिया। दूसरी ओर मित्र राष्ट्रों का सुदृढ संगठन था। युद्ध आरंभ होने पर रूस प्रथम गुट में था और उसने जर्मनी से अनाक्रमण समझौता भी कर लिया था, किन्तु युद्ध के दौरान जब जर्मनी ने विश्वासघात करके रूस पर आक्रमण कर दिया तो रूस भी मित्र राष्ट्रों के गुट में आ मिला।

ज्यों ही मित्र राष्ट्रों (ब्रिटेन और फ्रांस) ने पोलैण्ड को समर्थन दिया त्यों ही द्वितीय महासमर भङक उठा।

राष्ट्रसंघ की निर्बलता

प्रथम विश्व युद्ध के बाद आपसी झगङों को शांतिपूर्ण तरीकों से सुलझाने के लिये तथा विश्व शांति बनाए रखने के लिये राष्ट्रसंघ का निर्माण किया गया था। किन्तु जिन आशाओं को लेकर इसका निर्माण हुआ उन आशाओं पर पानी फिर गया। इसके निर्माण के साथ ही अमेरिका द्वारा उसे अस्वीकार कर दिया गया।

अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट्र ने भी जब राष्ट्रसंघ से अलग रहने का निर्णय ले लिया तो दूसरे निर्बल राष्ट्र भी इसे संदेह की दृष्टि से देखने लगे। इस प्रकार के संदेह राष्ट्रसंघ के भावी जीवन के लिये हितकर सिद्ध नहीं हुए। प्रारंभ में पराजित राष्ट्रों को राष्ट्रसंघ की सदस्यता से वंचित रखना इस बात का द्योतक हो गया कि राष्ट्रसंघ विजयी राष्ट्रों का गुट है।

रूस भी आरंभ में राष्ट्रसंघ का सदस्य नहीं था। रूस, राष्ट्रसंघ को पश्चिमी राष्ट्रों का साम्यवादी रूस के विरुद्ध एक षड्यंत्र मानता था। इस प्रकार आरंभ से ही कई राष्ट्रों को राष्ट्रसंघ के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया था।

यद्यपि 1925 से 1929 तक राष्ट्रसंघ ने कुछ क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किया, जिससे प्रभावित होकर 50 राष्ट्रों के स्वार्थों का प्रश्न आया तो केवल आयोगों की नियुक्ति के अलावा राष्ट्रसंघ विधाव स्री की तरह हाथ-पाँव पीट कर रह गया। वस्तुतः इसके सदस्य राष्ट्र स्वयं इसकी नीवें खोदने लग गए थे। इंग्लैण्ड रूस की साम्यवादी प्रवृत्तियों पर अन्तर्राष्ट्रीय नियंत्रण रखना चाहता था।

फ्रांस येन केन प्रकारेण शांति समझौते की शर्तों को बनाए रखना चाहता था, ताकि इस समझौते द्वारा उसे जो लाभ प्राप्त हुए हैं उनसे वह वंचित न रह जाय। अनेक राज्यों ने तो राष्ट्रसंघ की खुली उपेक्षा की। मंचूरिया काण्ड के समय जापान राष्ट्रसंघ के प्रस्तावों को ठुकराते हुये राष्ट्रसंघ की सदस्यता से पृथक हो गया।

अबीसीनिया युद्ध के बाद इटली ने राष्ट्रसंघ की सदस्यता से पृथक हो गया। अबीसीनिया युद्ध के बाद इटली राष्ट्रसंघ की सदस्यता त्याग दी। हिटलर का तो कहना था कि खोए हुए प्रदेशों की पुनः प्राप्ति ईश्वर से प्रार्थना करने से अथवा राष्ट्रसंघ के प्रति पवित्र आस्था रखने से नहीं वरन सैनिक शक्ति से ही हो सकेगी।

अन्तर्राष्ट्रीय संकटों के समय राष्ट्रसंघ कोी कारगर कदम नहीं उठा सका जिससे उसकी निर्बलता प्रकट हो गई। छोटे-छोटे राष्ट्रों को राष्ट्रसंघ से सुरक्षा पाने का विश्वास समाप्त हो गया। राष्ट्रसंघ के प्रति संदेह और अविश्वास की भावना शीघ्र ही विस्फोटक बनकर युद्ध के रूप में परिणित हो गयी।

निःशस्रीकरण की असफलता

निःशस्रीकरण वर्साय की संधि के अन्तर्गत वह योजना थी जिसे जर्मनी को पूर्ण रूप से शक्तिहीन रखने के लिये प्रयुक्त किया गया था और इसी के अन्तर्गत यह सुझाव दिया गया था कि अन्य राष्ट्रों के लिये भी इस प्रयोग को उस सीमा तक लागू किया जाय जिससे सुरक्षा की संभावना स्थापित हो सके।

सिद्धांत रूप से इस योजना का समर्थन किया जा सकता था, किन्तु इस संबंध में भिन्न-भिन्न राष्ट्रों द्वारा जो रवैया अपनाया जा रहा था उससे निःशस्रीकरण की बजाय शस्रीकरण की भावना को ही बल प्राप्त हुआ। निः शस्रीकरण के लिये जब-जब भी सम्मेलन हुए तो प्रत्येक राष्ट्र ने केवल इसी बात पर बल कि वह स्वयं तो शस्त्रास्त्रों में कमी न करे, किन्तु दूसरे को ऐसा करने के लिये बाध्य करे।

जर्मनी का भी यह कहना था कि यदि जर्मनी को शस्रहीन बनाया जाता है तो निःशस्रीकरण का सिद्धांत दूसरे राज्यों पर भी लागू किया जाय। फ्रांस अपनी सुरक्षा के लिये अत्यन्त चिन्तित था अतः वह निःशस्त्रीकरण को महत्त्व देने के लिये तैयार नहीं था। ब्रिटेन के अनुसार निःशस्रीकरण दोनों अलग विषय थे और सुरक्षा के सन्दर्भ में निःशस्त्रीकरण पर विचार करने को तैयार नहीं था।

जब बङे राष्ट्रों ने अपने यहाँ निःशस्त्रीकरण करना स्वीकार नहीं किया तो हिटलर ने जर्मनी में निःशस्त्रीकरण करना हानिकारक समझा। उसका कहना था कि शक्ति और राष्ट्रीय आकांक्षाओं की प्राप्ति के लिये पुनः शस्रीकरण ही एकमात्र उपाय है। पश्चिमी राष्ट्र एक ओर तो निःशस्रीकरण की दुहाई दे रहे थे और दूसरी ओर अपने देश में अस्र-शस्रों को जुटाने में लगे हुये थे। प्रतिवर्ष उनका युद्ध संबंधी बजट बढता जा रहा था।

सभी देशों में सुरक्षा के नाम पर युद्ध की तैयारियाँ आरंभ हो गयी। फ्रांस ने अपनी उत्तरी-पूर्वी सीमा पर जमीन के नीचे किलों की श्रृंखला बनाई जिसे शीग्फ्रीड लाइन कहा जाता था।

अब निःशस्रीकरण मात्र औपचारिक वार्ता रह गई थी। 1936 तक तो अनेक राष्ट्रों ने युद्ध की ऐसी तैयारी कर ली थी कि वे निःशस्रीकरण की बात भी सुनने को तैयार नहीं थे। चारों ओर ऐसा वातावरण उत्पन्न हो गया कि निकट भविष्य में युद्ध अनिवार्य दिखाई देने लगा।

मित्र राष्ट्रों के आंतरिक मतभेद

मित्र राष्ट्रों के पारस्परिक मतभेदों ने भी जर्मनी और इटली की शक्ति के विकासमें बङा योगदान दिया। क्षतिपूर्ति की समस्या पर ब्रिटेन और फ्रांस के बीच मतभेद उत्पन्न हो गए थे। फ्रांस जर्मनी से क्षतिपूर्ति की रकम कठोरता से वसूल करना चाहता था। किन्तु ब्रिटेन का मत था कि क्षतिपूर्ति की रकम वसूल करने से पहले जर्मनी की आर्थिक स्थिति सुदृढ होनी चाहिये।

इस प्रकार ब्रिटेन और फ्रांस में तीव्र मतभेद उत्पन्न हो गए। ब्रिटेन शक्ति संतुलन के सिद्धांत की नीति का समर्थक था, जबकि फ्रांस ने अपने को हर प्रकार से सुरक्षित करके यूरोप का सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने की नीति अपनाई। हिटलर के उत्कर्ष के बाद उसने साम्यवाद के विरुद्ध विषवमन आरंभ किया और ब्रिटेन और फ्रांस साम्यवाद के हौवे से सशंकित थे ही, अतः दोनों ने हिटलर के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाई।

फलस्वरूप मित्र राष्ट्र उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर सके। इसके अलावा वर्साय संधि के समय यह निर्णय लिया गया था कि ब्रिटेन और अमेरिका दोनों फ्रांस की सुरक्षा का दायित्व ग्रहण करेंगे, किन्तु अमेरिका की सीनेट ने इस संधि को अस्वीकृत कर दिया।

अमेरिका के अलग होने पर ब्रिटेन ने भी फ्रांस को सुरक्षा का आश्वासन देने से इन्कार कर दिया। फलतः फ्रांस ने निराश होकर पोलैण्ड, बेल्जियम और चेकास्लोवाकिया से अलग-अलग संधियाँ की। दोनों के इस प्रकार के मतभेद और जर्मनी एवं इटली के प्रति तुष्टिकरण की नीति को देखकर तानाशाहों का हौंसला बढता गया।

इधर मित्र राष्ट्रों और रूस के बीच भी तीव्र मतभेद थे। ब्रिटेन रूस के साम्यवाद की लहर को रोकने के लिये हिटलर को ढाल समझता था, इसलिये उसने जर्मनी की शक्ति बढाने में भी रुचि ली। मित्र राष्ट्रों को तो साम्यवादी रूस पर विश्वास ही नहीं था। म्यूनिख सम्मेलन में मित्र राष्ट्रों ने रूस को निमंत्रित ही नहीं किया।

इस पर रूस ने अपनी नीति में परिवर्तन किया। रूस जानता था कि सूडेटनलैण्ड जर्मनी को देना रूस पर आक्रमण करने के लिये अग्रिम भुगतान था।अतः उसने मित्र राष्ट्रों के प्रबल शत्रु जर्मनी से अनाक्रमण समझौता कर लिया। इस प्रकार पारस्परिक अविश्वास के कारण मित्र राष्ट्रों का मोर्चा निर्बल हे गया तथा वे तानाशाहों की बढती हुई शक्ति को रोकने में कठिनाई अनुभव करने लगे। इस गंभीर स्थिति ने द्वितीय विश्व युद्ध को अवश्यम्भावी बना दिया।

पोलैण्ड पर आक्रमण

इन सभी कारणों से अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच पर बारूद का महल खङा हो चुका था, अब तो केवल एक चिन्गारी लगाने की देर थी। यह कार्य हिटलर ने पोलैण्ड पर आक्रमण करके सम्पन्न कर दिया जिससे बारूद के महल में एक भयंकर विस्फोट हो गया। 1 सितंबर, 1939 को हिटलर ने पोलैण्ड पर अचानक चढाई कर दी।

ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी को युद्ध बंद करने की चेतावनी दी, किन्तु हिटलर ने इस चेतावनी की उपेक्षा की। फरिणामस्वरूप 3 सितंबर को ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। कुछ ही समय में युद्ध ने विस्तृत रूप धारण कर लिया और विश्व राजनीति मंच पर पुनः एक बार वीभत्स ताण्डव नृत्य आरंभ हो गया।

द्वितीय महायुद्ध की गतिविधियाँ

1 सितंबर, 1939 को जर्मनी ने पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया। ब्रिटेन और फ्रांस ने आक्रमण समाप्त करने की चेतावनी दी जिसका कोई परिणाम नहीं निकला। अतः 3 सितंबर, 1939 को दोनों ने ही जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। जर्मनी काफी समय से युद्ध की तैयारी कर रहा था तथा युद्ध के नए तरीरों का सफल प्रयोग भी स्पेन के गृह युद्ध में कर चुका था, अतः जर्मन सेनाओं ने प्रबल आक्रमण करते हुये 5 सितंबर को संपूर्ण साइलेशिया पर अधिकार कर लिया। दो सप्ताह की भीषण लङाई के बाद जर्मन सेनाओं ने पोलैण्ड की राजधानी वार्सा पर अधिकार कर लिया…अधिक जानकारी

शांती समझौता

युद्ध समाप्ति पर अब यह आवश्यक हो गया कि युद्धोत्तर विश्व में स्थायी शांति की स्थापना के लिये विश्व में नई व्यवस्था की जाय, किन्तु एक ही स्थान पर बैठकर एक समय में निर्णय लेना कठिन था, अतः इस बार परंपरागत तरीकों को त्यागकर अनेक भिन्न-भिन्न स्थानों पर बैठकें करके समझौते किए गए ।

ये बैठकें काहिरा, तेहरान, याल्टा, पोट्सडम आदि स्थानों पर हुई और अनेक सम्मेलनों के बाद सर्वमान्य संधियाँ की गई। शांति स्थापित करने के मूलभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन मित्र राष्ट्र अटलाण्टिक चार्टर, कासाब्लांका, मास्को, तेहरान, याल्टा और पोट्सडम सम्मेलनों में पहले ही कर चुके थे, अतः प्रारंभिक कठिनाइयों के निराकरण के बाद संधि प्रपत्र तैयार कर लिए गये।

उसके बाद पेरिस में 29 जुलाई, 1946 से 15 अक्टूबर, 1946 तक 21 राष्ट्रों का एक सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में तैयार किए गए संधि-प्रपत्रों को विजयी, पराजित और युद्ध में भाग लेने वाले अन्य राज्यों के समक्ष विचारार्थ रखा गया।

दोनों पक्षों को अपने-अपने विचार प्रकट करने का अवसर दिया गया, अतः 1919 के शांति सम्मेलन की अपेक्षा इस बार पराजित राष्ट्रों के प्रति उदारता का व्यवहार किया गया, क्योंकि प्रथम युद्ध के बाद सम्पन्न हुई संधि को पराजित राष्ट्रों पर थोपा गया था, जिसके बङे अनिष्टकारी परिणाम हुए।

1919 में शांति सम्मेलन की समस्त कार्यवाही को गुप्त रखा गया तथा पराजित राष्ट्रों को अपमानित किया गया था,किन्तु इस बार विजयी राष्ट्रों के व्यवहार में शिष्टता थी तथा पराजित राष्ट्रों को विचार प्रकट करने की पूरी स्वतंत्रता थी।

पेरिस सम्मेलन में काफी विचार-विनिमय के बाद 10 फरवरी, 1947 को मित्र राष्ट्रों एवं पाँच पराजित राष्ट्रों (इटली, रूमानिया,बल्गेरिया, हंगरी और फिनलैण्ड) ने इन संधियों पर हस्ताक्षर किए। इन संधियों को विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा पुष्टि करने हेतु 15 सितंबर, 1946 अंतिम तिथि स्वीकार कर ली गयी, फिर भी किसी पराजित राष्ट्र ने शांति संधियों को संतोषजनक, न्यायसंगत और अच्छी नहीं माना और इन संधियों को करने हेतु उन्होंने आंदोलन प्रारंभ कर दिया।

आस्ट्रिया, जर्मनी और जापान के साथ शांति संधियों के विषय में तीव्र मतभेद बने रहे। अंत में 1946 में जर्मनी के साथ और 1951 में जापान के साथ संधि की गई। आस्ट्रिया ने जुलाई, 1955 में शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए। अक्टूबर, 1956 में रूस और जापान के बीच एक समझौता हुआ, जिससे दोनों के बीच युद्ध की स्थिति समाप्त हो गयी।

द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति से इतिहास के एक अध्याय का अथवा युग का अंत हो गया । यह मानव इतिहास का सर्वाधिक क्रूर, भयानक और विनाशकारी युद्ध था। युद्ध में संलग्न सभी राष्ट्रों ने अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों का प्रयोग किया। फलतः युद्धकाल में दोनों ही पक्षों को अपार क्षति उठानी पङी।

विनाश का सबसे अधिक वीभत्स दृश्य सोवियत रूस को देखना पङा, क्योंकि रूस के बार-बार कहने पर भी पश्चिमी राष्ट्रों ने 1944 तक धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध कोई दूसरा मोर्चा नहीं खोला, इसलिये जर्मनी का प्रहार सबसे अधिक लाल सेना को ही सहन करना पङा। इसी प्रकार ब्रिटेन और फ्रांस को भी भारी हानि उठानी पङी, किन्तु उनकी क्षति रूस की तुलना में कुछ कम थी। पराजित राष्ट्रों ने जो क्षति उठाई, उसकी तो कल्पना ही नहीं की जा सकती है…अधिक जानकारी

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wikipedia :द्वितीय महायुद्ध के कारण

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