इतिहासराजस्थान का इतिहास

सामंतों के विशेषाधिकार क्या थे

सामंतों के विशेषाधिकार – जोधपुर, जयपुर, बीकानेर, उदयपुर आदि बङे राज्यों के प्रथम श्रेणी के जागीरदार अपने आपको अपने कुलीन राज्यों के संरक्षक और राजा का सलाहकार समझते थे और यह आशा रखते थे कि राजा राज्य की महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर उनसे विचार-विमर्श किया करे। इसे सामंत लोग अपनी प्रतिष्ठा की बात मानते थे। प्रथम श्रेणी के सामंत अपने शासक का खास रुक्का मिलने पर ही राजदरबार में उपस्थित होते थे। राजदरबार में उपस्थित होने पर शासक को उन लोगों का उनकी श्रेणी और पद मर्यादानुसार सम्मान करना पङता था और जब वे अपनी जागीरों को वापस लौटते तो शासक को उन्हें सिरोपाव देकर विदा करना पङता था।

शासक के राज्याभिषेक, राजघराने में विवाह, युवराज के जन्म आदि अवसरों पर शासक के सिरोपाव प्राप्त करना, उनका विशेषाधिकार था। अपनी श्रेणी व पद मर्यादानुसार शासक से लवाजमा (जिसमें नक्कारा, निशान, चँवर-चँवरी, सोने-चाँदी की छङी इत्यादि होती थी) प्राप्त करना भी उनका विशेषाधिकार था। कुछ राज्यों में प्रमुख सरदारों को अपना सिक्का ढालने का विशेषाधिकार भी मिला हुआ था, जैसे कि जोधपुर के कुचामन और बूङसू ठाकुर तथा उदयपुर में सलूम्बर ठाकुर को। कई सामंतों को शराब की भट्टियाँ चलाने का भी विशेषाधिकार मिला हुआ था।

सामंतों को स्वयं अपने तथा अपने पाटवी पुत्र और पुत्रियों के विवाह के अवसर पर अपने शासक से सिरोपाव और न्यौता की रकम प्राप्त करने का हक था। इसी प्रकार, ताजीमी सरदार के नये उत्तराधिकारी को अपने शासक से सिरोपाव प्राप्त करने का अधिकार था। ताजीमी सरदारों को राज्य के सामान्य न्यायालयों में उपस्थित होने की छूट मिली हुई थी और शासक की पूर्व अनुमति के बिना उन पर अभियोग नहीं चलाया जा सकता था। अपने जागीरी क्षेत्रों में सामंतों को कई प्रकार के न्यायिक अधिकार मिले हुए थे।

सामंतों की श्रेणियाँ, पद और प्रतिष्ठा

मुगलकाल में, राजपूत राजाओं ने भी मुगलों की मनसबदारी प्रथा का अनुकरण करते हुए, अपने सामंतों की श्रेणी, पद और प्रतिष्ठा का निर्धारण करने का निश्चय किया। परिणामस्वरूप कुलीय भावना पर आधारित भाई-बिरादरी अब स्वामी और सेवक में परिवर्तित हो गयी।

मेवाङ के महाराणा अमरसिंह द्वितीय (1698-1710ई.) ने अपने सामंतों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जो आगे चलकर क्रमशः सोलह, बत्तीस और गोल के सरदार कहलाये। प्रथम श्रेणी के सामंतों को सामान्य रूप में उमराव कहा जाता था। महाराणा अमरसिंह द्वितीय के काल में इनकी संख्या 16 थी किन्तु उन्नीसवीं सदी के अंत तक इनकी संख्या 24 तक पहुँच गई। द्वितीय श्रेणी के सदस्यों की संख्या प्रारंभ में 32 थी, अतः वे बत्तीस कहलाये। तृतीय श्रेणी के सरदारों की संख्या कई सौ थी, अतः उन्हें गोल के सरदार कहा जाता था। महाराणा ने इन सभी सरदारों को उनकी जागीरों का पक्का पट्टा प्रदान कर, उनके पट्टों के लिये रेख कायम कर दी थी। सामंतों द्वारा दी जाने वाली सेवाएँ (चाकरी) तथा सामंतों की तलवार-बँधाई आदि के नियम भी बनाये गये। दरबार में सभी सरदारों की बैठक भी तय कर दी गयी। प्रथम और द्वितीय श्रेणी के अधिकांश सामंतों को ताजीम प्रदान की गयी।

मेवाङ राज्य के उमराव अपने आपको राज्य की सम्पत्ति का हिस्सेदार, राज्य के संरक्षक तथा महाराणा का सलाहकार मानते थे। महाराणा का खास रुक्का मिलने पर ही वे राजदरबार में उपस्थित होते थे। मेवाङ के सामंतों को अनेक अधिकार और विशेषाधिकार प्राप्त थे। जब कोई सामंत दरबार में उपस्थित होता था, तो महाराणा खङा होकर उसका स्वागत करता था। इस प्रक्रिया को ताजीम कहते थे। मेवाङ के सभी उमरावों (प्रथम श्रेणी के सरदार)को ताजीम का विशेषाधिकार प्राप्त था। किसी सामंत के दरबार में उपस्थित होने पर महाराणा खङा होता था (ताजीम), वह सामंत अपनी तलवार को महाराणा के समक्ष रखता था तथा झुककर महाराणा की अचकन को छूता था, तब महाराणा इस अभिवादन को स्वीकार करते हुए अपने हाथ उस सामंत के कंधों पर रख देता था। इस प्रक्रिया को बाह पसाव कहते थे। मेवाङ के सभी उमरावों को बाह पसाव का विशेषाधिकार प्राप्त था। इस प्रकार अभिवादन करने के बाद वह सामंत अपने निश्चित स्थान पर बैठ जाता था। सभी सामंतों को उनके निश्चित स्थान पर बैठाने का उत्तरदायित्व दरीखाने (सभा भवन) के दरोगा का था। महाराणा के दाहिने हाथ की बैठक को बङी ओल तथा बायें हाथ की बैठक को कुँवरों की ओल कहा जाता था। उमरावों को बङी ओल में सबसे आगे की पंक्ति में बैठने का अधिकार प्राप्त था। उमरावों के नीचे युवराज की बैठक होती थी। मेवाङ के सामंतों में सलूम्बर के रावत को राज्य में प्रधान का पद वंशानुगत रूप से प्राप्त था। राज्य की ओर से यदि किसी को जमीन या जागीर दी जाती थी तो उस अनुदान पर सलूम्बर के रावत की सहमति होती थी। महाराणा की अनुपस्थिति में नगर शासन और प्रासाद की सुरक्षा का दायित्व भी उसी का होता था। नये महाराणा की गद्दीनशीनी, भी सलूम्बर के रावत की सहमति से होती थी। बेदला के रावत को भी महत्त्वपूर्ण विशेषाधिकार प्राप्त था। नये महाराणा के शोक-निवारण का दस्तूर बेदला रावत के हाथ से सम्पन्न होता था। महाराणा के राज्याभिषेक के समय ऊन्दरी गाँव का गमेती भीलराज (भोमिया सरदार) अपने अँगूठे को चीरकर महाराणा के मस्तक पर टीका किया करता था। मेवाङ में बागौर, करजाली, शिवरती के सामंत महाराणा के नजदीकी रिश्तेदार थे और यहीं के भाई-बेटों को गोद लेने की परंपरा बन गयी थी।

मारवाङ में भी सामंतों की कई श्रेणियाँ थी। इनमें चार प्रमुख थे – राजवी, सरदार, मुत्सदी और गनायत। राजा के छोटे भाई व निकट के संबंधी जिन्हें अपनी उदरपूर्ति के लिये जागीर दी जाती थी, वे राजवी कहलाते थे। उन्हें तीन पीढी तक रेख, चाकरी, हुक्मनामा आदि शुल्कों से छूट होती थी, वे राजवी कहलाते थे। उन्हें तीन पीढी तक रेख, चाकरी, हुक्मनामा आदि शुल्कों से छूट होती थी। तीन पीढी के बाद ये राजवी भी सामान्य जागीरदारों की श्रेणी में आ जाते थे। राजपरिवार के अलावा अन्य रठौङ सामंतों को सरदार कहा जाता था। जिन अधिकारियों को जागीरें मिली हुई थी वे मुत्सदी कहलाते थे और राठौङों के अलावा अन्य शाखाओं के सामंतों को गनायत कहा जाता था।

मारवाङ के सरदारों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम श्रेणी के सरदार सिरायत कहलाते थे। ये सभी राठौङ सरदार थे। दरबार में इनकी बैठक अन्य सरदारों के पहले होती थी। दाँई मिसल के सिरायत महाराजा के दाँई तरफ और बाँई मिसल के सरदार महाराजा के बाँई तरफ बैठते थे। जोधा के भाई वंशज दाँई मिसल और जोधा के वंशज बाँई मिसल के सरदार कहलाते थे। सिरायत सरदारों को दाहरी ताजीम प्राप्त थी। दोहरी ताजीम से तात्पर्य यह है कि जब सरदार राजा के सामने उपस्थित होता था तो उसके आने पर और लौटने पर राजा खङा होकर उसका अभिवादन ग्रहण करता था। कुछ सरदारों को बाह पसाव की ताजीम प्राप्त थी। ऐसे सरदारों के उपस्थित होने पर तथा सरदार द्वारा अपनी तलवार महाराजा के पैरों के पास रखने और महाराजा के घुटने या अचकन के पल्ले को छूने पर महाराजा उसके कंधों पर हाथ रख देते थे। इसी प्रकार, जिसे हाथ का कुरब प्राप्त था, महाराणा उसके कंधे पर हाथ लगाकर अपने हाथ को अपनी छाती तक ले जाते थे। ये ताजीमें भी इकहरी और दोहरी – दोनों प्रकार की होती थी। इस प्रकार की ताजीम बहुत बङी सेवा एवं बलिदान के बाद प्राप्त होती थी। मारवाङ में कहावत प्रचलित थी – कुरब सिर आटे मिलता है, दाम साटे नहीं।

गनायतों के ठिकाने उन जागीरदारों के थे जिन्हें जागीरें या तो राजघराने से वैवाहिक संबंध के कारण मिली थी अथवा वे राठौङों के राज्य स्थापित होने के पहिले से ही मारवाङ क्षेत्र के स्वामी थे। बाद में उन्होंने राठौङों की प्रभुता स्वीकार कर ली थी।

जयपुर में प्राथमिक रूप से जागीरदारों का विभाजन बारह कोटङी से आधारित था। सरदारों में सबसे मुख्य राजावत कछवाहा होते थे जो राजवंश के निकट संबंधी थे। उसके बाद बारह कोटङी वाले नाथावत, चतुरभोज, खंगारोत, कल्याणोत आदि थे। इनके अलावा शेखावतों, नरूकों, बांकावतों, गोगावतों की कोटङियाँ थी। भारमल के समय से ही जागीरोंको कोटङी कहा जाने लगा था। जयपुर राज्य में राजपूत जागीरदार ठाकुर कहलाते थे। इनमें से कई को वंशानुगत तो कई को व्यक्तिगत पदवियाँ मिली हुई थी। जो जागीरदार कछवाहा राजवंश से ही निकले हुए थे उनको भाई-बेटे कहा जाता था। इनकी दो श्रेणियाँ थी – ताजीमी और खासबांकी। ताजीमी सरदार जब दरबार में महाराजा को नजर करता था तब महाराजा स्वयं खङा होकर नजर लेता था। ऐसे सरदारों को पैर में सोना पहनने का अधिकार था। इनको खास रुक्का भेजकर आवश्यकता होने पर दरबार में बुलाया जाता था तथा सिरोपाव देकर विदा किया जाता था।

कोटा में सेवा के अनुसार जागीरदारों का पद निर्धारित होता था। कोटा के सरदार देशवी (देश में रहकर रक्षा करने वाले) तथा हजूरथी (राजा के साथ मुगल सेवा में रहने वाले) की संज्ञा में बाँटे गये थे। कोटा नरेश के निकट के कुटुम्बी राजवी कहलाते थे और अन्य सरदारों को अमीर-उमराव के नाम से पुकारा जाता था। कोटा में ताजीमी सरदारों की संख्या 30 थी। इनमें अधिक संख्या हाङा चौहानों की थी।

समय के साथ-साथ सामंतों के अधिकारों में भी उतार-चढाव आता रहा। 18 वीं शताब्दी के आरंभिक काल तक उत्तर-पूर्वी राजस्थान के सामंत काफी निर्बल हो गये थे, परंतु दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में सामंतों के अधिकार बने रहे। इसका मूल कारण यह था कि उत्तर-पूर्व में दक्षिण-पश्चिम की अपेक्षा मुगल प्रभाव अधिक रहा था। उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में राजपूतों की संख्या भी अधिक थी। इसलिए उनका स्थानीय प्रभाव में एक दबाव था और उनकी मान्यता भी। कोटा, बून्दी, भरतपुर और धौलपुर के शासक अधिक शक्तिशाली होते गये और उनके सामंतों की शक्ति कमजोर पङ गई।

ग्रासिये और भोमिये

राजस्थान की सामंत व्यवस्था में ग्रासियों और भोमियों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। डॉ.गोपीनाथ शर्मा के शब्दों में, ग्रासिये वे जागीरदार थे जो सैनिक सेवा के बदले में शासन के द्वारा भूमि की उपज का जो ग्रास कहलाती थी, उपभोग करते थे। ऐसी भूमि सेवा में ढिलाई करने या आज्ञा का उल्लंघन करने पर छीनी जा सकती थी या फिर दी जा सकती थी। भोमिये राजपूत वे थे जिन्होंने राज्य की रक्षा में अथवा राजकीय सेवाओं के लिए अपना बलिदान किया था। ऐसे लोगों को राज्य की ओर से जो भूमि दी जाती थी, उस पर उन्हें नाममात्र का कर देना पङता था। भोमियों की दो श्रेणियाँ थी – बङे भोमिये और छोटे भोमिये। ओगना, पानरवा, जवास आदि के जागीरदार बङे भोमिये थे। छोटे भोमियों को डाक पहुँचाने तथा राजकीय अधिकारियों के दौरे के समय सहायता पहुँचाने अथवा खजाने को हिफाजत से पहुँचाने का काम सौंपा जाता था।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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