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राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना कब हुई थी

राज्य पुनर्गठन आयोग

राज्य पुनर्गठन आयोग (State Reorganization Commission)

राज्य पुनर्गठन आयोग – आजादी के बहुत पहले से ही भारत में किसी आधार पर प्रांतों को बनाये जाने की माँग की जाने लगी थी। 1920 में स्वयं कांग्रेस सरकार ने इस माँग को स्वीकार भी कर लिया था। परंतु स्वतंत्रता के बाद जब केन्द्र की कांग्रेस सरकार इस तरफ ध्यान न देकर अंग्रेजों की भाँति ही गणराज्य की नई इकाइयों का निर्माण करने लगी तो लोगों में भाषा और संस्कृति के आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन की माँग उठने लगी।

राज्य पुनर्गठन अधिनियम

स्वतंत्रता के प्रारंभिक तीन-चार वर्षों में कांग्रेसी सरकार ने लोगों की इस माँग की तरफ विशेष नहीं दिया। कांग्रेस के कई बङे नेताओं, जिनमें पं.जवाहलाल नेहरू भी शामिल थे, को यह आशंका उत्पन्न हो गई थी, कि भाषा और संस्कृति के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन करने से विघटनकारी प्रवृत्तियों को बल मिलेगा। जिससे देश की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक एकता के लिए खतरा उत्पन्न हो जायेगा।

परंतु इस समस्या ने एक व्यापक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। आंध्र में भाषा के आधार पर आंध्र राज्य की स्थापना की माँग को लेकर चलाये जाने वाले आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया और मद्रास प्रांत दंगों की लपेट में आ गया।

दमन-चक्र के बाद भी जब स्थिति पर नियंत्रण नहीं हो पाया, तो विवश होकर भारत सरकार को अक्टूबर,1953 ई. में मद्रास प्रांत के कुछ तेलगू-भाषी भागों को अलग कर एक नये आंध्र राज्य की स्थापना करनी पङी।

इस प्रकार भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग को लेकर चलाये जाने वाले जन-आंदोलन को पहली सफलता मिली।

भाषाओं के आधार पर प्रांतों के निर्माण की माँग-

सरदार पटेल ने भारतीय गणराज्य की इकाइयों का निर्माण तो कर दिया परंतु भारत के लोगों को इससे संतोष नहीं हुआ।

उनका तर्क था कि अंग्रेजों के शासनकाल में भारत के प्रांतों का निर्माण किसी सिद्धांत के आधार पर नहीं किया गया था।

जैसे-2 भारत में अंग्रेजी राज्य का क्षेत्र बढता गया, वैसे-2 नये-2 प्रांत भी अस्तित्व में आते गये।विजित क्षेत्रों का किसी उचित आधार पर गठन नहीं किया गया।

नये प्रांतों का गठन भारत में ब्रिटिश राज्य की सुरक्षा, विजित क्षेत्र का सामरिक महत्त्व, राजनीतिक आवश्यकता तथा प्रशासनिक सुविधा आदि बातों को ध्यान में रखकर किया गया था। प्रांत विशेष की भाषा तथा संस्कृति के आधार पर नहीं किया गया था।

राज्य पुनर्गठन आयोग की नियुक्ति-

आंध्र राज्य की स्थापना ने इस आंदोलन को शक्ति और गति प्रदान कर दी। भारत के कुछ राज्यों को भी भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की माँग जोर पकङने लगी।केन्द्र सरकार दंगे-फसाद का दृश्य पुनः दोहराना नहीं चाहती थी। अतः दिसंबर, 1953 ई. में प्रधानमंत्री ने संसद में इस संबंध में घोषणा की कि भारत सरकार राज्यों के पुनर्गठन के बारे में शीघ्र ही एक आयोग नियुक्त करने वाली है।

इस घोषणा से भावी दंगे-फसाद की आशंका समाप्त हो गयी।सरकार ने अपना वचन निभाते हुए तीन सदस्यों वाला एक आयोग गठित कर दिया जो राज्य पुनर्गठन आयोग कहलाया।

फजलअली को इस आयोग का अध्यक्ष तथा पं. ह्रदयनाथ कँजरू और सरदार पाणिकर को सदस्य नियुक्त किया गया। आयोग ने देशभर का दौरा किया तथा प्रत्येक क्षेत्र के नेताओं, अधिकारियों, गणराज्य के नागरिकों आदि से व्यापक विचार-विमर्श करने के बाद अक्टूबर, 1955 ई. में अपना एक विस्तृत प्रतिवेदन ( रिपोर्ट ) प्रस्तुत किया।

इस इस रिपोर्ट के आधार पर “राज्य पुनर्गठन अधिनियम” को 1956 में पारित किया गया। 

राज्य-पुनर्गठन आयोग ने निम्नलिखित 16 राज्यों की सिफारिश की- 1) पंजाब ( हिमाचल प्रदेश और पंजाब), 2) उत्तर प्रदेश, 3) बिहार, 4) बंगाल, 5) असम, 6) उङीसा, 7) आध्र, 8) तमिलनाडु, 9) कर्नाटक, 10) केरल, 11) हैदराबाद(तैलंगाना), 12) बंबई, 13) विदर्भ, 14) मध्यप्रदेश, 15) राजस्थान, 16) जम्मू-कश्मीर। इन 16 राज्यों के अलावा आयोग ने निम्नलिखित तीन केन्द्रीय क्षेत्रों की सिफारिश की- 1) दिल्ली, 2) मणिपुर, 3) अंडमान-निकोबार द्वीप।

राज्य पुनर्गठन आयोग ने अलग महाराष्ट्र और अलग गुजरात की माँग को अस्वीकार कर दिया। इसी प्रकार आयोग ने उत्तर-प्रदेश, उङीसा, असम आदि राज्यों की सीमाओं में किसी प्रकार के परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया। हाँ, उसने राजप्रमुख के पद को समाप्त करने की सिफारिश अवश्य की थी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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