इतिहासराजस्थान का इतिहास

बीकानेर में जन आंदोलन

बीकानेर में जन आंदोलन – बीकानेर में भी, राजस्थान के अन्य राज्यों की भाँति निरंकुश राजतंत्र था। महाराजा गंगासिंह (1880-1943 ई.) बीकानेर के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शासक थे। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पेरिस में शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों में महाराजा गंगासिंह एकमात्र भारतीय प्रतिनिधि थे। 1921 ई. में स्थापित चेम्बर ऑफ प्रन्सेज के संस्थापकों में से गंगासिंह प्रमुख थे। महाराज गंगासिंह ने राज्य में कुछ ऐसा वातावरण तैयार कर लिया था कि लोग (विशेषकर बीकानेर के बाहर के लोग) उसे प्रगतिशील शासक मानने लगे थे। महाराजा गंगासिंह ने अपने राज्य में नगरपालिका परिषद, हाईकोर्ट, व्यवस्थापिका सभा आदि स्थापित करके अपनी प्रगतिशीलता का प्रदर्शन किया। किन्तु यह सब उसका दिखावा मात्र था, क्योंकि इन संस्थाओं के पास कोई वास्तविक अधिकार नहीं थे। वह अपने उदार विचारों का प्रचार तो निरंतर करता रहता था, लेकिन अपने राज्य बीकानेर में जब कभी राजनैतिक चेतना के लक्षण दिखाई देते, उसका रवैया घोर निरंकुशतावादी हो जाता और वह हर संभव उपाय से राजनैतिक चेतना को दबाने के प्रयास में जुट जाता।

बीकानेर में चेतना जाग्रत करने का श्रेय कन्हैयालाल ढूँढ और स्वामी गोपालदास को दिया जाता है, जिन्होंने सर्वप्रथम चूरू में सर्वहितकारिणी सभा का गठन किया। इस सभा का उद्देश्य जनता को अपने अधिकारों के प्रति जागरुक करना तथा लोगों में सामाजिक चेतना उत्पन्न करना था। इस संस्था ने चुरू में लङकियों की शिक्षा हेतु पुत्री पाठशाला और अछूतों की शिक्षा के लिए कबीर पाठशाला स्थापित की। इस संस्था ने जयपुर राज्य के अनेक गाँवों में भी पाठशालाएँ, पुस्तकालय और वाचनालय खोले। इससे महाराजा गंगासिंह विचलित हो उठे और 1930 ई. के आरंभ तक लगभग 100 पुस्तकों, समाचार पत्रों आदि को षड्यंत्रकारी साहित्य बताकर उन पर प्रतिबंध लगा दिया। रामनारायण नामक सरपंच द्वारा स्वच्छ प्रशासन की माँग करने तथा बेगार प्रथा का विरोध करने पर उसे पुलिस द्वारा पिटवाया गया। महात्मा गाँधी से संबंधित कोई भी नामरा षड्यंत्र का द्योतक समझा जाने लगा तथा खादी पहनना भी राज्य में अपराध माना गया। सेठ जमनालाल बजाज और चाँदकरण शारदा को राज्य में प्रवेश करने से रोक दिया। इससे आम जनता में रोष व्याप्त हो गया। 26 जनवरी, 1930 को स्वामी गोपालदास और पंडित चंदनमल बहङ ने अपने सहयोगियों के साथ चुरू के सर्वोच्च शिखर धर्मस्तूप पर तिरंगा झंडा फहराकर राज्य में तहलका मचा दिया। राज्य में भाषण और लेखन पर कठोर प्रतिबंध होने के कारण शिक्षित समाज का दम घुटा जा रहा था। 1931 में महाराजा ने जब खाद्यानों पर कर लगाया, तब स्वामी गोपालदास और चंदनमल बहङ एवं उनके साथियों ने बीकानेर के इतिहास में पहली बार राज्य के विरुद्ध संगठित अभियान आरंभ करने के लिए चुरू में एक सार्वजनिक सभा की। दिल्ली के प्रिन्सली इंडिया और रियासत एवं अजमेर के त्याग भूमि आदि समाचार पत्रों में बीकानेर राज्य के दमन संबंधी समाचार प्रकाशित हुए। महाराजा गंगासिंह इस समय दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने हेतु लंदन गये हुए थे।

जिस समय लंदन में दूसरा गोलमेज सम्मेलन चल रहा था, तब अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद के कुछ प्रतिनिधियों ने महाराजा गंगासिंह के प्रशासन की वास्तविकता के संबंध में एक पेम्फलेट लंदन में बाँटा। इस कार्यवाही से गंगासिंह बौखला उठा तथा अपनी बीमारी का बहाना कर सम्मेलन समाप्त होने से पूर्व ही वह बीकानेर लौट आया। बीकानेर लौटने पर उसने उन सभी सार्वजनिक नेताओं को बंदी बनवा लिया जो बीकानेर की वास्तविक स्थिति के संबंध में जानकारी दे सकते थे। इनमें स्वामी गोपालदास, चंदनमल बहङ, सत्यनारायण सर्राफ, खूबराम सर्राफ आदि थे। 12 अप्रैल, 1932 को इन तथाकथित अभियुक्तों के विरुद्ध राजद्रोह के अभियोग में मुकदमा आरंभ हुआ। यह मुकदमा बीकानेर षड्यंत्र केस के नाम से विख्यात हुआ। बीकानेर के प्रख्यात वकील रघुवर दयाल, गोपाल और उसके साथी मुक्ता प्रसाद ने अभियुक्तों की पैरवी की। इन लोगों को बीकानेर राज्य के विरुद्ध एक षड्यंत्र तैयार करने के लिये दोषी ठहराया और उन्हें तीन माह से लगाकर सात वर्ष तक की लंबी सजाएँ दे दी गयी। अनेक समाचार पत्रों में गंगासिंह की तीखी आलोचना हुई। 1932-34 के बीच राष्ट्रीय समाचार पत्रों में तथाकथित षड्यंत्र के मामले पर टीका टिप्पणियाँ तथा लेखों में गंगासिंह की प्रगतिशील छवि धूमिल होने लगी।

जुलाई, 1932 ई. में राज्य ने सार्वजनिक सुरक्षा कानून पारित किया, जिसे बीकानेर का काला कानून कहा गया, क्योंकि इसका प्रयोग जन जागृति का दमन करने, सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओं को बिना उचित मुकदमे के जेल में डालने या राज्य से निर्वासित करने तथा समाचार पत्रों की स्वतंत्रता का हनन करने के लिये किया जाता था। किन्तु राज्य का दमनकारी कानून जन असंतोष को व्यक्त करने से नहीं रोक सका। कठोर सजाओं ने संगठित विरोध को प्रस्फुटित किया। 4 अक्टूबर, 1936 को मघाराम वैद्य ने बीकानेर प्रजा मंडल की स्थापना की। इसी बीच 3 जुलाई, 1936 को सत्यनारायण सर्राफ पर आरोप लगाया कि उसने मघाराम वैद्य और लक्ष्मीदास के साथ मिलकर प्रजा मंडल की स्थापना की है। इन तीनों व्यक्तियों पर उनकी पैरवी करने वाले वकील मुक्ताप्रसाद को 16 मार्च, 1937 ई. को राज्य से निर्वासित कर प्रजा मंडल की भ्रूण हत्या कर दी। नागरिक अधिकार आंदोलन को कुचलने का हरसंभव प्रयास किया गया।

राज्य की दमनकारी नीति के बावजूद बीकानेर के सुप्रसिद्ध वकील रघुवरदयाल ने 22 जुलाई, 1942 को बीकानेर राज्य प्रजा परिषद की स्थापना की। इसका मुख्य उद्देश्य महाराजा के नेतृत्व में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था। राजस्थान के लगभग सभी राज्यों में इस प्रकार की राजनीतिक संस्थाएँ 1938-39 ई. तक स्थापित हो चुकी थी। किन्तु महाराजा गंगासिंह को 1942 ई. में भी यह संस्था मंजूर नहीं हुई। महाराजा ने एक सप्ताह बाद ही रघुवरदयाल को राज्य से निर्वासित कर दिया। सरकारी दमननीति यथावत् रही। तिरंगे झंडे को फहराना राजद्रोह माना गया। जहाँ तक कि एक स्कूली छात्र द्वारिकाप्रसाद कौशिक ने अपनी कक्षा में उपस्थिति लेते समय जब यस सर के स्थान पर जय हिन्द का उच्चारण किया, तो उस स्कूल से ही निकाल दिया गया। महाराजा की कठोर दमन नीति के कारण इस राज्य की गतिविधियों पर भारत छोङो आंदोलन का भी कोई विशेष प्रभाव नहीं पङा।

2 फरवरी, 1943 को महाराजा गंगासिंह का देहान्त हो गया और उसका पुत्र शार्दुलसिंह गद्दी पर बैठा। शार्दुलसिंह भी गंगासिंह की भाँति दमन नीति में विश्वास करता था। अतः उसने भी उत्तरदायी शासन की स्थापना को रोकने का भरसक प्रयास किया। मार्च, 1943 ई. में नये महाराजा ने जनता के प्रतिनिधियों को उत्तरोत्तर अधिक मात्रा में प्रशासन से संबंधित करने का आश्वासन दिया तथा बीकानेर व्यवस्थापिका सभा की कार्य पद्धति में कुछ परिवर्तन भी किये, फिर भी उसके स्वरूप में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं आया। प्रजा परिषद के नेताओं ने जनता के प्रतिनिधियों के लिये अधिक अधिकारों की माँग की। किन्तु देश के तीव्र गति से होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों की उपेक्षा कर महाराजा जन आंदोलन का दमन करता रहा। महाराजा की दमनकारी नीति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी, जिसकी सर्वत्र आलोचना हुई। 26 अक्टूबर, 1944 को सारे राजस्थान में बीकानेर दमन विरोध दिवस मनाया गया। बीकानेर में भी मघाराम वैद्य द्वारा विरोध दिवस का आयोजन किया गया। यह बीकानेर में प्रथण सार्वजनिक प्रदर्शन था।

इसी प्रकार दुघवाखारा के जागीरदार के अत्याचारों से तंग आकर वहाँ के किसानों ने प्रजा परिषद के सहयोग से आंदोलन आरंभ कर दिया। सरकार ने किसान नेता हनुमानसिंह चौधरी को गिरफ्तार कर लिया। अतः अपने नेता की रिहाई की माँग को लेकर 7 जुलाई, 1945 को किसानों ने प्रजा परिषद के नेताओं की अगुवाई में एक जुलूस निकाला। सरकार ने मघाराम वैद्य तथा प्रजा परिषद के अनेक कार्यकर्त्ताओं को बंदी बना लिया। राज्य सरकार ने मार्च, 1946 में एक प्रेस अधिनियम प्रकाशित किया जिसने राज्य में प्रेस पर भारी प्रतिबंध लगा दिये और राज्य में किसी समाचार पत्र का प्रकाशित होना प्रायः असंभव हो गया। भारतीय राजनीतिक मंच पर तेजी से परिवर्तन होने के कारण 21 जून, 1946 को महाराजा ने घोषणा की कि राज्य में उत्तरदायी शासन शीघ्र स्थापित कर दिया जायेगा।

यद्यपि रघुवरदयाल पर राज्य में प्रवेश करने पर प्रतिबंध यथावत् लागू हुआ था, फिर भी वह 25 जून, 1946 को बीकानेर राज्य में प्रविष्ट हुए। शीघ्र ही उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। 30 जून, 1946 ई. को रायसिंह नगर में प्रजा परिषद का सम्मेलन करने का निश्चय किया गया। सत्यनारायण सर्राफ इस सम्मेलन के अध्यक्ष थे। 1 जुलाई को परिषद के कार्यकर्त्ता हाथ में तिरंगा झंडा लिये एक जुलूस के रूप में सम्मेलन में शरीक होने जा रहे थे। राज्य की पुलिस उनके हाथ से झंडे छीनकर उन्हें घसीटते हुए सरकारी विश्राम गृह की ओर ले गयी। जनता विश्रामगृह की ओर उमङ पङी जिसका नेतृत्व बीरबल सिंह नामक एक हरिजन नवजवान कर रहा था। पुलिस ने भीङ पर लाठियाँ चलायी और कुछ गोलियाँ भी चलायी। बीरबलसिंह की वहीं मृत्यु हो गयी। इस घटना की तीव्र आलोचना हुई। उधर भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण के संबंध में ब्रिटिश मंत्रिमंडल मिशन भारत पहुँच चुका था तथा भारत की स्वाधीनता निकट दिखायी दे रही थी। ऐसी स्थिति में महाराजा की नीति में कुछ परिवर्तन दिखाई दिया। 18 जुलाई, 1946 को रघुवरदयाल और चौधरी कुम्भाराम आर्य (जिन्हें किसान आंदोलन के सिलसिले में गिरफ्तार किया था) को जेल से रिहा कर दिया गया। बीकानेर शहर में प्रजा परिषद का कार्यालय पुनः स्थापित हो गया।

उधर ब्रिटिश मंत्रिमंडल मिशन के प्रतिवेदन के बाद भारत में अंतरिम सरकार के गठन की बाच चल रही थी। इधर बीकानेर महाराजा ने राज्य में संवैधानिक सुधार करने की दृष्टि से 31 अगस्त, 1946 को दो समितियाँ नियुक्त की। पहली संवैधानिक सुधार करने की दृष्टि से 31 अगस्त, 1946 को दो समितियाँ नियुक्त की। पहली संवैधानिक समिति जिसे राज्य का नया संविधान बनाना था और दूसरी मताधिकार समिति, जिसे मतदाताओं की योग्यता की योग्यता निर्धारित करना और निर्वाचन क्षेत्र बनाना था। इस प्रकार महाराजा जनता के समक्ष अपनी उदारता प्रदर्शित कर रहा था, लेकिन जब राज्य कर्मचारियों ने अपनी यूनियन बनाकर कुछ माँगें प्रस्तुत की तो सरकार ने इस यूनियन को भंग कर, यूनियन के कई कार्यकर्त्ताओं को बर्खास्त कर दिया। इस प्रकार राज्य सरकार को अपने कर्मचारियों के आंदोलन को कुचल कर निरंकुशता का परिचय दिया। इधर महाराजा द्वारा नियुक्त दोनों समितियाँ अपना कार्य कर रही थी। चूँकि दोनों समितियों में सरकारी सदस्यों का बहुमत था, इसलिए किसी विशेष परिवर्तन की आशा करना ही व्यर्थ था। उक्त समितियों की रिपोर्ट आने के बाद 1947 ई. में बीकानेर महाराजा कुछ संवैधानिक परिवर्तन करने को तैयार हुआ, लेकिन राज्य में उत्तरदायी शासन स्थापित करने का आश्वासन देने से अधिक कुछ करने को तैयार नहीं था। परिणाम यह हुआ कि 1947 ई. के प्रस्तावित सुधार केवल कागज पर ही रहे। प्रजा परिषद के नेता उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिये अधीर हो रहे थे और इसके लिये उनका आंदोलन यथावत चलता रहा। उधर देश में स्वतंत्रता की दिशा में तेजी से कार्य हो रहा था। और 15 अगस्त, 1947 ई. को देश स्वतंत्र भी हो गया, जिसका प्रभाव सभी राज्यों पर पङना स्वाभाविक ही था। अंत में अंतरिम सरकार बनाने तथा संविधान के अन्तर्गत विधान सभा के लिये चुनाव कराने के संबंध में राज्य के प्रधानमंत्री और परिषद के कार्यकर्त्ताओं के बीच 16 मार्च, 1948 को एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार 18 मार्च, को जसवंतसिंह दाऊदसर के नेतृत्व में आंतरिक मंत्रिमंडल ने पद ग्रहण किया। किन्तु प्रजा परिषद की साधारण सभा ने समझौते को अस्वीकृत कर दिया तथा अपने प्रतिनिधियों से मंत्री पद से त्याग पत्र देने को कहा। मंत्रियों और परिषद के सदस्यों में कुछ समय तक मतभेद बना रहा। लेकिन जब मंत्रियों को सरकार में अपनी वास्तविक स्थिति का ज्ञान हुआ तब व इस्तीफा देकर सरकार से बाहर आ गये। तब अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की राजपूताना प्रान्तीय सभा के अध्यक्ष गोकुलभाई भट्ट और महामंत्री पंडित हीरालाल शास्री प्रजा परिषद के दोनों गुटों में समझौता कराने बीकानेर आये। उन्होंने प्रजा परिषद की तत्कालीन कार्यकारिणी के स्थान पर एक तदर्थ समिति स्थापित की जिसके अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी और महामंत्री चंदनमल वैद्य बने। इसके कुछ समय बाद मार्च, 1949 को वृहत् राजस्थान निर्माण हुआ और पंडित हीरालाल शास्री के नेतृत्व में नये मंत्रिमंडल ने पद ग्रहण किया। इस नये मंत्रिमंडल में रघुवरदयाल को बीकानेर के प्रतिनिधि के रूप में लिया गया। इस प्रकार वृहद राजस्थान के निर्माण के बाद बीकानेर से राजतंत्र को अंतिम रूप से विदाई दी गयी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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