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अधीनस्थ एकता की नीति (1858-1905)

अधीनस्थ एकता की नीति

अधीनस्थ एकता की नीति

ईस्ट इंडिया का शासन 1858 में समाप्त कर दिया गया और भारत का शासन ब्रिटिश क्राउन के हाथ में आ गया। 1857 के विद्रोह की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने देशी राज्यों के प्रति अपनाई गयी नीति पर नये सिरे से विचार किया। 1858 से 1905 तक की अवधि में ब्रिटिश सरकार ने अधीनस्थ एकता की नीति अपनाई।

1858 से 1905 तक ब्रिटिश सरकार देशी राज्यों को शंका की दृष्टि से देखती थी। इन राज्यों के नरेशों को एक-दूसरे से अलग रखा गया। परंतु 1906 से लार्ड मिण्टो ने देशी नरेशों से संपर्क बढाना शुरू कर दिया तथा राष्ट्रीय आंदोलन का दमन करने के लिए देशी नरेशों से मिलकर कार्य करने की नीति अपनाई गयी।

1857 के विद्रोह के बाद लार्ड डलहौजी की नीति को उलट दिया गया तथा इस नीति को दृढता से अपनाया गया कि भविष्य में किसी भी देशी राज्य को किसी भी कारण से ब्रिटिश साम्राज्य में नहीं मिलाया जायेगा। 1858 में महारानी विक्टोरिया की घोषणा में कहा गया कि भविष्य में ब्रिटिश सरकार देशी राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में नहीं मिलायेगी तथा देशी नरेशों एवं नवाबों के साथ जो समझौते और प्रबंध हुए हैं, ब्रिटिश सरकार उनका सदैव आदर करेगी तथा उनके अधिकारों की रक्षा करेगी।

कैनिंग द्वारा अधीनस्थ एकता की नीति का सूत्रपात करना

लार्ड कैनिंग ने देशी नरेशों के सहयोग से ब्रिटिश शासन को चलाने की नीति का आरंभ किया। उसने गोद लेने की प्रथा को स्वीकार करके देशी नरेशों को आश्वस्त किया। हिन्दू देशी रियासतों के राजाओं को लिखित पत्र गवर्नर जनरल की ओर से दिया गया जिन्हें सनद कहा गया। इन सनदों के द्वारा देशी नरेशों का गोद लेने का अधिकार स्वीकार कर लिया गया। सरदारों के अनुसार भारत में प्रचलित उत्तराधिकार के नियमों और रीति-रिवाजों को ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार किया।

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