वेदान्त ज्ञानयोग का एक स्रोत है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथों और वैदिक साहित्य का सार समझे जाते हैं। उपनिषद् वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको वेदान्त कहते हैं। कर्मकांड और उपासना का मुख्यत: वर्णन मंत्र और ब्राह्मणों में है, ज्ञान का विवेचन उपनिषदों में।
‘वेदान्त’ का शाब्दिक अर्थ है – ‘वेदों का अंत’ (अथवा सार)।
वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और श्री मध्वाचार्य जिनको क्रमश: इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है, इनके अलावा भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं जिनमें भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बारक, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर और विज्ञान भिक्षु। आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदान्ती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, स्वामी शिवानंद स्वामी करपात्री और रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं। ये आधुनिक विचारक अद्वैत वेदान्त शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं।
दूसरे वेदान्तो के प्रवर्तकों ने भी अपने विचारों को भारत में भलिभाँति प्रचारित किया है, परन्तु भारत के बाहर उन्हें बहुत कम जाना जाता है।संत मे भी ज्ञानेश्वर महाराज, तुकाराम महाराज आदि संत पुरुषों ने वेदांत के ऊपर बहुत ग्रंथ लिखे है आज भी लोग संतो के उपदेशों के अनुकरण करते है।
अद्वैतवाद – इसमें ब्रह्म का विवेचन निर्गुण रूप में किया गया है।इसके प्रमुख दार्शनिक शंकराचार्य हैं।
द्वैतवाद – इसमें ब्रह्म को सगुण ईश्वर के रूप में विवृत किया गया है।रामानुज तथा मध्वाचार्य इस शाखा के प्रमुख दार्शनिक हैं। जिनके मत क्रमशः विशिष्टाद्वैत एवं द्वैत कहे जाते हैं।
वेदान्त का साहित्य
उपनिषद
विद्वानों ने उपनिषद(upanishad) शब्द की व्युत्पत्ति उप+ नि + षद के रूप में मानी है। इसका अर्थ है कि जो ज्ञान व्यवधान रहित होकर निकट आये , जो ज्ञान विशिष्ट तथा संपूर्ण हो तथा जो ज्ञान सच्चा हो वह निश्चित ही उपनिषद(upanishad कहलाता है…अधिक जानकारी
भगवदगीता
भगवद्गीता या गीता का भारतीय विचारधारा के इतिहास में लोकप्रियता की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है।आज भी यह हिन्दुओं का सबसे पवित्र एवं सम्मानित ग्रंथ है। गीता मूलतः महाभारत के भीष्मपर्व का अंश है। इसमें महाभारत युद्ध के अवसर पर कर्त्तव्यविमुख एवं भयभीत हुए अर्जुन को भगवान कृष्ण द्वारा किये गये उपदेशों का संग्रह है।
इसकी शिक्षा में एक उदार समन्वय की भावना है, जो हिन्दू विचारधारा की सर्वप्रमुख विशेषता रही है। इसमें प्रत्येक धर्म को मानने वाले के लिये रोचक एवं महत्त्वपूर्ण सामग्री मिल जाती है। डॉ.राधाकृष्णन के शब्दों में यह किसी सम्प्रदाय विशेष की पुस्तक नहीं है, अपितु संपूर्ण मानव समाज की सांस्कृतिक निधि है, जो हिन्दू धर्म को उसकी पूर्णता में उपस्थित करती है…अधिक जानकारी
शंकराचार्य तथा उनका दर्शन अद्वैतवाद
शंकराचार्य – प्राचीन भारत के दार्शनिकों एवं धर्माचार्यों में शंकराचार्य का नाम अग्रगण्य है। उनका जन्म केरल प्रांत के अल्वर नदी(मालवार तट) के उत्तरी किनारे पर स्थित कलादी नामक ग्राम में 788 ई. के लगभग हुआ था। इनके पिता शिवगुरु नम्बूतिरि ब्राह्मण थे तथा उनकी माता का नाम आर्यम्बा था। बचपन में ही उनके पिता का देहान्त हो गया, जिससे उनके पालन-पोषण का सारा भार उनकी माता पर ही पङा…अधिक जानकारी
अद्वैतवाद – शंकराचार्य संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित थे।उनका मत अद्वैतवाद के नाम से विख्यात है। यह उपनिषदों के बहुत निकट है। प्रस्थानत्रयी अर्थात् उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र तथा गीता पर लिखे गये भाष्यों के माध्यम से शंकर ने अपने मत का प्रतिपादन एवं समर्थन किया है। उपनिषदों में वर्णित विभिन्न दार्शनिक सिद्धांतों को एक सूत्र में पिरोकर उन्होंने उनको एक क्रमबद्ध दर्शन का रूप प्रदान किया है…अधिक जानकारी
रामानुज तथा विशिष्टाद्वैत
रामानुज – भारतीय दार्शनिकों में शंकर के बाद रामानुज का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जिन्होंने अपने विचारों के माध्यम से अद्वैतवाद का वैयक्तिक भक्तिवाद के साथ सुन्दर समन्वय करने का प्रयास किया है। उनका जन्म 1017 में दक्षिण में हुआ तथा वे 120 वर्षों (1137 ई. तक)जीवित रहे…अधिक जानकारी
विशिष्टाद्वैत – रामानुज ने जिस मत की स्थापना की वह विशिष्टादेवैतवाद था। रामानुज ज्ञान को द्रव्य मानते हैं।उनके अनुसार इसकी प्राप्ति के तीन सधान हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द। अन्य कारणों को उन्होंने इन्ही तीनों के अंतर्गत समाविष्ट कर लिया है…अधिक जानकारी