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भगवद गीता के बारे में जानकारी

भगवद गीता

भगवद्गीता या गीता का भारतीय विचारधारा के इतिहास में लोकप्रियता की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है।आज भी यह हिन्दुओं का सबसे पवित्र एवं सम्मानित ग्रंथ है। गीता मूलतः महाभारत के भीष्मपर्व का अंश है। इसमें महाभारत युद्ध के अवसर पर कर्त्तव्यविमुख एवं भयभीत हुए अर्जुन को भगवान कृष्ण द्वारा किये गये उपदेशों का संग्रह है।

इसकी शिक्षा में एक उदार समन्वय की भावना है, जो हिन्दू विचारधारा की सर्वप्रमुख विशेषता रही है। इसमें प्रत्येक धर्म को मानने वाले के लिये रोचक एवं महत्त्वपूर्ण सामग्री मिल जाती है। डॉ.राधाकृष्णन के शब्दों में यह किसी सम्प्रदाय विशेष की पुस्तक नहीं है, अपितु संपूर्ण मानव समाज की सांस्कृतिक निधि है, जो हिन्दू धर्म को उसकी पूर्णता में उपस्थित करती है।

गीता का उपनिषदों के साथ घनिष्ठ संबंध है। प्रत्येक अध्याय के अंत में इसे गीता नाम का उपनिषद् कहा गया है। वैष्णवीय तंत्रसार के एक श्लोक के अंदर उपनिषद तथा गीता के संबंधों को अत्यंत सुन्दर ढंग से व्यक्ति किया गया है। जिसके अनुसार सभी उपनिषद् गायें हैं, कृष्ण उन्हें दुहने वाले हैं, अर्जुन बछङा हैं, बुद्धिमान लोग पीने वाले हैं तथा अमृतरूपी गीता ही दूध है। इससे स्पष्ट है, कि गीता ने अपने आदर्श उपनिषदों से ही ग्रहण किया, किन्तु उन्हें महाभारत कालीन परिस्थितियों में नये एवं शक्तिशाली ढंग से प्रस्तुत किया। इसका मुख्य लक्ष्य मानव जीवन की विविध समस्याओं को सुलझाते हुये मनुष्य को कर्त्तव्य मार्ग पर प्रवृत्त करना एवं सदाचार को प्रोत्साहन देना है।

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गीता की प्रमुख शिक्षायें

कर्मयोग

गीता की शिक्षा का केन्द्र – बिन्दु उसका कर्मयोग का सिद्धांत है। कर्म तथा योग दो शब्दों से मिलकर बना है। कर्म का अर्थ है, साधारण कार्य जो किया जाता है,लेकिन गीता के समय तक इसका एक अर्थ यज्ञ भी हो गया था। गीता में कर्म का प्रयोग प्रधानतः कर्त्तव्य के अर्थ में हुआ है, जो इस समय विभिन्न वर्णों के साथ संयुक्त थे। कहीं-कहीं यह शब्द प्रार्थना के अर्थ में भी प्रयुक्त मिलता है। कर्मयोग के संदर्भ में हमें कर्म का अर्थ सामाजिक कर्त्तव्य ही ग्रहण करना चाहिये।

योग का अर्थ है अपने को लगाना। इस प्रकार कर्मयोग का अर्थ सामाजिक कर्त्तव्य करने के प्रति निष्ठा है। स्वेच्छा से किया गया प्रत्येक कार्य कोई न कोई फल प्राप्त करने के उद्देश्य से होता है। गीता में हम देखते हैं, के अर्जुन राज्य प्राप्त करने के लिये युद्ध करने को प्रस्तुत है। किन्तु इस प्रकार कार्य जो फल प्राप्ति की इच्छा को सर्वथा मस्तिष्क से हटा देना। निःसंदेह कृत कर्म का कोई न कोई फल अवश्य होता है, किन्तु वह कर्मयोगी का लक्ष्य नहीं होता है।

इस प्रकार का कर्म करने से हमारी पूरी निष्ठा कर्म के प्रति होती तथा हम पूर्ण समत्व के साथ उसे सम्पन्न करने में जुट जाते हैं। एक स्थान में समत्व को ही योग कहा गया है। इस प्रकार गीता के कर्मयोग से तात्पर्य यह है, कि सामाजिक अव्यवस्था का सदस्य होने के नाते हमें अपने कर्त्तव्य में सामान्य ढंग से, बिना किसी फल की इच्छा के, जुट जाना चाहिये। यही गीता का मुख्य संदेश है, जिसे कृष्ण स्वयं अपने सुख से व्यक्त करते हुये कहते हैं – कर्म में ही तुम्हारा अधिकार हो, फल में कभी नहीं। कर्मफल का हेतु भी मत बनो, अकर्म (कर्म न करने) में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।

यदि हम तत्कालीन समाज में प्रचलित विचारधाराओं का अवलोकन करें तो गीता के कर्मयोग का महत्त्व स्पष्ट हो जायेगा। गीता केै समय में आस्तिक लोगों में जीवन संबंधी दो प्रकार के दृष्टिकोण प्रचलित थे –

प्रवृत्ति का दृष्टिकोण जो संसार में रहकर सभी कर्त्तव्यों को करने तथा भोगों को भोगने का था।

निवृत्ति का दृष्टिकोण जिससे सांसारिकता से विमुख होकर संन्यास ग्रहण कर लेने का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया था।

गीता प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के आदर्शों के बीच एक स्वर्णिम मार्ग ढूँढ निकालती है, जिसे यहाँ कर्मयोग की संज्ञा दी गयी है। इसमें दोनों आदर्शों में से किसी को भी छोङा नहीं गया है, तथा इनमें समन्वय स्थापित कर इन्हें परिष्कृत कर दिया गया है। प्रवृत्ति से कर्म तथा निवृत्ति से त्याग को ग्रहण कर उन्हें संयुक्त कर दिया गया है।

यहां कर्म के त्याग की बात न कहकर कर्म में त्याग अर्थात् कर्मफल के त्याग की बात कही गयी है। कर्म की महत्ता का प्रतिपादन करते हुये कहा गया है, कि क्षणभर के लिये भी कोई बिना कर्म किये नहीं रह सकता। प्रकृति के गुणों से विवश होकर प्रत्येक को कर्म करने पङते हैं। देहधारी व्यक्ति के लियं यह संभव नहीं है, कि वह कर्मों का पूर्णतया त्याग कर सके। अतः जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी कहा जाता है।

इस प्रकार गीता निष्काम कर्मयोग के सिद्धांत को हमारे समक्ष अत्यन्त उत्कृष्ट एवं प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करती है। गीता का मत है, कि हमें अपना नियत कर्म कभी भी नहीं छोङना चाहिये, भले ही वह दोषपूर्ण क्यों न हो, क्योंकि सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त होते हैं। अपने – अपने स्वाभाविक कर्म को करता हुआ व्यक्ति ही सिद्धि को प्राप्त करता है। गुण रहित स्वाभाविक कर्म को करता हुआ व्यक्ति ही सिद्धि को प्राप्त करता है।

गुण रहित अपना कर्म अच्छी प्रकार से किये गये दूसरे के कर्म की अपेक्षा श्रेयस्कर है। स्वभाव से नियत अपने कर्म को करने से मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार गीता यह प्रतिपादित करती है, कि कर्म करना मनुष्य का स्वभाव है तथा कोई भी मत जो कर्म की उपेक्षा करता है, या उसके महत्व को कम करता है, सही नहीं हो सकता। किन्तु यह कर्म उचित उद्देश्य से प्रेरित होना चाहिये अन्यथा यह मनुष्य को जीवन के उच्च आदर्श से च्युत कर देगा।

तो फिर वह आदर्श अथवा उद्देश्य क्या है, जो कर्मयोगी की प्रेरणा का स्त्रोत बनता है। गीता इसके दो उद्देश्य बताती है – आत्मशुद्धि तथा ईश्वर के उद्देश्य क्या हैं, जो कर्मयोगी की प्रेरणा का स्त्रोत बनता है। गीता इसके दो उद्देश्य बताती है – आत्मशुद्धि तथा ईश्वर के उद्देश्यों में सहायक होना। इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है, कि कर्मयोग केवल भौतिक दृष्टि से ही निष्काम होता है न कि आध्यात्मिक दृष्टि से।इसका उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति न होकर मनुष्य की आध्यात्मिक प्रकृति को उन्नत करना है। यही गीता के अनुसार हमारे सभी कार्यों का लक्ष्य है।

यहाँ उल्लेखनीय है कि गीता सन्यास की अवस्था में भी कर्म त्याग करने का उपदेश नहीं करती है। संन्यास का अर्थ राग, इच्छा, आसक्ति तथा सभी कर्मों के फल का त्याग बताया गया है। आत्मज्ञान प्राप्त किया हुआ योगी भी लोक कल्याण के निमित्त कार्य करता है। ईश्वर स्वयं, यद्यपि उसके लिये कुछ भी अप्राप्य नहीं है, मानवता के लाभ के लिये ही कार्य करता है। सभी कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके तथा आसक्ति होकर जो व्यक्ति कार्य करता है, वह पाप से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जैसे जल से कमल का पत्ता। इस प्रकार चाहे हम दृष्टि से विचार करें तो पाते हैं, कि गीता में सर्वत्र कर्म की महत्ता का प्रतिपादन मिलता है।

ज्ञानयोग

गीता में ज्ञान को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसके अनुसार इस संसार में ज्ञान से बढकर कोई दूसरी पवित्र वस्तु नहीं है। कर्मयोगी का आदर्श आत्म-साक्षात्कार है, जो ज्ञान के बिना असंभव है। बताया गया है, कि ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को जला देती है। कृष्ण ने ज्ञानी को साक्षात् अपना स्वरूप ही बताया है। गीता में ज्ञान को सर्वोच्च प्राथमिकता हेते हुये कहा गया है, सांसारिक वस्तुओं से सिद्ध होने वाला यश से ज्ञान रूपी यज्ञ सब प्रकार से श्रेष्ठ है, क्योंकि संपूर्ण कर्मों की पराकाष्ठा ज्ञान ही है। बङे से बङा पापी भी ज्ञान रूपी नौका के द्वारा भव सागर को पार कर जाता है।

किन्तु ज्ञान का कर्म के साथ समन्वय स्थापित किया गया है। ज्ञान के बिना इच्छा तथा आसक्ति का त्याग संभव नहीं है। केवल सच्चा ज्ञानी ही निष्काम कर्मयोगी हो सकता है। अतः गीता का स्पष्ट मत है, कि ज्ञान तथा कर्मयोग दोनों एक ही हैं। केवल मूर्ख लोग ही इन्हें अलग-अलग समझते हैं। एक में भी सम्यक् रूप से स्थित हुआ दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है।

भक्तियोग

गीता का तीसरा मार्ग भक्तियोग है और यह भी कर्म तथा ज्ञान के साथ समन्वित है। भक्ति को यहाँ भगवान की निष्काम सेवा बताया गया है। इस प्रकार यह कर्म का ही एक रूप है।चूँकि ज्ञानी ही निष्काम कर्मयोगी है, अतः ज्ञान के अभाव में भक्ति भी संभव हो सकती है। गीता का कथन है, कि हमें कर्मों को करते उनका फल ईश्वर में अर्पित कर देना चाहिये। कर्मों का अनुष्ठान एक प्रकार से भगवान की पूजा ही है, जिससे मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है। यहाँ कर्म तथा शक्ति का समन्वय है। कर्मयोगी को भगवान की तरफ से यह आश्वासन प्राप्त रहता है, कि उसका विनाश नहीं होता है।

गीता का स्पष्ट मत है, कि ज्ञान की प्राप्ति प्रणिपत्ति तथा सेवा से ही संभव है। जिसमें श्रद्धा है वही ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। भगवान अर्जुन से भक्ति का महत्त्व स्पष्ट करते हुये कहते हैं, मेरा भक्त मुझे ही प्राप्त होता है। तुम मेरे में ही अपना मन लगाओ, मेरी ही भक्ति करो, मुझे ही नमस्कार करो, मुझमें ही अपने को लगाकर तुम मुझे प्राप्त कर सकते हो। सभी धर्मों को छोङकर मात्र मेरी शरण में आओ।

मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत करो………। इस प्रकार गीता में कर्म, भक्ति तथा ज्ञान का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है, जो अन्यत्र सर्था दुष्टप्राय है। इसका स्वर पूरी तरह से आशावादी है, जिसमें निराशावाद के लिये कोई भी स्थान नहीं है। निष्ठावान अपना कर्त्तव्य करने वाले के लिये गीता का यह आदेश सदा प्रेरणा का स्त्रोत रहेगा – अच्छा कर्म करने वाला कभी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है तथा निष्काम कर्म का थोङा-सा अनुष्ठान भी महान भय से रक्षा करता है।

गीता के आध्यात्मिक विचार

गीता का आध्यात्मिक विचार इस तथ्य में निहित है, कि असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है तथा सत् वस्तु का अभाव नहीं है। तदनुसार अविनाशी वह है, जिससे सम्पूर्ण जगत व्याप्त है।यह तत्व आत्मा है जिसका विनाश कोई भी नहीं कर सकता। शरीर नश्वर है। आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है।यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों का त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार यह पुराने शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण कर लेता है। यह सभी के शरीर में सदा ही अबध्य है।

गीता में ब्रह्म के सगुण तथा निर्गुण दोनों ही रूपों की विवेचना मिलती है, किन्तु सगुण को निर्गुण की अपेक्षा श्रेष्ठ बताया गया है। वही उपासना का विषय हो सकता है। प्रकृति को संसार का आदि कारण बताया गया है। हमारे सभी कर्म उसी के गुओं द्वारा संपन्न होते हैं, किन्तु अहंकार के वशीभूत आत्मा अपने को उनका कत्ता मानने लगता है। ईश्वर ही प्रकृति रूपी योनि के बीच स्थापित करता है, जिससे समस्त सृष्टि की उत्पत्ति होती है।

प्रकृति के तीन गुण- सत, रज, तम, जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं। संसार की सभी वस्तुओं का ईश्वर ही एकमात्र अवलम्बन है। वह सभी भूतों के ह्रदय में निवास करता है तथा अपनी माया से सभी को नचाया करता है। मोक्ष उसी की कृपा से संभव है। गीता के आध्यात्मवाद में सांख्य की प्रकृति, उपनिषदों के ब्रह्म तथा भागवतों के ईश्वर का समन्वय मिलता है।

गीता के आध्यात्मिक सिद्धांतों की अपेक्षा उसके व्यावहारिक सिद्धांतों का महत्त्व अधिक है तथा इसी ने ग्रंथ को मानव जीवन के अत्यन्त निकट ला दिया है। इन सिद्धांतों ने तिलक तथा गाँधी जैसे मनीषियों को प्रेरणा प्रदान किया था। महात्मा गाँधी तो इसे विश्व माता कहते थे, जिसका द्वार सभी के लिये खुला है। गीता का सच्चा उपासक निराशा का नाम नहीं जानता तथा कर्त्तव्य – पथ पर सदैव अग्रसर रहता है। निःसंदेह यह ग्रंथ मानवता का ग्रंथ है तथा इसके सिद्धांत सार्वभौम मान्यता रखते हैं।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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