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प्राचीन भारतीय शिक्षा तथा साहित्य

प्राचीन भारतीय शिक्षा तथा साहित्य

शिक्षा

प्राचीन भारतीय सभ्यता विश्व की सर्वाधिक रोचक तथा महत्त्वपूर्ण सभ्यताओं में एक है। इस सभ्यता के समुचित ज्ञान के लिये हमें इसकी सुरक्षा का अध्ययन करना आवश्यक है, जिसने इस सभ्यता को चार हजार वर्षों से भी अधिक समय तक सुरक्षित रखा, प्रचार-प्रसार किया तथा उसमें संशोधन किया। प्राचीन भारतीयों ने शिक्षा को उत्यधिक महत्त्व प्रदान किया। भौतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान तथा विभिन्न उत्तरदायित्वों के विधिवत् निर्वाह के लिये शिक्षा की महती आवश्यकता को सदा स्वीकार किया गया। वैदिक युग से ही इसे प्रकाश का स्त्रोत माना गया, जो मानव जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को आलोकिक करते हुये उसे सही दिशा-निर्देश देता है।
सुभाषित रत्नसंदोह में कहा गया है, कि ज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है, जो उसे समस्त तत्वों के मूल को जानने में सहायता करता है तथा सही कार्यों को करने की विधि बताता है। महाभारत में वर्णित है, कि विद्या के समान नेत्र तथा सत्य के समान तप कोई दूसरा नहीं है। इसे मोक्ष का साधन माना गया है। सुभाषितरत्न भंडार में कहा गया है,कि जीवन की समस्त कठिनाइयों तथा बाधाओं को दूर करने वाले ज्ञान रूपी नेत्र जिसे प्राप्त नहीं हैं, वह वस्तुतः अंधा है। प्राचीन भारतीयों का यह दृढ विश्वास था, कि शिक्षा कठिनाइयों तथा बाधाओं को दूर करने वाले ज्ञान रूपी नेत्र जिसे प्राप्त नहीं हैं वह वस्तुतः अंधा है। प्राचीन भारतीयों का यह दृढ विश्वास था, कि शिक्षा द्वारा प्राप्त एवं विकसित की गयी बुद्धि ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति होती है। विद्या के विविध उपयोग बताये गये हैं।
यह माता के समान रक्षा करती है, पिता के समान हितकारी कार्यों में नियोजित करती है, पत्नी के समान दुःखों को दूर कर आनंद पहुँचाती है, यश तथा वैभव का विस्तार करती हैं। यह कल्पलता के समान गुणकारी है। विद्या, विनय प्रदान करती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से व्यक्ति धन प्राप्त करता है, धन से धर्म तथा अंत में सुख की प्राप्ति होती है। विद्या को सभी धनों में प्रधान निरूपित करते हुये बताया गया है, कि इसे न चोर चुरा सकता है, न भाई बाँट सकता है, न राजा छीन सकता है और न ही यह मनुष्य के लिये भारतुल्य होती है।
यह ऐसा धन है, जो व्यय करने पर भी बराबर बढता है। यहां तक कि ब्राह्मण भी यदि विद्या रहित है, तो वह शूद्र के समान ही है। विद्या-संबंधी समस्त गुणों का निरूपण करने के बाद भारतीय मनीषियों ने यह घोषित किया कि विद्या से विहीन व्यक्ति वस्तुतः पशु तुल्य है। प्राचीन भारतीयों की दृष्टि में शिक्षा मनुष्य के सर्वाङ्गीण विकास का साधन थी। इसका उद्देश्य मात्र पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना नहीं था, अपितु मनुष्य के स्वास्थ्य का भी विकास करना था। कहा गया है, कि शास्त्रों का पंडित भी मूर्ख है, यदि उसने कर्मशील व्यक्ति के रूप में निपुणता प्राप्त नहीं की है।
शिक्षा के द्वारा मनुष्य आजीविका का उत्तम साधन प्राप्त करता है। किन्तु इसे मात्र आजीविका का साधन मानना भारतीयों की दृष्टि में अभीष्ट नहीं था। ऐसी मान्यता वालों की निन्दा की गयी है। प्राचीन विचारकों की दृष्टि में शिक्षा मनुष्य के साथ आजीवन चलने वाली वस्तु है। सच्चा अध्यापक वह है, जो अपने जीवन के अंत तक विद्यार्थी बना रहता है। इस प्रकार प्राचीन भारतीयों की दृष्टि में शिक्षा व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक उत्थान का सर्वप्रमुख माध्यम है।

शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य

शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना था। भारतीय शास्त्रों में सच्चरित्रता को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। यह व्यक्ति का सबसे बङा आभूषण है। चरित्र एवं आचरण से हीन व्यक्ति की सर्वत्र निन्दा की गयी है…अधिक जानकारी

शिक्षा के पाठ्यक्रम

ऋग्वैदिक अथवा पूर्व-वैदिक काल में शिक्षा का मुख्य पाठ्यक्रम वैदिक साहित्य का अध्ययन ही था। पवित्र वैदिक ऋचाओं के अलावा इतिहास,पुराण तथा नाराशंसी गाथायें एवं खगोल-विद्या, ज्यामिति,छंदशास्त्र आदि भी अध्ययन के विषय थे…अधिक जानकारी

गुरुकुल पद्धति

प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति का एक प्रमुख तत्व गुरुकुल व्यवस्था है। इसमें विद्यार्थी अपने घर से दूर गुरु के घर पर निवास कर शिक्षा प्राप्त करता था…अधिक जानकारी

गुरु-शिष्य संबंध

प्राचीन भारतीय समाज में गुरु को अत्यन्त आदरपूर्ण स्थान दिया गया था। उसे देवता माना जाता था। गुरु-शिष्य संबंध अत्यन्त मधुर एवं सौहार्दपूर्ण थे। प्राचीन युग में सार्वजनिक शिक्षण संस्थायें, जहां प्रबंध समिति द्वारा नियुक्त अध्यापक शिक्षण कार्य करते थे, बहुत कम थी…अधिक जानकारी

शिक्षण शुल्क

प्राचीन भारतीय शिक्षा में शुल्क प्रदान करने का कोई निश्चित नियम नहीं था। प्रायः शिक्षा निःशुल्क होती थी। शिक्षा प्रदान करना विद्वानों एवं आचार्यों का पुनीत कर्तव्य माना गया था। जो लोग शुल्क पाने की लालसा से शिक्षा प्रदान करते थे, समाज उन्हें निन्दा की दृष्टि से देखता था…अधिक जानकारी

परीक्षा तथा उपाधियाँ

प्राचीन शिक्षा पद्धति में आधुनिक युग की भाँति परीक्षा लेने तथा उपाधि प्रदान करने की प्रथा का अभाव था। विद्यार्थी गुरु के सीधे संपर्क में रहते थे। जब वे एक पाठ याद कर लेते तथा गुरु उससे संतुष्ट हो जाता तब उन्हें दूसरा पाठ याद करने को दिया जाता था…अधिक जानकारी

शिक्षा पद्धति के दोष

प्राचीन शिक्षा पद्धति की यदि हम आलोचनात्मक समीक्षा करें, तो उसमें गुणों के साथ-साथ कुछ दोष भी दिखाई देते हैं। इन दोषों का विवरण निम्नलिखित है-…अधिक जानकारी

प्राचीन विश्वविद्यालय
नालंदा
बलभी
विक्रमशिला

प्राचीन भारतीय साहित्य
ब्राह्मण या वैदिक साहित्य – वेद, ब्राह्मण ग्रंथ,आरण्यक,उपनिषद,वेदांग,पुराण, स्मृति ग्रंथ,बौद्ध साहित्य(त्रिपिटक)जैन साहित्य (बारह अंग,बारह उपांग,दस प्रकीर्ण, छेदसूत्र, मूलसूत्र, नान्दी सूत्र तथा अनुयोग द्वार)

लौकिक साहित्य – रामायण, महाभारत

संस्कृत के प्रमुख कवि तथा ग्रंथ – कालिदास, भारवि, माघ, श्रीहर्ष,नाट्य साहित्य (भास,विशाखादत्त, शूद्रक, हर्षवर्धन,भवभूति, राजशेखर),गद्य साहित्य (बाणभट्ट, दंडी) ऐतिहासिक कवि तथा ग्रंथ (पद्मगुप्त,विल्हण, कल्हण, हेमचंद्र),कथा साहित्य(गुणाढ्य, वृहत्कथामंजरी, कथासरित्सागर, पंचतंत्र, हितोपदेश, शब्दकोश)

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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