कालिदास के बाद संस्कृत कवियों में भारवि का ऊँचा स्थान है, जो लगभग कालिदास के ही समकालीन थे। उनमें कालिदास की शैली तथा प्रतिभा की कुछ छाप दिखाई देती है। भारवि की कीर्ति का आधार-स्तंभ उनकी एकमात्र रचना किरातार्जुनीय महाकाव्य है, जिसकी कथावस्तु महाभारत से ली गयी है। इसमें अर्जुन तथा किरात वेषधारी शिव के बीच युद्ध का वर्णन है। अन्ततोगत्वा शिव प्रसन्न होकर अर्जुन को पाशुपतास्त्र प्रदान करते हैं।
किरातार्जुनीय एक वीररस प्रधान 18 सर्गो का महाकाव्य है। इनका प्रारंभ श्री शब्द से होता है तथा प्रत्येक सर्ग के अंतिम श्लोक में लक्ष्मी शब्द का प्रयोग मिलता है। यह कृति अपने अर्थ-गौरव के लिये सुप्रसिद्ध है। कवि ने बङे से बङे अर्थ को थोङे से शब्दों में प्रकट कर अपनी काव्य-कुशलता का परिचय दिया है। कविता में नैतिक सिद्धांतों का प्रतिपादन बहुलता से किया गया है।
कोमल भावों का प्रदर्शन भी कुशलतापूर्वक किया गया है। प्राकृतिक दृश्यों तथा ऋतुओं का वर्णन भी रमणीय है। भारवि ने केवल एक अक्षर “न” वाला श्लोक लिखकर अपनी काव्य चातुरी का परिचय दिया है। कहीं-कहीं कविता में कठिनता भी आ गयी है। इस कारण विद्वानों ने इनकी कविता को नारिकेल फल के समान बताया है। किरात में राजनीतिक सिद्धांतों का प्रतिपादन भी अत्यन्त उत्कृष्टता के साथ किया गया है। द्वितीय सर्ग में भीम-युधिष्ठिर संवाद इसका ज्वलन्त उदाहरण है। राजनीति के उदात सिद्धांतों का प्रतिपादन भारवि अत्यन्त तार्किक ढंग से करते हैं। उनके पात्र कहीं भी शिष्टाचार तथा विनय का उल्लंघन नहीं करते।
भाषा उदात्त एवं ह्रदय को प्रभावित करने वाली है। कोमल तथा उग्र दोनों प्रकार के भावों को प्रकट करने की उसमें समान शक्ति एवं सामर्थ्य है। प्रकृति के दृश्यों का वर्णन भी अत्यन्त मनोहारी है।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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