प्राचीन साहित्य के कथाकारों में गुणाढ्य का नाम सर्वप्रथम उल्लेखनीय है। वह सातवाहन नरेश हाल (प्रथम-द्वितीय शती.)का दरबारी कवि था। उसकी प्रसिद्ध रचना वृहत्कथा है। यह अद्भुत यात्रा विवरणों तथा प्रणय प्रसंगों का संग्रह है। इसकी रचना पैशाची भाषा में की गयी है। तथा यह ग्रंथ आज मूल रूप में प्राप्त नहीं होता है। इसके विषय में हम धनपाल, सोड्ढल, दंडी आदि के द्वारा जानकारी प्राप्त करते हैं।
वृहत्कथा की लोकप्रियता से प्रभावित होकर अनेक विद्वानों ने संस्कृत में उसका अनुवाद प्रस्तुत किया। संस्कृत के कवियों ने वृहत्कथा से अनेक सामग्रियाँ लेकर अपनी कृतियों का निर्माण किया है। धनंजय ने अपने दशरूपक में वृहत्कथा को एक उपजीव्य ग्रंथ बताते हुये इसे रामायण की कोटि में रखा है। विशाखादत्त, भास, हर्ष आदि ने इससे सामग्रियाँ लेकर अपने कुछ नाटकों की रचना की थी। बाण तथा दंडी जैसे प्रसिद्ध गद्यकार भी वृहत्कथा के ऋणी हैं। दंडी का दशकुमाचरित तो स्पष्टतः उसी के आधार पर लिखा गया है।
संस्कृत के दो कवियों क्षेमेन्द्र तथा सोमदेव ने वृहत्कथा का संस्कृत भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया है, जिनके नाम क्रमशः वृहत्कथामंजरी तथा कथासरित्सागर हैं। इनका विवरण निम्नलिखित है-
वृहत्कथामंजरी
क्षेमेन्द्र कृत इस ग्रंथ में वृहत्कथा का अनुवाद है। ग्रंथ को सुरुचिपूर्ण बनाने के उद्देश्य से कवि ने मूलकथा में कुछ अन्य कथाओं का भी समावेश कर दिया है। इस रचना का मुख्य उद्देश्य वृहत्कथा के कथानकों से संस्कृत के अध्येताओं को परिचित कराना है। क्षेमेन्द्र की कथा प्रणाली में अनेक विशेषतायें हैं। नारी-सौन्दर्य तथा राजकुमारी के शौर्य वर्णन में क्षेमेन्द्र ने कुशलता पायी है। इसमें कुल 7500 श्लोक हैं, जो 16 लंबकों (सर्गों) में विभाजित हैं। कहीं-कहीं भाषा क्लिष्ट तथा दुर्बोध हो गयी है। ऋतुओं तथा प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन भी चमत्कारपूर्ण है। कथा में क्षेमेन्द्र ने हास्यरस का बङा सुन्दर समावेश किया है। इसके माध्यम से उन्होंने अपने युग के पाखंडियों की खिल्ली उङाई है।
क्षेमेन्द्र की रचना का उद्देश्य मात्र रोचक एवं हास्यस्पद कथानक प्रस्तुत करना ही नहीं था, अपितु इनके माध्यम से सामान्य जन-जीवन को नैतिक दृष्टि से उन्नत बनाना भी था। इस दृष्टि से वृहत्कथामंजरी एक उपदेशात्मक रचना है।
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कथासरित्सागर
इसकी रचना सोमदेव ने कश्मीर नरेश अनन्त की रानी सूर्यवती के मनोरंजन के लिये की थी। इसमें 18 लंबक तथा 21688 श्लोक हैं। वृहत्कथा का यह अनुवाद समस्त ग्रंथों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। सोमदेव ने जोर देकर यह कहा है, कि उनका मूल वृहत्कथा अनुसार ही है, मूल से थोङा भी हटकर नहीं है।भाषा के भेद के साथ ही साथ मूल ग्रंथ की अपेक्षा कहीं विस्तृत और कहीं इसे संक्षिप्त किया गया है-
यथामूलं तथैवैतत् न मनागप्यतिक्रमः।
ग्रंथविस्तार संक्षेप मात्रं भाषा च विद्यते।।
सोमदेव का वर्णन विस्तृत है तथा उन्होंने सामाजिक जीवन के विविध पहलुओं का सम्यक् चित्रण उपस्थित किया है। जीव-जंतुओं एवं पृथ्वी-रचना संबंधी अनेक प्राचीन आख्यान भी इसमें मिलते हैं। समाज के निकट पात्रों का चित्रण भी इसमें खुलकर मिलता है।जुआरी, चोर, धूर्त्त, लम्पट, ठग, रंगीले भिक्षु आदि का चित्रण यथार्थ ढंग से किया गया है। स्त्रियों की पतनोन्मुख सामाजिक स्थिति का विवरण सोमदेव ने किया है। इन सबके कारण कथासरित्सागर तत्कालीन सामाजिक जीवन का दर्पण बन गया है। सोमदेव की कथाओं का व्यापक प्रभाव पाश्चात्य कथाओं के ऊपर पङा।
सोमदेव की भाषा सरल एवं परिष्कृत है तथा उसमें क्षेमेन्द्र जैसी दुर्बोधता नहीं मिलती। शैली अत्यन्त रोचक है तथा इसमें समासों की बहुलता का अभाव है। उनकी शैली में अद्भुत आकर्षण है। दिन-प्रतिदिन के व्यवहार में आने वाली सुन्दर सूक्तियों का प्रयोग कवि ने किया है। स्थान-स्थान पर नीति-विषयक उपदेशों की भरमार है। एक उदाहरण दर्शनीय है-
कन्दुको भित्ति निःक्षिप्त इव प्रतिफलम् मुहुः।
आपातत्यात्मुनि प्रायो दोषोन्यस्य चिकीर्षितः।।
इसका मतलब यह है कि जिस प्रकार सामने दीवार पर फेंका हुआ गेंद लौटकर फेंकने वाले पर ही गिरता है, उसी प्रकार दूसरे का बुरा चाहने वाले का अपना ही बुरा होता है।
इसी प्रकार एक अन्य स्थल पर सोमदेव लिखते हैं, कि अज्ञान के कारण कुपात्र को दी गयी विद्या के समान कुपात्र को दी गयी कन्या न यश के लिये होती है, न धर्म के लिये अपितु वह पश्चात्ताप के लिये ही होती है-
विद्येव कन्यका मोहादपात्रे प्रतिपादिता।
यशसे न न धर्माय जायेतानुशयाय तु।।
निःसंदेह सोमदेव की उक्तियाँ बङी ही मनोहर तथा ह्रदयग्राह्य हैं। इन्हीं से उनका ग्रंथ देश विदेश में लोकप्रियता अर्जित कर सका है।
शब्दकोश
संस्कृत साहित्य में शब्दकोशों की भी रचना की गयी। शब्दकोश लिखने की प्रथा वैदिक काल से ही प्रचलित थी। लौकिक संस्कृत के कई शब्दकोश मिलते हैं, जिनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण शब्दकोश अमरसिंह द्वारा विरचित है, जिसे लेखक के ही नाम पर अमरकोश की संज्ञा प्रदान की जाती है। इसकी रचना अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से हुई है। इसकी अनेक टीकायें प्रकाशित हो चुकी हैं। अमरसिंह गुप्तकाल की विभूति थे। आज भी उनका शब्दोकश नितान्त प्रामाणिक स्वीकार किया जाता है। इसकी टीकाओं में क्षीरस्वामी भट्ट (1050ई.) की टीका सबसे अधिक लोकप्रिय है।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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