सातवाहनों की भाषा एवं साहित्य का इतिहास
सातवाहन काल में महाराष्ट्री प्राकृत भाषा दक्षिणी भारत में बोली जाती थी। यह राष्ट्रभाषा थी। सातवाहनों के अभिलेख इसी भाषा में लिखे गये हैं।
सातवाहन नरेश स्वयं विद्वान, विद्या-प्रेमी तथा विद्वानों के आश्रयदाता थे। हाल नामक राजा एक महान् कवि था, जिसने गाथासप्तशती नामक प्राकृत भाषा के श्रृंगार रस प्रधान गीति काव्य की रचना की थी। इसमें कुल 700 आर्या छंदों का संग्रह है जिसका प्रत्येक पद्य अपने-आप में पूर्ण तथा स्वतंत्र है। इस प्रकार इसके पद्य मुक्तक काव्य के प्राचीनतम उदाहरण हैं। हाल के दरबार में गुणाढ्य तथा शर्ववर्मन् जैसे उच्चकोटी के विद्वान् निवास करते थे।
गुणाढ्य ने बृहत्कथा नामक ग्रंथ की रचना की थी। यह मूलतः पैशाची प्राकृत में लिखा गया था, तथा इसमें करीब एक लाख पद्यों का संग्रह था। परंतु दुर्भाग्यवश यह ग्रंथ आज हमें अपने मूल रूप में प्राप्त नहीं है, इस ग्रंथ में गुणाढ्य ने अपने समय की प्रचलित अनेक लोक कथाओं का संग्रह किया है। अनेक अद्भुत यात्रा-विवरणों तथा प्रणय प्रसंगों का इस ग्रंथ में विस्तृत विवरण मिलता है। शर्ववर्मन् ने कातंत्र नामक संस्कृत व्याकरण ग्रंथ की रचना की थी। वृहत्कथा के अनुसार कातंत्र की रचना का उद्देश्य हाल को सुगमता से संस्कृत सिखाना था। इसकी रचना अत्यंत सरल शैली में हुई है। इसमें अति संक्षेप में पाणिनीय व्याकरण के सूत्रों का संग्रह हुआ है।
सातवाहन वंश : महत्त्वपूर्ण तथ्य।
ऐसा प्रतीत होता है, कि इस समय संस्कृत भाषा का भी दक्षिण में व्यापक प्रचार था। बृहत्कथा से ज्ञात होता है, कि हाल की एक रानी मलयवती संस्कृत भाषा की विदुषी थी। उसी ने हाल को संस्कृत सीखने के लिये प्रेरित किया था, जिसके फलस्वरूप कातंत्र की रचना की गयी थी। कन्हेरी के एक अभिलेख में एक सातवाहन रानी संस्कृत का प्रयोग करती है।
इस प्रकार सातवाहन युग में दक्षिणी भारत में प्राकृत तथा संस्कृत दोनों ही भाषाओं का समान रूप से विकास हुआ।
Reference : https://www.indiaolddays.com/