जैन साहित्य को आगम (सिद्धांत)कहा जाता है। इसके अंतर्गत 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, अनुयोग सूत्र तथा नंदिसूत्र की गणना की जाती है। इनकी रचना ईसा पूर्व चौथी शती से लेकर छठी शताब्दी ईस्वी तक के काल में हुई थी। इनका स्वरूप महावीर की मृत्यु के बाद विभिन्न संगीतियों में निर्धारित किया गया है।
बारह अंग
जैन आगम में इनका सर्वप्रमुख स्थान है। इनका परिचय निम्न प्रकार है –
आचारांगसूत्र सुत्त –
इसमें जैन भिक्षुओं द्वारा पालन किेय जाने वाले आचार-नियमों का उल्लेख मिलता है।
सूयग दंग (सूत्र कृतांग)सुत्त –
इसमें जैनेतर मतों का खंडन करते हुये जैन भिक्षुओं को उनसे दूर रखने का प्रयास किया गया है।
ठाणंग (स्थानांग) –
इसमें जैन धर्म के विभिन्न सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है।
समवायंग सुत्त-
इसमें भी जैन धर्म से संबंधित विविध प्रकार के उपदेश दिये गये हैं। इसे तीसरे अंग का ही अंश माना जा सकता है।
भगवती सुत्त –
इसमें महावीर स्वामी के जीवन तथा कृत्यों और अन्य समकालिकों के साथ उनके संबंधों का वर्णन मिलता है। अपने प्रिय शिष्य इन्दुभूति के साथ वार्त्तालाप के माध्यम से वे जैन सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं। अच्छे तथा बुरे कर्मों द्वारा प्राप्त होने वाले स्वर्ग और नरक का भी वर्णन इसमें प्राप्त होता है।
नायाधम्मकहा (ज्ञाताधर्मकथा) सुत्त-
इसमें महावीर की शिक्षाओं का वर्णन कथा, पहेलियों आदि के माध्यम से किया गया है। यात्रियों, नाविकों आदि के साहसिक कार्यों का भी वर्णन इसमें प्राप्त होता है।
उवासगदसओं (उपासकदशा) सुत्त-
इसमें जैन उपासकों के विधि, आचार, नियमों आदि का संग्रह है। तपस्या के बल पर स्वर्ग प्राप्त करने वाले व्यापारियों का भी उल्लेख मिलता है।
अंत गडदसाओं –
इसमें उन भिक्षुओं का वर्णन है, जिन्होंने तप द्वारा शरीर का अंत कर स्वर्ग प्राप्त किया है।
अणुत्तरोववाइय दसाओ –
इसमें भी उन भिक्षुओं का वर्णन है, जिन्होंने तप द्वारा शरीर का अंत कर स्वर्ग प्राप्त किया है।
पण्हावागरणाई (प्रश्न व्याकरण)-
जैन धर्म से संबंधित पाँच महाव्रतों तथा अन्य नियमों का वर्णन हुआ है।
विवाग सुयम्-
अच्छे-बुरे कर्मों के फलों का विवरण इसमें दिया गया है, जो व्यक्ति को मरने के बाद प्राप्त होते हैं।
दिट्टिवाय (दृष्टिवाद)-
यह संप्रति अप्राप्त है। इसके विषय में अन्य ग्रंथों में छिट-पुट उल्लेख मिलतें हैं।
बारह उपांग
उपर्युक्त बार अंगों से संबंधित एक-एक ग्रंथ हैं, जिन्हें उपांग कहा जाता है। ये इस प्रकार हैं-
- औपपातिक
- राजप्रश्नीय
- जीवाभिगम
- प्रज्ञापना
- जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति
- चंद्र प्रज्ञप्ति
- सूर्य प्रज्ञप्ति
- निरयावलि
- कल्पावसंतिका
- पुष्पिका
- पुष्प चूलिका
- वृष्णि दशा।
दस प्रकीर्ण
ये प्रमुख ग्रंथों के परिशिष्ट हैं तथा इनका जैन साहित्य में बङा महत्त्व है। इनके नाम हैं –
- चतुःशरण
- आतुर-प्रत्याख्यान
- भक्तिपरिज्ञा
- संस्तार
- तन्दुल वैतालिक
- चंद्रवैध्यक
- गणितविद्या
- देवेन्द्रस्तव
- वीरस्तव
- महाप्रत्याख्यान
छेदसूत्र
इनकी संख्या छः है। इनमें जैन भिक्षुओं के लिये उपयोगी विधि नियमों का संकलन है। इसका महत्त्व बौद्धों के विनय पिटक जैसा है। छः छेदसूत्र हैं –
- निशीथ
- महानिशीथ
- व्यवहार
- आचार दशा
- कल्प
- पञ्चकल्प
मूलसूत्र
इनकी संख्या चार है। इनमें जैनधर्म के उपदेश, भिक्षुओं के कर्त्तव्य, विहार के जीवन, यम-नियम, आदि का वर्णन है। ये हैं – उत्तराध्ययन, षडावशयक, दशवैकालिक तथा पिण्डनिर्युक्ति या पाक्षिक सूत्र।
नान्दी सूत्र तथा अनुयोग द्वार
ये दोनों जैनियों के स्वतंत्र ग्रंथ हैं, जो एक प्रकार के विश्वकोश हैं। इनमें भिक्षुओं के लिये आचरणीय प्रायः सभी बातें लिखी गयी हैं। साथ ही साथ कुछ लौकिक बातों का भी विवरण मिलता है।
ये सभी ग्रंथ श्वेताम्बर संप्रदाय के जैनियों के लिये हैं। दिगंबर संप्रदाय के लोग इनकी प्रमाणिकता को स्वीकार नहीं करते। उनका विजार है, कि जैन-साहित्य पूर्णतया लुप्त हो चुका है, और वह मूलरूप में प्राप्त नहीं है। श्वेताम्बर अनुश्रुति के अनुसार महावीर की मृत्यु के 140 वर्षों बाद बलभी में देवर्द्धि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में एक सभा हुई, जिसमें धार्मिक साहित्य को एकत्रित करके लिपिबद्ध किया गया। इसके बाद पाटलिपुत्र की सभा में भी कुछ ग्रंथों का संकलन हुआ। इन ग्रंथों के स्थान पर दिगंबर जैन, भद्रबाहु तथा उनके अनुयायियों की शिक्षाओं को ही प्रामाणिक मानते हैं।
श्वेताम्बर संप्रदाय का साहित्य जैन -साहित्य की प्राचीनताम विधि है। आज भी उनके समाज में इन ग्रंथों को बङे आदरपूर्वक स्मरण किया जाता है तथा उनमें निर्दिष्ट सिद्धांतों के आधार पर जैन भिक्षु अपना जीवन-यापन करते हैं।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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