स्मृति ग्रंथ (धर्मशास्त्र)
धर्मसूत्र साहित्य से कालांतर में स्मृति साहित्य का विकास हुआ। स्मृतियों का निर्माण हिन्दू-धर्म के चरम विकास को सूचित करता है। ये प्राचीन भारतीय सभ्यता पर विशद प्रकाश डालती हैं। स्मृतियों को धर्मशास्त्र की संज्ञा प्रदान की जाती है।
भारतीय इतिहास में ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी से लेकर मध्यकाल तक विभिन्न स्मृति ग्रंथों का प्रणयन हुआ। इनकी संख्या विभिन्न ग्रंथों में अलग-अलग मिलती है। पद्मपुराण में इनकी संख्या 36, वृद्ध गौतम में 56 तथा वीरमित्रोदय में 57 दी गयी है। कुछ प्रमुख स्मृतियाँ इस प्रकार हैं –
मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य-स्मृति, विष्णु-स्मृति,कात्यायन-स्मृति, बृहस्पति-स्मृति, पाराशर-स्मृति, गौतम-स्मृति, वशिष्ठ-स्मृति, नारद-स्मृति, देवल-स्मृति आदि।
उपर्युक्त स्मृतियों में मनुस्मृति सबसे प्राचीन तथा प्रामाणिक है। इसकी रचना शुङ्गकाल (ई.पू.द्वितीय शती) के लगभग हुई थी। अधिकांश स्मृतियाँ इसी को परिवर्तित करके लिखी गयी हैं। याज्ञवल्क्य, विष्णु, नारद, बृहस्पति आदि की स्मृतियों में मनुस्मृति का प्रमाण दिया गया है। ये सब गुप्तकाल (पाँचवी शती ई.) की रचनायें हैं। विष्णु-स्मृति के अतिरिक्त शेष स्मृतियाँ श्लोकों में लिखी गयी हैं तथा इनकी भाषा लौकिक संस्कृत है। मनु, याज्ञवल्क्य आदि की स्मृतियों पर कालांतर में महत्त्वपूर्ण भाष्य लिखे गये। मनुस्मृति के प्रसिद्ध भाष्यकार मेघातिथि, गोविन्दराज तथा कुल्लूकभट्ट और याज्ञवल्क्य स्मृति के टीकाकार विश्वरूप, विज्ञानेश्वर, अपरार्क आदि।
भारतीय इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से स्मृतियों की उपादेयता महत्त्वपूर्ण है। ये अपने काल के राजशासन, धर्म, सामाजिक-आर्थिक परंपराओं, आचार-विचार आदि का व्यापक विवेचन करती हैं। मनुस्मृति द्वारा हिन्दू धर्म एवं सामाजिक परंपराओं का जो स्वरूप निर्धारित हुआ वह आज तक मान्य है। इसे पवित्र एवं सम्मानित स्वीकार किया जाता है। समाज में सुव्यवस्था स्थापित करने के लिये इसके द्वारा जो विधान प्रस्तुत किये गये हैं,वे निःसंदेह उच्चकोटि के हैं। हिन्दूधर्म एवं संस्कृति को सुरक्षित रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य स्मृतिकारों ने किया है। स्मृतियों के साथ-साथ उनकी टीकायें भी प्राचीनकाल के सामाजिक जीवन का विशद् विवेचन करती हैं।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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