प्राचीन काल में परीक्षा तथा उपाधियाँ
प्राचीन शिक्षा पद्धति में आधुनिक युग की भाँति परीक्षा लेने तथा उपाधि प्रदान करने की प्रथा का अभाव था। विद्यार्थी गुरु के सीधे संपर्क में रहते थे। जब वे एक पाठ याद कर लेते तथा गुरु उससे संतुष्ट हो जाता तब उन्हें दूसरा पाठ याद करने को दिया जाता था। अध्ययन की समाप्ति पर समावर्त्तन नामक संस्कार आयोजित होता था तथा उसके बाद छात्र एक विद्वत्मंडली के सामने प्रस्तुत किया जाता था। वहाँ उससे उसके अध्ययन से संबंधित कुछ गूढ प्रश्न पूछे जाते थे। उसके अनुसार वह स्नातक बन जाता था। यहाँ उल्लेखनीय है, कि विद्वानों की सभा छात्र की योग्यता के विषय में अंतिम प्रमाण नहीं था, अपितु इस संबंध में अंतिम निर्णय उसे ज्ञान प्रदान करने वाले आचार्य का ही होता था।
चरक तथा राजशेखर ने विद्वत्परिषदों का उल्लेख किया है, जो कवियों तथा विद्वानों की परीक्षा लेती थी। किन्तु यह परीक्षा आज की परीक्षा जैसी नहीं थी, अपितु इस इसमें विद्वानों की श्रेष्ठता को प्रमाणित किया जाता था।
प्राचीन काल में शिक्षा केन्द्रों द्वारा आधुनिक युग के समान कोई उपाधि वितरित नहीं की जाती थी। उपाधि प्रदान करने की प्रथा मध्यकाल की उपज है। तारानाथ के विवरण से पता चलता है, कि बंगाल के पाल शासक विक्रमशिला के छात्रों को अध्ययन की समाप्ति पर सनद(डिप्लोमा) प्रदान करते थे।बंगाल में विद्वत्परिषद् द्वारा तर्कचक्रवर्त्ती तथा तर्कालंकार जैसी उपाधियाँ प्रदान की जाती थी। किन्तु प्राचीन काल में इस प्रकार की कोई प्रथा नहीं थी। सातवी शती का चीनी यात्री ह्वेनसांग भी इसका उल्लेख नहीं करता।
वस्तुतः प्राचीन काल में छात्रों का उद्देश्य आधुनिक युग के छात्रों की भाँति उपाधियों के पीछे दौङता नहीं था। वे ज्ञान के सच्चे पिपासु थे। अपने अध्ययन को वे जीवन पर्यंत संजोये रखते थे। उनकी प्रबल अभिलाषा अपने देश की सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने की थी और यही उनके समस्त शैक्षणिक क्रियाकलापों का मूलमंत्र था।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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