इतिहासप्राचीन भारत

प्राचीन भारतीय शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य

किसी भी प्राचीन ग्रंथ में शिक्षा के उद्देश्यों का आधुनिक शिक्षा सिद्धांत के अनुसार वर्णन नहीं प्राप्त होता है। तथापि विभिन्न ग्रंथों में इससे संबंधित जो उल्लेख मिलते हैं, उनके आधार पर हम प्राचीन शिक्षा के उद्देश्यों तथा आदर्शों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इन्हें इस प्रकार रखा जा सकता है-

चरित्र का निर्माण

शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना था। भारतीय शास्त्रों में सच्चरित्रता को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। यह व्यक्ति का सबसे बङा आभूषण है। चरित्र एवं आचरण से हीन व्यक्ति की सर्वत्र निन्दा की गयी है। मनुस्मृति में वर्णित है, कि सभी वेदों का ज्ञाता विद्वान भी सच्चरित्रता के अभाव में श्रेष्ठ नहीं है, किन्तु केवल गायित्री मंत्र का ज्ञाता पंडित भी यदि वह चरित्रवान है, तो श्रेष्ठ कहलाने योग्य है। सत्कर्मों से ही चरित्र का निर्माण संभव है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य जो ज्ञान तथा शक्ति प्राप्त करता है, उससे उसमें नैतिक गुणों का उदय होता है तथा सन्मार्ग का अनुसरण करने की प्रेरणा उसे प्राप्त होती है। शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति अपनी तामसी तथा पाशविक प्रवृति पर नियंत्रण रखता है। उसमें अच्छे तथा बुरे के विभेद करने की बुद्धि जागृत होती है। वह बुरे कार्यों को त्याग कर अपने को सत्कर्मों में प्रवृत्त करता है।

प्राचीन शिक्षा पद्धति को विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण के लक्ष्य में पूरा करने में सफलता मिली। इसके द्वारा शिक्षित विद्यार्थी कालांतर में चरित्रवान एवं आदर्श नागरिक बनते थे। भारत की यात्रा पर आने वाले विदेशी यात्रियों- मेगस्थनीज, ह्वेनसांग सभी ने यहाँ के लोगों के नैतिक चरित्र के समुन्नत होने के प्रमाण प्रस्तुत किये हैं।

व्यक्तित्व का सर्वांङ्गीण विकास

प्राचीन शिक्षा का एक उद्देश्य विद्यार्थी के व्यक्तित्व को विकास का पूरा अवसर प्रदान करना भी था। प्राचीन शिक्षा पद्धति में विद्यार्थी के बौद्धिक विकास के साथ-साथ शारीरिक विकास का भी पूरा ध्यान रखा गया था। स्वस्थ्य मस्तिष्क का अधिष्ठान स्वस्थ्य शरीर होता है।यह धारणा प्राचीन भारतीय चिन्तकों को मान्य थी।

शिक्षा के द्वारा विद्यार्थी में आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास, विवेक-शक्ति, न्याय-शक्ति आदि गुणों का उदय होता था, जो उसके व्यक्तित्व को विकसित करने में सहायक थे। विद्याध्ययन के पूर्व उपनयन संस्कार के अवसर पर ही विद्यार्थी में आत्म-विश्वास जागृत किया जाता था। उसे यह बोध कराया जाता था, कि उसके कर्त्तव्यों के निर्वाह तथा लक्ष्य की प्राप्ति में देवगण उसकी सहायता करेंगे।

नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का ज्ञान

प्राचीन शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को नागरिक एवं सामाजिक कर्त्तव्यों का बोध कराकर उसे सुयोग्य नागरिक बनाना भी था। अध्ययन की समाप्ति पर समावर्तन संस्कार का आयोजन किया जाता था, जिसमें आचार्य विद्यार्थी के समक्ष उसके भावी कर्त्तव्यों को अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करता था। तैत्तिरीय उपनिषद् में इसे इस प्रकार रखा गया है-

सत्य बोलना, धर्म का आचरण करना। अपने परिश्रम (स्वाध्याय) में आलस्य मत करना। गुरु को दक्षिणा देने के बाद सन्तति उत्पादन की परंपरा को विच्छिन्न मत करना। सत्यमार्ग से विचलित मत होना। धर्म से विचलित मत होना। लाभकारी कार्यों में प्रमाद मत करना। महान बनने का अवसर न खोना। अध्ययन-अध्यापन के कर्त्तव्यों की उपेक्षा मत करना। देवताओं तथा पितरों के यज्ञ, श्रद्धादि की उपेक्षा मत करना। माता को देवी मानना। आचार्य को देवता मानना। पिता को देवता मानना। अपने अतिथि को देवता समझना। दोष रहित कार्यों को करना, अन्य नहीं। हम लोगों के अच्छे कार्यों का अनुकरण करना। जो कुछ भी दान करना, श्रद्धा, विश्वास, आनंद, विनम्रता, भय तथा दयालुता से करना। कर्त्तव्य अथवा आचरण में किसी प्रकार के संदेह होने पर उत्तम विवेक वाले ब्राह्मणों की भांति आचरण करना।

सामाजिक सुख तथा कौशल की वृद्धि

भारतीय शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक सुख एवं निपुणता को प्रोत्साहन प्रदान करना भी था। केवल संस्कृति अथवा मानसिकता और बौद्धक शक्तियों को विकसित करने के लिये शिक्षा नहीं दी जाती थी, अपितु इसका मुख्य ध्येय विभिन्न उद्योगों, व्यवसायों आदि में लोगों को दक्ष बनाना था। भारतीय समाज में श्रम विभाजन का सिद्धांत स्वीकार किया गया था।

संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार

शिक्षा संस्कृति के परिरक्षण तथा परिवर्धन का प्रमुख माध्यम है। इसी के द्वारा प्राचीन संस्कृति वर्तमान में जीवित रहती है तथा पूर्वकालिक परंपराओं में जीवनी-शक्ति आती है। अतः प्राचीन शिक्षा पद्धति ने इस उद्देश्य को सम्यक् रूप से पूरा किया। विभिन्न वर्णों के लोगों का कर्त्तव्य था, कि वे अपनी सन्तति को अपने वर्ण से संबंधित सभी प्रकार के शिल्पों एवं प्रगति के विषय में प्रारंभ से ही शिक्षित कर दें। आर्य जाति की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य वैदिक साहित्य को सुरक्षित बनाये रखना था।यह व्यवस्था थी, कि प्रत्येक विद्यार्थी वेदों को कंठस्थ करे तथा उसे मस्तिष्क में सुरक्षित रखे। ब्राह्मणों का एक वर्ग अपने पवित्र ग्रंथों की स्मृति सुरक्षित रखने को सदा उद्यत रहता था। कुछ लोग काव्यशास्त्र, व्याकरण, लौकिक साहित्य, तर्कविद्या, दर्शन में निपुण होकर प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को सुरक्षित रखते थे। भारत में वेद तथा अन्य धर्म ग्रंथ जिस प्रकार से आज तक जीवित हैं, उसकी समता किसी अन्य सभ्यता में देखने को नहीं मिलती है।

भारतीय समाज में वैदिक युग से ही तीन ऋणों का सिद्धांत प्रचलित हुआ। इसने प्राचीन पीढियों की सर्वोत्तम परंपराओं को सुरक्षित बनाये रखने तथा उसके प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। यह माना गया है, कि जन्म के साथ ही व्यक्ति पर तीन ऋण लद जाते हैं – देवऋण, ऋषिऋण तथा पिऋण। इनसे मुक्त होना प्रत्येक का परम कर्तव्य होता है। इसके लिये उसे कुछ कार्यों को सम्पन्न करना पङता है। देवऋण से मुक्ति यज्ञों का अनुष्ठान करने पर, ऋषिऋण से मुक्ति ब्रह्मचर्य के पालन से तथा पितृऋण से मुक्ति सन्तानोत्पन्न करने पर मिलती है।

निष्ठा तथा धार्मिकता का संचार करना

भारत की प्राचीन संस्कृति धर्मप्राण रही है, जहाँ धर्म ने संस्कृति के सभी पहलुओं को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। अतः शिक्षा पद्धति भी धर्म से प्रभावित थी तथा उसका एक प्रमुख उद्देश्य विद्यार्थियों में निष्ठा एवं धार्मिकता की भावना जागृत करना था।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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