अफीम युद्धइतिहासविश्व का इतिहास

प्रथम अफीम युद्ध के कारण

प्रथम अफीम युद्ध के कारण

प्रथम अफीम युद्ध के कारण –1840 ई. में ब्रिटेन और चीन के बीच जो युद्ध लङा गया (प्रथम अफीम युद्ध)उसके मूल में अफीम के व्यापार के अलावा और भी अनेक कारण थे, जो इस प्रकार हैं-

प्रथम अफीम युद्ध के कारण

प्रथम अफीम युद्ध के कारण
ब्रिटेन की साम्राज्यवादी लालसा

19 वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक एशिया के एक विशाल भू-भाग पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी और अब वह चीन पर भी अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयत्न करने लगा, क्योंकि चीन पर अधिकार हो जाने पर ब्रिटेन को कई लाभ हो सकते थे।

इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति के तीव्र प्रसार के फलस्वरूप बढते हुए उत्पादनों के लिये विस्तृत मंडियाँ तथा बाजार खोजना आवश्यक हो गया था। चीन के पङोसी देश भारत में अँग्रेज को जो अभूतपूर्व सफलता मिली थी, उससे वह काफी प्रोत्साहित हुआ था।

को-हांग के नियंत्रण से मुक्ति की आकांक्षा

मंचू वंश के शासनकाल में चीनी व्यापारियों को विदेशी व्यापारियों से अलग रखा जाता था। सरकार द्वारा प्रमाणित दलाल, व्यापारियों की निगरानी और उनसे कर वसूली करते थे। यूरोपीय व्यापार को संचालित करने वाले दलालों के दल में 6 से 12 फर्में थी, और उन्होंने एक निगम बना रखा था, जिसे को-हांग कहते थे।

को-हांग की अनुमति प्राप्त किये बिना कोई विदेशी जहाज कैण्टन नहीं आ सकता था और न ही बिना उसकी अनुमति के चीनी लोगों से संपर्क स्थापित कर सकता था। विदेशी व्यापारियों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगे हुए थे। उन्हें अपने कारखानों के अहाते के बाहर शहर में प्रवेश करने की मनाही थी।

व्यापार के मौसम के बाद उन्हें मकाओ द्वीप लौट जाना पङता था। इन सारे प्रतिबंधों के कारण अंग्रेज व्यापारी बहुत दुःखी थे। वे सारे प्रतिबंधों से मुक्ति और चीन में उन्मुक्त व्यापार करना चाहते थे।

ब्रिटेन की समानता की इच्छा

चीनी लोग यूरोपीय लोगों को असभ्य एवं वर्बर मानते थे, इसलिये वे उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते थे। चीनी अधिकारी उनके साथ अधीनस्थ राज्यों के कर्मचारियों की तरह व्यवहार करते थे। कोतो का नियम (तीन बार घुटने टेककर नौ बार माथा टेकना)उनके अनिवार्य था। यूरोपीय राज्यों के लिये यह कोतो का नियम बङा ही अपमानजनक था।

व्यापारिक असुविधाओं को दूर करने, चीन के साथ समानता का स्तर प्राप्त करने तथा अपमानजनक था। व्यापारिक असुविधाओं को दूर करने, चीन के साथ समानता का स्तर प्राप्त करने तथा अपमानजनक प्रथाओं और नियमों से छुटकारा पाने के लिये यूरोपीय राज्य चीन की सरकार के साथ सीधा कूटनीतिक संबंध स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे।

इन प्रयासों में ब्रिटेन सबसे अग्रणी था। उसने दो बार अपने राजदूत भेजकर चीन की सरकार से संधि करने का प्रयास किया था, लेकिन जब उसे इस दिशा में कोई सफलता नहीं मिली तब उसने युद्ध का सहारा लेने का निश्चय किया।

पश्चिमी कानूनों को मान्यता

रोपीय व्यापारी चीन के कानूनों की प्रायः अवहेलना करते रहते थे। इनमें अँग्रेज व्यापारी सबसे आगे थे। वे अपने चीनी कानून की परिधि से बाहर समझते थे। जब कभी कोई अंग्रेज चीन में अपराध कर देता तो उसका फैसला चीन की अदालत में न होकर ब्रिटिश अदालत में होता था।

कोई भी सार्वभौमिक सरकार इसे सहन नहीं कर सकती थी, अतः चीन की सरकार ने घोषणा की कि सभी विदेशियों पर चीनी कानून लागू होंगे तथा किसी विदेशी अपराधी को बंदी बनाने का अधिकार केवल चीनी पुलिस को होगा, किन्तु अँग्रेज व्यापारी इस घोषणा का पालन करने को तैयार नहीं थे।

1784 ई. में एक ब्रिटिश जहाज के व्यापारी ने एक चीनी नागरिक की हत्या कर दी। चीन की सरकार ने उस हत्यारे अंग्रेज व्यापारी को बंदी बना लिया किन्तु अँग्रेज ने इसका विरोध किया तथा ब्रिटिश सरकार ने 1793 ई. में लार्ड मेंकर्टन के नेतृत्व में एक मिशन चीन भेजा, जिसने प्रस्ताव रखा कि कैण्टन की अँग्रेज बस्ती को स्वशासन तथा अंग्रेज अपराधी की अदालती जाँच ब्रिटिश कानून के अनुसार करने का अधिकार दिया जाय, लेकिन चीन की सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई।

धीरे-धीरे सभी विदेशी इस पर सहमत होते गये कि सिद्धांत रूप से चीनी कानून कितना भी अच्छा क्यों न हो, व्यवहार में वह पश्चिमी लोगों के अनुकूल नहीं है। अतः चीन को उनके मामलों में पश्चिमी कानूनों को मान्यता दे देनी चाहिए।

प्रथम अफीम युद्ध की घटनाएँ

प्रथम अफीम युद्ध के कारण

कमिश्नर लिन की कार्यवाही से अँग्रेज व्यापारियों को बङी हानि उठानी पङी थी, क्योंकि लगभग 60 लाख डॉलर मूल्य की अफीम पानी में बहा दी गयी थी। इससे वे काफी उत्तेजित थे। इसी बीच 1839 ई. में कोलून में कुछ शराबी अँग्रेज नाविकों ने एक ग्रामीण चीनी की हत्या कर दी।

कमिश्नर लिन ने उन्हें पकङने का आदेश दिया, किन्तु इलियट ने उन्हें देने से इंकार कर लिया। इस पर लिन ने मकाओ को खाने-पीने के सामान की आपूर्ति काट दी और मकाओ के नजदीक सेना तैनात कर दी। इस पर अँग्रेज हांगकांग चले गये और वहां घेरे की तैयारी करने लगे।

3 नवंबर, 1839 को दो ब्रिटिश जहाजों ने चीनी पोतों को मार भगाया। इस पर चीन ने ब्रिटेन से अपने ब्यापारिक संबंध तोह दिये। यही प्रथम अफीम युद्ध का आरंभ था।

फरवरी, 1840 ई. में ब्रिटिश सरकार ने चीन से युद्ध करने का निश्चय कर लिया तथा अप्रैल में ब्रिटिश संसद ने भी इसकी स्वीकृति प्रदान कर दी। विदेश मंत्री पामर्स्टन ने भारत से 16 जंगी जहाज और चार जंगी जहाज सैनिकों को दक्षिणी चीन भेजने का आदेश दे दिया। जुलाई में इन बेङों ने कैण्टन पर अधिकार कर लिया उसके बाद चीनी तट के उत्तर में स्थित चीनी सेना पर आक्रमण पर यांग्त्सी नदी के मुहाने पर नाकेबंदी कर ली।

ब्रिटिश सेना की सफलता को देखते हुए चीन सरकार ने कमिश्नर लिन को पद से हटा दिया तथा समझौता वार्ता के लिये एक अधिकारी चीशान को नियुक्त किया। ईलियट और चीशान की बातचीत के बाद जनवरी, 1841 ई. में दोनों पक्षों में समझौता हो गया। संधि के अनुसार हांगकांग का क्षेत्र ब्रिटेन को दे दिया गया, राजनयिक समानता स्वीकार की गई, क्षतिपूर्ति देने का वायदा किया गया तथा पुनः व्यापार खोलने की व्यवस्था की गयी।

किन्तु बाद में दोनों पक्षों को यह समझौता मान्य नहीं हुआ, क्योंकि चीन सरकार की दृष्टि में चीशान ने अँग्रेजों को आवश्यकता से अधिक रियायत दे दी थी। दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार की राय में ईलियट अधिक रियायतें प्राप्त करने में असफल रहा। अतः एक ओर तो चीशान को पदच्युत कर दिया गया और दूसरी तरफ ईलियट को वापस बुला लिया गया। उसके बाद दोनों पक्षों में पुनः युद्ध शुरू हो गया।

ब्रिटिश सरकार ने ईलियट के स्थान पर हेनरी पोंटिगर को नियुक्त किया, जिसने वहाँ पहुँचते ही चीनियों के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही आरंभ कर दी। फलस्वरूप चेसर्न का द्वीप तथा निगपो एवं अमोय नामक नगरों पर ब्रिटिश अधिकार हो गया। शंघाई का बंदरगाह और हांगकांग द्वीप भी अंग्रेजों ने अधिकृत कर लिये।

चीन की राजधानी पीकिंग व प्राचीन राजधानी नानकिंग पर भी सीधा आक्रमण किया गया। इसके साथ ही चीन में मंचू शासन के विरुद्ध आंतरिक विद्रोह भङक उठा। ऐसी स्थिति में मंचू शासन के समक्ष अंग्रेजों से समझौता करने के अलावा अन्य कोई रास्ता न था।

नानकिंग की संधि

29 अगस्त, 1842 ई. को दोनों पक्षों ने एक संधि पर हस्ताक्षर कर दिये, जो नानकिंग की संधि कही जाती है। इसकी मुख्य शर्तें इस प्रकार थी-

  • कैण्टन, अमोय, फूचाऊ, निगपो और शंघाई, ये पाँच बंदरगाह अँग्रेज व्यापारियों के निवास एवं व्यापार के लिये खोल दिये गये।
  • हांगकांग का द्वीप हमेशा के लिये ब्रिटेन को दे दिया गया।
  • चीन ने आयात और निर्यात पर पांच प्रतिशत की दर से तट-कर लेना स्वीकार कर लिया तथा यह व्यवस्था की गयी कि पारस्परिक समझौते के बिना तट-कर की दर में वृद्धि नहीं की जायेगी।
  • को-हांग को भंग कर दिया गया तथा ब्रिटिश व्यापिरियों को अपनी इच्छानुसार किसी भी व्यक्ति से व्यापारिक लेन-देन का अधिकार दिया गया।
  • चीन सरकार ने यह स्वीकार किया कि अंग्रेजों पर मुकदमे उन्हीं के कानून के अनुसार और उन्हीं की अदालत में चलेंगे।
  • चीन सरकार ने दो करोह दल लाख डॉलर की क्षतिपूर्ति देना स्वीकार कर लिया।
  • चीन ने यह स्वीकार किया कि भविष्य में चीन में अन्य देशों के लोगों को जो सुविधाएं प्रदान की जाएँगी, वे अंग्रेजों को स्वतः ही प्राप्त हो जाएँगी।

यद्यपि युद्ध का मुख्य कारण अफीम का व्यापार था, लेकिन संधि में इस व्यापार का कोई उल्लेक नहीं किया गया। अँग्रेजों के प्रतिनिधि ने अनौपचारिक रूप से यह सुझाव अवश्य दिया कि अफीम के आयात को कानूनी रूप दे दे और फिर उस आयात की मात्रा पर रोक लगा दे, लेकिन चीन इस व्यापार को वैधानिक स्वरूप देने को तैयार नहीं था, अतः इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर संधि मौन रही। परिणामस्वरूप अफीम का तस्कर व्यापार पहले की भाँति ही जारी रहा और दिनों-दिन इसमें वृद्धि होती गयी। 1850 ई. के बाद इसकी खपत 50,000 से 60,000 पेटी हो गयी।

युद्ध का महत्त्व

चीन को निर्णायक पराजय का सामना करना पङा। ब्रिटेन की विजय पश्चिमी सभ्यता की विजय थी। इसी विजय के आधार पर चीन का द्वार विदेशियों के लिये खुला। इस युद्ध से चीन को यह विश्वास हो गया कि उसे यूरोपीय माँगों के समक्ष झुकना पङेगा और यूरोपीय लोगों को यह पता चल गया कि चीन उनके आगे टिक नहीं सकेगा।

चीन की पृथकता का युग समाप्त हो गया। इस युद्ध के द्वारा पश्चिम ने चीन पर दबाव डाला कि उसे चीन में व्यापार करने का अधिकार मिलना चाहिये तथा चीन में विदेशियों को समानता के आधार पर स्वीकार किया जाना चाहिये। इस युद्ध से यह स्पष्ट हो गया कि भविष्य में चीन में यूरोपीय सभ्यता के प्रवेश को रोका नहीं जा सकेगा। नानकिंग की संधि पूर्वी एशिया में यूरोप के नवीन साम्राज्यवाद को फैलाने में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई।

इस संधि के द्वारा चीन के सार्वभौम अधिकार पर प्रबल प्रहार हुआ। चीन अपने आयात और निर्यात पर तट-कर निश्चित करने के अधिकार से वंचित हो गया। संधि के द्वारा यह मान लिया गया कि अंग्रेजों पर मुकदमे उन्हें के कानून के अनुसार उन्हीं की अदालतों में चलेंगे। यह चीन में यूरोपीय राज्यों के क्षेत्रातीत अधिकार का प्रारंभ था, साथ ही इसने पूर्वी एशिया में असमान संधियों का युग भी प्रारंभ किया।

अमेरिका और चीन

नानकिंग की संधि के बाद अमेरिका ने भी चीन से संधि करने का प्रयास किया और कशिंग को अपना दूत बनाकर चीन भेजा। चीन आकर कशिंग ने स्पष्ट कर दिया कि चीन के प्रति अमेरिका का कोई आक्रामक इरादा नहीं है, वह तो केवल नानकिंग की संधि के आधार पर चीन के साथ पृथक संधि करना चाहता है। कशिंग पेकिंग (पीकिंग) तो नहीं पहुँच सका, किन्तु चीन की सरकार संधि करने को तैयार हो गयी। 2 जुलाई, 1844 को वांगहिया की संधि हो गयी। इस संधि में मोटे तौर पर वे ही सिद्धांत थे, जो नानकिंग की संधि में थे, किन्तु यह संधि अधिक स्पष्ट थी।

अन्य देशों से संधियाँ

अक्टूबर, 1844 में फ्रांस ने भी ब्रिटेन और अमेरिका के नमूने पर चीन के साथ संधि की। इस संधि के द्वारा फ्रांस को वे सारी सुविधाएँ मिल गयी, जो ब्रिटेन और अमेरिका को प्राप्त हुई थी। चीन के सम्राट ने फ्रांसीसी दूत का, कैथोलिक मिशनों के संरक्षक की भूमिका अदा करने का अनुरोध स्वीकार कर पाँच बंदरगाहों में रोमन कैथोलिक मिशन स्थापित करने की अनुमति तथा चीनी और विदेशी ईसाइयों के प्रति सहनशीलता के व्यवहार की स्वीकृति दे दी।

बाद में यही सुविधाएँ प्रोटेस्टेण्ट लोगों को भी मिल गयी। इसके बाद जुलाई, 1845 में बेल्जियम के साथ और 1847 में नार्वे एवं स्वीडन के साथ भी चीन को ऐसी ही संधियाँ करनी पङी। 1845 ई. में पुर्तगालियों ने मकाओ को खुला बंदरगाह घोषित कर दिया। 1866 ई. में चीन ने इसे स्वायत्तता प्रदान कर दी तथा 1887 ई. में इस पर पुर्तगालियों का अधिकार स्वीकार कर लिया। इस प्रकार पश्चिमी लोगों के लिये चीन के द्वार खुल गए।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
Wikipedia : अफीम युद्ध

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