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दक्षिण भारत का समाज कैसा था

संगमकालीन समाज के विषय में बात करते हैं, तो हम पाते हैं, कि इस समय तक दक्षिण भारत का आर्यकरण हो चुका था तथा उत्तर भारतीय समाज की व्यवस्थाओं एवं परंपराओं को दक्षिण के लोगों ने अपना लिया था। संगमोत्तर काल में भी उत्तर भारत की सामाजिक परंपरायें एवं आदर्श यथावत् विद्यमान रहे।

वर्ण-व्यवस्था

हिन्दू समाज के संगठन का आधार स्तंभ वर्ण-व्यवस्था है। उत्तर के समान दक्षिण भारतीय समाज में भी हम विभिन्न वर्णों एवं जातियों का अस्तित्व पाते हैं। वर्ण-व्यवस्था अपनी समस्त सामाजिक एवं आर्थिक पेचीदगियों के साथ लगभग सभी जगह स्वीकार कर ली गयी थी। शासकों का यह प्राथमिक कर्त्तव्य बताया गया है, कि वे इसके आधार पर गठित समाज व्यवस्था को बनाये रखें तथा वर्णसंकरता रोकें।

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  • ब्राह्मण

वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणों का सर्वोपरि एवं सम्मानित स्थान था। यद्यपि लिंगायत जैसे कुछ संप्रदायों ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती दी, किन्तु इसका विशेष प्रभाव नहीं हुआ तथा सामान्यतः लोगों की आस्था उनमें बनी रही। राजा से लेकर निम्न श्रेणी के लोग ब्राह्मण पुरोहितों को दान देते थे। राज्य की ओर से उन्हें भूमि तथा ग्राम दान में दिये जाते थे, जो सर्वप्रकार के करों एवं देयों से मुक्त होते थे। ऐसे अनुदानों को अग्रहार अथवा मंगलम् कहा जाता था। जहाँ रहते हुये वे धार्मिक एवं शैक्षणिक कार्य करते थे। कुछ ब्राह्मण अपनी योग्यता के बाल पर प्रशासन में उच्च पद दिये जाते थे। उनकी बौद्धिक श्रेष्ठता एवं वर्ण उन्हें मान्यता दिलाने के लिये पर्याप्त थी। चालुक्य, राष्ट्रकूट,पल्लव, चोल आदि सभी राजवंशों के राजाओं को हम ब्राह्मणों को अग्रहार दान देते हुए पाते हैं, जिनका उल्लेख विविध दान-पत्रों में हुआ है। प्राचीन धर्मग्रंथों में इसे अत्यंत पुण्य का कार्य बताया गया है।

  • क्षत्रिय वर्ण

समाज का दूसरा वर्ण क्षत्रिय वर्ण को बताया गया है।दक्षिण के कई राजवंशों – चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव, अपनी क्षत्रिय उत्पत्ति का दावा करते हैं। ह्वेनसांग ने पुलकेशिन द्वितीय को क्षत्रिय वर्ण का बताया है। अरब लेखक क्षत्रियों के एक वर्ग को सत्क्षत्रिय कहते हैं, जो ब्राह्मणों के समान ऊँचे समझे जाते थे। समाज में जाति प्रथा का व्यापक प्रचलन था। जाति जन्म से जानी जाती थी, किन्तु जाति तथा व्यवसाय के संबंध परिवर्तनशील थे। व्यवसायियों के अनेक वर्ग एवं संगठन दक्षिण के समाज में सक्रिय थे, जो क्रमशः कठोर होकर जाति का रूप लेने लगे थे। कृषि मजदूरों की स्थिति शूद्रों जैसी थी। अनेक प्रकार के शिल्पकार तथा पेशेवर जातियां उद्योग-धंधों में लगी हुई थी, जिन्हें बाद में वर्णसंकर कोटि में रखा गया। मलयालम भाषाभाषी भाग को छोङकर दक्षिण के अन्य द्रविङ भाषाभाषी भागों में वलंगै (दायें हाथ) तथा इदंगै (बायें हाथ) नामक सामाजिक वर्ग गठित थे। इनकी भी अनेक उपशाखायें थी। लेखों में इनके 98-98 वर्ग बताये गये हैं। बताया गया है, कि इन्होंने ब्राह्मणों, बेलालों, अधिकारियों, सामंतों आदि के अत्याचारों के विरुद्ध लङने के निमित्त अपना संयुक्त मोर्चा बनाया था। वैश्यों की स्थिति में गिरावट आई तथा उन्हें शूद्रों के साथ समेट लिया गया।

  • महिलाओं की स्थिति

जहाँ स्त्रियों की दशा का प्रश्न है, हम दक्षिण के विभिन्न राजवंशों की महिलाओं को शिक्षित पाते हैं। कुछ रानियाँ अपने पतियों के साथ मिलकर शासन चलाती थी तथा दान (अग्रहार) देती थी। कुछ महिलायें युद्ध में भी भाग लेती थी। समाज में बाल विवाह का प्रचलन हो गया तथा सामान्यतः कन्याओं का विवाह बारह वर्ष की आयु में कर दिया जाता था। दकन में सती प्रथा का प्रचलन नहीं था। पर्दा प्रथा प्रचलित नहीं थी। अरब लेखकों के विवरण से पता चलता है, कि राष्ट्रकूट दरबार में विशेष अवसरों पर महिलायें भी आती थी, तथा पर्दा नहीं करती थी। अमोघवर्ष की पुत्री चंद्रवल्लभी को कुछ समय के लिये रायचूर दोआब का प्रशासक बनाया गया था। अनुलोम विवाह प्रायः नहीं होते थे। सजातीय विवाह अधिक अच्छा माना जाता था। बहु-विवाह प्रचलित था। राजा, कुलीन तथा सामंत वर्ग के लोग कई पत्नियां रखते थे। मार्को पोलो पाण्ड्य राजा की पाँच सौ पत्नियों का उल्लेख करता है। स्त्रियों को धन संबंधी अधिकार की मान्यता दे दी गयी। पति की मृत्यु के बाद विधवा को उसकी संपत्ति में अधिकार होता था।
विविध प्रकार के विवाह

यद्यपि दक्षिण में सामंतवाद उतना प्रबल नहीं रहा, जितना कि उत्तर भारत में तथा विकसित स्थानीय संस्थायें इसकी प्रगति में बाधक थी तथापि इस बात के संकेत मिलते हैं, कि क्रमशः दक्षिण का समाज भी सामंती ढांचे में जकङता जा रहा था। कुछ भागों का शासन सामंतों द्वारा ही चलाया जाता था। सामंतों ने स्थानीय आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित किया। भूमि के साथ-साथ किसान, शिल्पी, कारीगर आदि भी दिये जाने लगे जो अपना स्थान नहीं बदल सकते थे।
सामंती व्यवस्था किसे कहते हैं ?

  • ग्रामीण व्यवस्था

एक लेख से पता चलता है, कि ग्रामीण समुदाय की गतिशीलता पर प्रतिबंध लगाया गया था। बताया गया है, कि ग्राम छोङकर जाने वाले महासभा के विरुद्ध अपराध करेंगे तथा गाँवों को नष्ट करने वाले समझें जायेंगे। ग्रामाचार, ग्रामधर्म, स्थानाचार आदि के पालन पर बहुत बल दिया जाने लगा। इन सबके परिणामस्वरूप सामाजिक गतिशीलता अवरुद्ध हो गयी तथा बंद अर्थव्यवस्था का उदय हुआ। ग्यारहवीं-बारहवीं शता. में व्यापार-वाणिज्य के उत्कर्ष, सिक्कों के प्रचलन आदि के फलस्वरूप अर्थव्यवस्था विकसित होने पर सामाजिक गतिशीलता के प्रतिबंध शिथिल पङ गये तथा कृषकों एवं कारीगरों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमनागमन संभव हो सका।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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