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राष्ट्रकूट शासकों की कला का इतिहास

राष्ट्रकूट शासकों की कला – राष्ट्रकूटवंशी नरेश उत्साही निर्माता थे। चूंकि इस वंश के अधिकांश शासक शैवमतानुयायी थे, अतः उनके काल में शैव मंदिर एवं मूर्तियों का ही निर्माण प्रमुख रूप से हुआ था। ऐलोरा, एलिफैण्टा, जागेश्वरी, मंडपेश्वर जैसे स्थान कलाकृतियों के निर्माण के प्रसिद्ध केन्द्र बन गये। ऐलोरा तथा एलिफैण्टा तो अपने वास्तु तक्षण के लिये विश्व प्रसिद्ध हो गये हैं।

एलोरा

महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद में स्थित एलोरा नामक पहाङी पर 18 ब्राह्मण (शैव) मंदिर एवं चार जैन गुहा मंदिरों का निर्माण करवाया गया। राष्ट्रकूट कला पर चालुक्य एवं पल्लव कला शैलियों का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है।

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एलोरा के मंदिरों में कैलाश मंदिर अपनी अद्भुद शैली के लिये विश्व-प्रसिद्ध है। इसका निर्माण कृष्ण प्रथम ने अत्यधिक धन व्यय करके करवाया था। यह प्रचीन भारतीय वास्तु एवं तक्षण कला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। यह संपूर्ण मंदिर एक ही पाषाण को काटकर बनाया गया है। सर्वप्रथम एक विशाल शिलाक्षेत्र को कठोर श्रम द्वारा उत्कीर्ण कर उसके चारों ओर का फालतू हिस्सा निकाल दिया गया तथा बीच का भाग जहाँ मंदिर बनना था, छोङ दिया गया। इस मध्यवर्ती भाग में ही मंदिर बनाया गया। निर्माण कार्य ऊपर से नीचे की ओर किया गया ता स्थापत्य कार्य के साथ-साथ मूर्तिकारी एवं अलंकरण भी किया जाता रहा इस प्रकार स्तूपी से जगती (आधार) तक के निर्माण की संपूर्ण योजना बनाकर उसे क्रियान्वित किया गया।

मंदिर का विशाल प्रांगण 276 फुट लंबा तथा 154 फुट चौङा है। इसमें विशाल स्तंभ लगे हैं तथा छत मूर्तिकारी से भरी हुयी है। मंदिर में प्रवेश द्वार, विमान तथा मंडप बनाये गये हैं। चौकी हाथी तथा सिंह पंक्तियों से इस प्रकार बनायी गयी है, कि ऐसा प्रतीत होता है, कि इन्हीं के ऊपर देव विमान और मंडप टिके हुये हैं। मंडप की सपाट छत सोलह स्तंभों सोलह स्तंभों पर आधारित है, जो चार-चार के समूह में बनाये गये हैं। विमान दुतल्ला है। मंडप तथा विमान को जोङते हुये अर्धमंडप अथवा अंतराल बनाया गया है। विमान का चारतल्ला शिखर काफी ऊँचा बनाया गया है। तथा इसके तीन ओर प्रदक्षिणापथ है। इसमें पांच बङे देव प्रकोष्ठ बनाये गये हैं। शिखर पर स्तूपिका बनायी गयी है। मंडप के सामने एक विशाल नंदीमंडप तथा उसके दोनों पार्श्वों में दो ध्वजस्तंभ बनाये गये हैं, जो मंदिर को गरिमा प्रदान करते हैं। इसकी शैली मामल्लपुरम् के रथों की शैली से अनुप्रेरित द्रविङ प्रकार की है। मंदिर के समीप ही पाषाण काटकर एक लंबी पंक्ति में हाथियों की मूर्तियां बनाई गयी हैं। मंदिर की वीथियों में भी अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं। इनमें गोवर्धन धारण किये कृष्ण, भगवान विष्णु, शिव के विविध रूपों, महिषासुर का विध करती हुयी दुर्गा, कैलाश पर्वत उठाये हुये रावण, रावण द्वारा सीता हरण तथा जटायु के साथ युद्ध आदि दृश्यों का अंकन अत्यन्त कुशलतापूर्वक किया गया है।

पाषाण काटकर बनाये गये मंदिरों में इस मंदिर का स्थान अद्वितीय है। कर्कराज के बङौदा लेख में इसे अद्भुत सन्नवेश कहा गया है। बताया गया है, कि इसे देखकर देवलोक के देवगण अचंभित हो गये तथा इसकी शोभा को मानव निर्माण से परे बताया। कलाविद् पर्सी ब्राउन इसकी तुलना मिश्री वास्तु तथा यूनानी पोसीडान मंदिर से करते हुये इसे प्रकृत शैलवास्तु का विश्व में सबसे विलक्षण नमूना मानते हैं।एलोरा के मध्य मंदिरों में रावण की खाई, देववाङा, दशावतार, लंबेश्वर, नीलकंठ आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। रावण की खाई का बाहरी बरामदा चार स्तंभों पर आधारित है। इसके पीछे बारह स्तंभों पर टिका हुआ मंडप है। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणापथ है, जिसकी उत्तरी तथा दक्षिणी दीवारों पर अनेक पौराणिक आख्यानों एवं देवी-देवताओं की मूर्तियों का चित्रण है। नृत्य करते हुये शिव तथा कैलाश पर्वत उठाते हुये रावण के दृश्य का सुन्दर चित्रण है। दशावतार मंदिर का निर्माण 8 वीं शती में दंतिदुर्ग के काल में हुआ। यह दुतल्ला है तथा इसके द्वार पर नंदिमंडप बना है। अधिष्ठान में 14 स्तंभ लगे हैं, इसकी मूर्ति संपदा विपुल है। इसमें भगवान विष्णु के दस अवतारों की कथा मूर्तियों में अंकित हैं। तक्षण एवं स्थापत्य दोनों ही दृष्टि से यह मंदिर भी अत्युत्कृष्ट है। कुछ रचनायें भी रचित हैं।उत्तरी दीवार पर शिवलीला तथा दक्षिणी दीवार पर विष्णु का विवध रूपों में अंकन है। द्वार दो द्वारपालों की मूर्तियाँ हैं। विष्णु द्वारा नृसिंह रूप धारण कर हिरण्यकश्यप का वध किये जाने का सुंदर चित्र बनाया गया है।गुफा के सम्मुख प्रांगण में एक ऊंचे चबूतरे पर नन्दीपीठ बना है। मंडप के पीछे प्रदक्षिणापथ सहित गर्भगृह है तथा द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियाँ हैं। स्तंभ भव्य एवं सुन्दर हैं। इन पर गणों की मूर्तियाँ बनायी गयी हैं। 8 वीं शता.के अंत में सीता की नहानी गुफा की रचना की गयी है। इसमें तीन ओर प्रांगण है। मुख्य प्रांगण में दोनों ओर दो देव प्रकोष्ठ बनाये गये हैं। इसमें सात स्तंभों की पंक्तियाँ हैं। स्तंभ गोलाकार हैं तथा इनके सिरे गुम्बदाकार बनाये गये हैं। गुफा द्वार पर दो विशाल सिंह बने हैं। प्रदक्षिणापथ में बनी मूर्तियाँ काफी सुंदर हैं। शिव ताण्डव का दृश्यांकन सर्वोत्तम है।

ऐलोरा की कुछ गुफायें जैन मत से भी संबंधित हैं। इनमें, इन्द्रसभा तथा जगन्नाथ सभा उल्लेखनीय हैं। पहली दुतल्ला है, जो एक विशाल प्रांगण में बनी है। इसमें एकाश्मक हाथी, ध्वजस्तंभ तथा लघु स्तंभ हैं। इन्द्र-इन्द्राणी की सुन्दर प्रतिमाओं के साथ-साथ इस गुहा मंदिर में जैन तीर्थंकरों – शांतिनाथ, पार्श्वनाथ आदि की प्रतिमायें बनायी गयी हैं।गुफाओं के स्तंभ आधार, मध्य तथा ऊपरी भाग क्रमशः चतुष्कोण तथा गोल बनाये गये हैं। सबसे ऊपर आमलक बना है। जगन्नाथसभा का वास्तु विन्यास भी इन्द्रसभा से मिलता-जुलता है।

एलीफैण्टा

चालुक्य स्थापत्य के नमूने एलीफैण्टा तथा जागेश्वरी से भी मिलते हैं। एलीफैण्टा में चालुक्यों के सामंत शिलाहार शासन करते थे। नवीं शता. के प्रारंभ में यहाँ सुन्दर गुहायें उत्कीर्ण की गयी। मुख्य गुफा में एक विशाल मंडप है, जिसके चतुर्दिक प्रदक्षिणापथ है।वर्गाकार गर्भगृह में विशाल शिवलिंग स्थापित है। चबूतरे से गर्भगृह में जाने के लिये सीढियाँ बनायी गयी हैं। गर्भगृह के चारों ओर निर्मित देव प्रकोष्ठों में शिव के विविध रूपों की मूर्तियाँ बनी हैं। इनमें सर्वाधिक सुन्दर महेश मूर्ति भारतीय कला की मूल्य धरोहर है।

राष्ट्रकूट काल में मूर्ति अथवा तक्षण कला

राष्ट्रकूट काल में वास्तु के साथ-साथ मूर्ति अथवा तक्षण कला की भी उन्नति हुई। गुप्त तथा चालुक्य शैली से प्रेरणा लेकर कलाकारों ने सुन्दर – सुन्दर मूर्तियाँ बनाई।ऐलोरा तथा एलिफैण्टा अपनी मूर्तिकारी के लिये सुप्रसिद्ध हैं। इस काल की शिव तथा विष्णु की मूर्तियाँ सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। ऐलोरा से शिव की तीनों शक्तियाँ – उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश से संबंधित मूर्तियाँ मिलती हैं। इनका सौन्दर्य एवं गढन उच्चकोटि का है। पार्वती की मूर्तियाँ भी काफी कलात्मक हैं। कैलाश मंदिर में रावण द्वारा कैलाश पर्वत उठाने तथा शिव का अनुग्रह करके उसे मुक्त करने संबंधी मूर्ति काफी मनोहर है। रामेश्वर, दशावतार तथा कैलाश मंदिरों में नटराज शिव की मूर्तियाँ मिलती हैं। वाराह तथा नृसिंह रूपी मूर्तियाँ काफी सुन्दर एवं कलात्मक हैं। इसके अलावा कमलासना लक्ष्मी, महिषमर्दिनी, दुर्गा, सप्तमातृकाओं आदि की मूर्तियाँ भी भव्य एवं सुन्दर हैं। दशावतार गुफा में बनी मकरारूढ गंगा की मूर्ति उत्कृष्ट है।

एलिफैण्टा की मूर्तियाँ मूर्तिशिल्प के चरमोत्कर्ष को सूचित करती हैं। यहाँ की गुफा में शिव, ब्रह्मा, विष्ण, सूर्य, इन्द्र, यम, गणेश, स्कन्द आदि की मूर्तियाँ बनायी गयी हैं। शिव के विविध रूपों एवं लीलाओं से संबंधित मूर्तियाँ काफी अच्छी हैं। उत्तरी द्वार के सामने जगप्रसिद्ध त्रिमूर्ति है, जो समस्त राष्ट्रकूट कला की सर्वोत्तम रचना है। पहले ऐसा समझा गया था, कि यह ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की संयुक्त प्रतिमा है, जिनकी गणना त्रिदेव में की जाती है। किन्तु जे.एन.बनर्जी ने इस अवधारणा का खंडन करते हुये मूर्ति का तादात्म्य शिव के तीन रूपों शांत, उग्र तथा शक्ति से करते हुये इसे महेश मूर्ति की संज्ञा दी है। यह 17 फीट 10 इंच ऊँची है। इसका केवल आवक्ष तक का भाग दिखाया गया है। बीच का मुख शिव के शांत,दायीं ओर का मुख रौद्र तथा बायीं ओर का मुख (जो नारी मुख है) शक्ति रूप का प्रतीक है। कलाकार को विविध विरोधी शक्तियों को कला में मूर्तरूप देने में आशातीत सफलता मिली है। एस.के.सरस्वती इसे सबसे विशिष्ट मूर्ति बताते हैं।

एलोरा की चित्रकला

वास्तु तथा दक्षण के साथ-साथ एलोरा चित्रकला का भी महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। अपनी चित्रकारी के कारण कैलाश मंदिर को रंगमहल भी कहा जाता है। दुर्भाग्यवश यहां के अधिकतर चित्र नष्ट हो गये हैं। या फिर फिके पङ गये हैं।

ऐलोरा के चित्र जैन तथा ब्राह्मण धर्मों से संबंधित हैं, जिन्हें 7 वीं से 11 वीं शती के बीच तैयार किया गया था। कैलाश मंदिर में की गयी चित्रकारियाँ उत्तम कोटि की हैं। मंडप की छत पर नटराज शिव का चित्र है, जिसमें उनकी दस भुजायें दिखाई गयी हैं। देवमंडल देवियों के साथ शिव को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुये प्रदर्शित किया गया है। इन्द्र सभा में पार्श्वनाथ तथा अन्य तीर्थंकरों के चित्र बनाये गये हैं। इनके मुखमंडल की शांत भावना दर्शनीय है। गरुङ पर आसीन विष्णु के दोनों ओर लक्ष्मी तथा भूदेवी का अकंन है। चित्रों के माध्यम से शिव की विविध लीलाओं को दिखाया गया है। चित्रों में चटक रंगों की प्रमुखता है तथा रेखाओं का उभार प्रभावपूर्ण है। बारीक नक्काशी के उदाहरण मिलते हैं। स्तंभों पर बने वृक्षों एवं लताओं के चित्र अनुपम हैं। विद्याधरों की उङती पंक्ति तथा विद्याधर दंपति के चित्र मनोहर हैं।

ऐलोरा मंदिरों की दीवारों पर जो चित्र मिलते हैं, उनसे सूचित होता है, कि मंदिरों के निर्माण के बाद उन्हें सुन्दर चित्रों से अलंकृत किया जाता था। चित्रकला पर अजंता का प्रभाव है, किन्तु शैली भिन्न प्रकार की है। राष्ट्रकूट चित्रकला में अजंता चित्रकला जैसे भाव तथा सौन्दर्य नहीं मलिते हैं। चित्रों के नष्ट हो जाने तथा धूमिल पङ जाने के कारण ऐलोरा चित्रकला का सही मूल्यांकन संभव नहीं है।

इस प्रकार राष्ट्रकूट राजाओं के संरक्षण में कला एवं स्थापत्य के विविध अंगों का पूर्ण एवं सम्यक् विकास हुआ। राष्ट्रकूट स्थापितों एवं शिल्पियों ने अपनी पूर्वकालीन एवं समकालीन अनेक कला शैलियों को ग्रहण कर अपनी अनुभूति तथा कौशल को उसमें सम्मिलित करके वास्तु एवं तक्षण को नया आयाम दिया। उनकी कृतियों में गुप्त युग की अपेक्षा अधिक विशालता, अलंकरण एवं चमत्कार दृष्टिगोचर होता है। अनेक कला समीक्षक तो राष्ट्रकूट वास्तु एवं स्थापत्य को ही भारतीय कला का स्वर्णिम अध्याय निरूपित करते हैं।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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