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राष्ट्रकूट शासकों का धर्म

राष्ट्रकूट शासक उत्साही विजेता होने के साथ-साथ धर्म, साहित्य और कला में भी गहरी अभिरुचि रखते थे तथा शांति के काल में किये गये उनके कार्य भी प्रशंसनीय हैं। राष्ट्रकूट राजाओं ने ब्राह्मण तथा जैन दोनों ही धर्मों को प्रश्रय प्रदान किया, जो उनकी धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है। राष्ट्रकूटों के काल में दक्षिणापथ में जैन धर्म का विकास हुआ। महान राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष प्रथम ब्राह्मण धर्म से अधिक जैन धर्म में अभिरुचि रखता था। प्रसिद्ध जैन आचार्य जिनसेन उसके गुरु थे तथा उसने एक जैन आचार्य गुणभद्र को अपने पुत्र कृष्ण का शिक्षक नियुक्त किया था। उसने बनवासी में जैन – विहार निर्मित करवाया था तथा अनेक जैन विहारों को उसने दान दिये थे। कई राष्ट्रकूट सेनापति भी जैन मतानुयायी थे। जैन धर्म के अलावा राष्ट्रकूट काल में वैष्णव एवं शैव धर्मों का भी व्यापक प्रचार-प्रसार था। अमोघवर्ष ने जैन होते हुये भी महालक्ष्मी की पूजा की तथा एक बार अपने राज्य को भीषण महामारी से बचने के लिये उसने अपनी एक ऊँगली उसे काटकर चढा दी थी।

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राष्ट्रकूट युग में बौद्ध धर्म का प्रचार कम रहा।कन्हेरी का बौद्ध विहार इस समय सर्वाधिक प्रसिद्ध था। इस्लाम धर्म के प्रति भी इस काल के लोगों का दृष्टिकोण सहिष्णुतापूर्ण था। मुस्लिम लेखकों के विवरण से पता चलता है, कि राष्ट्रकूट राज्य में अरब व्यापारियों को मस्जिद बनाने तथा धर्म का पालन करने की पूरी स्वतंत्रता मिली हुई थी।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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