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राष्ट्रकूट शासकों का शासन प्रबंध

राष्ट्रकूट शासन में राजा की स्थिति महत्त्वपूर्ण एवं सर्वोच्च होती थी। महाराजाधिराज, परमभट्टारक जैसी उच्च सम्मानपरक उपाधियों के अलावा राष्ट्रकूट शासक धारावर्ष, अकालवर्ष, सुवर्णवर्ष, जगत्तुंग जैसी व्यक्तिगत उपाधियाँ भी धारण करते थे। राजपद आनुवंशिक होता था। राजा का बङा पुत्र ही युवराज बनता था, जो राजधानी में रहते हुये अपने पिता की प्रशासनिक कार्यों में सहायता करता था। सैनिक अभियानों में वह पिता के साथ जाता था। छोटे पुत्र प्रांतों में राज्यपाल बनाये जाते थे। युवराज ही प्रायः सम्राट की मृत्यु के बाद राज्य का उत्तराधिकारी बनता था, किन्तु कभी-कभी दूसरे योग्य व्यक्ति को भी शासक बना दिया जाता था। इस प्रकार का उदाहरण गोविन्द तृतीय का है।

राष्ट्रकूट शासक अपनी राजधानी में रहता था, जहाँ उसकी राजसभा तथा केन्द्रीय प्रशासन के कर्चारी रहते थे। राजसभा ऐश्वर्य तथा वैभव से परिपूर्ण होती थी। सामंत, राजदूत, मंत्री, सैनिक तथा असैनिक अधिकारी, कवि, वैद्य, ज्योतिषी आदि नियमित रूप से राजसभा में उपस्थित होते थे। सम्राट अपनी मंत्रिपरिषद के परामर्श से शासन करता था। राष्ट्रकूट लेखों में मंत्रियों के विभागों के नाम नहीं मिलते हैं। अधिकांश मंत्री सैनिक पदाधिकारी भी होते थे। कुछ सामंत स्थिति के थे, जिन्हें जागीर दी जाती थी। लेखों में मंत्री को राजा का दाहिना हाथ कहा गया है।

राष्ट्रकूट शासन में सामंतवाद की पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी। कुछ भागों का प्रबंध सामंत ही करते थे। दक्षिणी गुजरात आदि प्रदेशों के सामंत तो पूरी स्वायत्तता का उपयोग करते थे तथा नाममात्र के लिये ही सम्राट की अधीनता स्वीकार करते थे। प्रमुख सामंत अपने अधीन छोटे सामंत रखते थे, जिन्हें राजा कहा जाता था। सामंतगण सम्राट की राजसभा में समय-समय पर उपस्थित होते थे, उसे उपहारादि देते थे, युद्धों के समय सैनिक भेजते थे। तथा स्वयं भी सम्राट के साथ सैनिक अभियान पर जाया करते थे। राष्ट्रकूट शासक अपने अधीनस्थ सामंत राजाओं तथा सामंतों के द्वारा ही प्रशासन चलाते थे। सामंत हमेशा स्वतंत्र होने की ताक में लगे रहते थे। इस कारण उनका राजा के साथ प्रायः युद्ध होता था। राष्ट्रकूट राजाओं को वेंगी तथा कर्नाटक के अपने सामंतों के साथ कई बार संघर्ष करना पङा।

सामंतवाद किसे कहते थे?

सम्राट के सीधे नियंत्रण वाले क्षेत्र को कई राष्ट्रों में बाँटा गया। राष्ट्र आधुनिक कमिश्नरियों के समान थे। राष्ट्र को मंडल भी कहा जाता था। कुल राष्ट्रों की संख्या 20-25 के लगभग थी। इसका प्रधान अधिकारी राष्ट्रपति कहलाता था। वह नागरिक तथा सैनिक दोनों ही प्रकार के शासन का प्रधान होता था। उसके अधीन सेना भी होती थी। वह सामंतों तथा पदाधिकारियों के ऊपर नियंत्रण रखता था और किसी प्रकार के विद्रोह की स्थिति में तुरंत उसे दबाता था। राष्ट्रपति स्वयं भी सैनिक अधिकारी होता था। उसका पद गुप्त प्रशासन के उपरिक नामक पदाधिकारी के समान होता था। किन्तु उसे सम्राट की अनुमति प्राप्त किये बिना भूमिकर माफ करने अथवा विषय के पदाधिकारियों की नियुक्ति करने का अधिकार नहीं था।

प्रत्येक राष्ट्र में कई विषय होते थे, जो आधुनिक जिले के समान थे। इनमें एक हजार से लेकर चार हजार तक गांव होते थे। विषय का प्रधान विषयपति होता था। विषय का विभाजन कई भुक्तियों में हुआ था, जो आधुनिक तहसीलों के समान थी।भुक्ति के प्रधान को भोगपति कहा जाता था। विषयपति तथा भोगपति अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों में प्रायः वही कार्य करते थे, जो राष्ट्रपति, राष्ट्र में करता था। प्रत्येक भुक्ति में 50 से लेकर 70 तक ग्राम होते थे। विषयपति तथा भोगपति देशग्रामकूट नामक वंशानुगत राजस्व अधिकारियों के सहयोग से राजस्व विभाग का प्रशासन चलाते थे। इन अधिकारियों को करमुक्त भूमिखंड दिये जाते थे। ग्राम का शासन मुखिया द्वारा चलाया जाता था।उसे ग्रामकूट, ग्रामपति अथवा गावुन्ड कहा जाता था। उसकी सहायता से वह ग्राम में शांति और व्यवस्था की स्थापना करता था तथा चोर-डाकुओं का दमन करता था। उसका प्रमुख कार्य भूमिकर एकत्रित करके राजकोष में जमा करना था। मुखिया का पद आनुवंशिक था तथा अपनी सेवाओं के बदले उसे भी करमुक्त भूमिखंड दिये जाते थे। राष्ट्रकूट प्रशासन में नगरों तथा ग्रामों दोनों को स्वायत्त शासन का अधिकार प्रदान किया गया था। प्रत्येक ग्राम तथा नगर में जन-समितियों का गठन किया गया था, जो स्थानीय शासन का संचालन करती थी। कर्नाटक तथा महाराष्ट्र के प्रत्येक गाँव में एक सभा होती थी।

ग्राम-सभा में प्रत्येक परिवार का वयस्क सदस्य होता था। ग्राम के बङे-बूढों को महत्तर कहा जाता था। वे पाठशालाओं, मंदिरों, सङकों, तालाबों आदि की देखभाल करने तथा व्यवस्था रखने के लिये उपसमितियाँ नियुक्त करते थे। ये समितियाँ मुखिया के साथ मिलकर कार्य करती थी। दीवानी मामलों का फैसला ग्राम सभायें ही करती थी। नगरों में भी इसी प्रकार की समितियाँ होती थी। राष्ट्रकूट लेखों में यदा-कदा विषयमहत्तर तथा राष्ट्रमहत्तर का उल्लेख मिलता है। इससे सूचित होता है, कि जिलों तथा प्रांतों के मुख्यालयों पर भी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली सभायें होती थी। किन्तु इनके कार्यों के विषय में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती है।

राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर था, जिसे उद्रंग अथवा भोगकर कहा जाता था। यह उपज का चौथा भाग होता था और प्रायः अनाज के रूप में लिया जाता था। जो भूमि अनुदान में दी जाती थी वह सभी करों से मुक्त होती थी। दुर्भिक्षादि विपत्तियों में कर माफ कर दिया जाता था,अथवा उसकी मात्रा कम कर दी जाती थी। भूमिकर के अलावा खानों, वनों, क्रय-विक्रय की वस्तुओं तथा चुंगी आदि के द्वारा भी प्रभूत आय होती थी। सामंत भी समय-समय पर सम्राट को कर, उपहार आदि दिया करते थे।

राष्टकूट सम्राट साम्राज्यवादी थे तथा अपने साम्राज्य का विस्तार करने के निमित्त अपने पास एक विशाल तथा शक्तिशाली सेना रखते थे। राजधानी में स्थायी सेना रहती थी तथा युद्धों के समय सामंत अपनी सेनायें भेजते थे। कुछ सम्राट जैसे गोविन्द तृतीय, इन्द्र तृतीय, कृष्ण द्वितीय आदि उच्चकोटि के सैनिक विजेता थे, जिन्होंने दक्षिणी भारत के अलावा उत्तरी भारत को भी अपने सैन्यबल से जीता था। राष्ट्रकूट सेना में सभी वर्गों के लोग रखे जाते थे। इसमें ब्राह्मण तथा जैन सैनिक भी थे। उल्लेखनीय है, कि कुछ प्रसिद्ध राष्ट्रकूट सेनापति- बंकेय, श्रीविजय, मारसिंह आदि जैन मतानुयायी थे। राष्ट्रकूट सेना में पदाति सेना का ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान था। इस प्रकार राष्ट्रकूट सम्राटों की शासन-व्यवस्था निपुण तथा उदार थी। इसमें प्रजा का भौतिक तथा नैतिक दोनों ही प्रकार का उत्थान हुआ।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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