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दक्षिण भारत के बारे में जानकारी

विन्ध्यपर्वत से लेकर सुदूर दक्षिण में स्थित कन्याकुमारी तक का विशाल पठारी प्रदेश सामान्यतः दक्षिण भारत (South india) कहा जाता है। इसका आकार एक ऐसे त्रिभुज के समान है, जिसका आधार विन्ध्यपर्वत, शीर्ष कन्याकुमारी तथा पश्चिमी और पूर्वी घाट दो भुजायें हैं। पश्चिमी और पूर्वी घाटों को क्रमशः अरब सागर और बंगाल की खाङी घेरे हुये है। पश्चिमी घाट अरब सागर के समीप कुर्ण्डवर्री दर्रे (महाराष्ट्र) से प्रारंभ होकर समुद्री मार्गों के समानान्तर चलता हुआ कर्नाटक के दक्षिण में नीलगिरि तक फैली है।

यह लगभग 1600 किलोमीटर लंबा तथा 1066 से 1220 मीटर ऊँचा है। इसकी मुख्य पहाङिया त्रिकूट, गोवर्धन, कृष्णगिरि, गोमांत आदि हैं। प्राचीन साहित्य में पश्चिमी घाट के उत्तरी भाग को सह्राद्रि तथा दक्षिणी भाग को मलय पर्वत कहा गया है। पश्चिम की ओर से यह घाट एक विशाल समुद्री दीवार के समान दिखाई देता है। इसे स्थान-स्थान पर अनेक दर्रे काटते हुए पठार तथा तटीय भागों के बीच आवागमन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

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उत्तर में स्थित दो दर्रों -थालघाट (583 मीटर ऊँचा) है तथा भोर घाट (630 मीटर ऊँचा है) से लेकर कन्याकुमारी तक फैला है। इसकी औसत चौङाई 64 किलोमीटर है। नर्मदा और ताप्ती के मुहाने के समीप यह 80 किलोमीटर चौङा है। इसका उत्तरी भाग कोंकण तथा दक्षिणी भाग मालाबार कहा जाता है। इसमें कोई बङी नदी नहीं है। पश्चिमी घाट में सोपारा, कांडला, भृगुकच्छ (भङौंच), कल्याण, मर्मगओं (गोआ), मंगलोर, कालीकट तथा कोच्चि (कोचीन) जैसे प्रसिद्ध बंदरगाह हैं। पश्चिमी तटवर्ती प्रदेश मसालों, कहवा, नारियल, तथा रबर की खेती के लिये प्रसिद्ध है।

पूर्वीघाट उङीसा के गंजाम जिले के महेन्द्रगिरि से प्रारंभ होकर बंगाल की खाङी के समानान्तर चलते हुये तिरुनेल्वेलि जिले (तमिलनाडु) के कुलक्काल तक फैला है। रामायण में इस स्थान को भी महेन्द्र पर्वत कहा गया है। यह पश्चिमी घाट के समान न तो सपाट है, और न ही ऊँचा। इसकी पवर्तमाला टूटी-फूटी तथा नीची है। किन्तु इसका मैदानी भाग पश्चिमी घाट के मैदानी भाग की अपेक्षा चौङा है। इसकी औसत चौङाई 161 से 483 किलोमीटर है। तथा इसमें महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्टे हैं। इसमें चावल की अच्छी पैदावार होती है। इसके उत्तरी भाग को उत्तरी सरकार तथा दक्षिणी भाग को कोरोमंडल तट कहा जाता है। पर्वतमाला के टूटी-फूटी तथा नीची होने के कारण पठार तथा मैदानी भागों में आवागमन में विशेष कठिनाई का सामना नहीं करना पङता है। पूर्वीघाट की प्रमुख पहाङियां श्रीशैल, पुष्पगिरि, वेंकताद्रि, ऋष्यमूक आदि हैं। यह घाट प्राकृतिक बंदरगाहों के उपयुक्त नहीं है, क्योंकि यहाँ की भूमि दलदल तथा नदियों के मुहानों के सामने की भूमि बालुई है। किन्तु जहाँ इस प्रकार की भूमि नहीं है, वहाँ जहाज लंगर डाल सकते हैं। इस तट के कुछ प्रसिद्ध बंदरगाह मसुलिपट्टनम्, कोरकै, कावेरीपत्तन, मद्रास आदि हैं।

नीलगिरि की पहाङियों में पश्चिमी तथा पूर्वी घाटों का मिलन होता है। नीलगिरि दकन के पठार का सबसे ऊँचा पर्वत है, जिसकी सर्वोच्च चोटी दोदाबेटा 2637 मीटर ऊँची है। इसके दक्षिण की ओर अनामलाई पहाङियाँ हैं, जिन्हें पालघाट के दर्रे नीलगिरि से अलग करते हैं। दक्षिण के पठार की औसत ऊँचाई 487 से 762 मीटर तथा क्षेत्रफल सात लाख वर्ग किलोमीटर है।

दक्षिण के निवासियों के आर्थक तथा सांस्कृतिक जीवन पर वहाँ की प्रसिद्ध नदियों ने गहरा प्रभाव डाला है। यहाँ की प्रमुख नदियाँ नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा, तुंगभद्रा तथा कावेरी हैं।

नर्मदा नदी

नर्मदा नदी मध्यभारत में सत्पुङा पहाङियों की उत्तरी-पूर्वी चोटी पर अमरकंटक पठार से निकलती है तथा यहां से पश्चिम की ओर बढती हुई 1312 किलोमीटर की दूरी तय करती हुई कच्छ की खाङी में गिरती है। यह नदी उत्तर तथा दक्षिण के बीच विभाजक रेखा के रूप में रही है।

गोदावरी

गोदावरी का स्थान भारत की पवित्र नदियों में है तथा दक्षिण के लोग इसे गंगा अथवा गौतमी गंगा के नाम से जानते हैं। यह महाराष्ट्र के नासिक जिले में त्रिम्बक के ब्रह्मगिरि नामक स्थान से निकलकर 1450 किलोमीटर की दूरी तय करती हुई बंगाल की खाङी में गिरती है। इसके मार्ग में अनेक सुंदर एवं दर्शनीय स्थल पङते हैं।

कृष्णा

कृष्णा नदी, गोदावरी की अपेक्षा छोटी है। इसकी लंबाई 1280 किलोमीटर है। यह अरब सागर से लगभग चालीस मील की दूरी पर महाबालेश्वर के पास से निकलकर पहले दक्षिण की ओर बहती है। उसके बाद कुरुन्दववद से आगे पूर्व की ओर मुङती हुई दक्षिण महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश से होती हुयी अंत में बंगाल की खाङी में समा जाती है।

तुंगभद्रा

तुंगभद्रा, कृष्णा की मुख्य सहायक नदी है। अन्य सहायक नदियाँ घाटप्रभा तथा मलप्रभा हैं। तुंगभद्रा, कर्नाटक राज्य के श्रृंगेरी (श्रृंगगिरि या वाराह) पर्वत के अंतर्गत तुंग तथा भद्र नामक दो पर्वतों से निकलने वाली दो नदियों के मिलन से उत्पन्न हुई धारा से बनती हैं। यह नदी उत्तर-पूर्व दिशा में चलती हुई आंध्र के कुर्नूल जिले के समीप कृष्णा नदी से मिल जाती है। कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों ने तमिल प्रदेश की उत्तरी सांस्कृतिक सीमा का निर्धारण किया है। इसी के दक्षिण स्थित प्रदेश को द्रविङ देश अथवा तमिलहम् कहा गया है। अनेक बार दक्षिणापथ तथा आंध्र के राजाओं ने कृष्णा नदी को पार कर तमिल राज्य में प्रवेश किया। इसी प्रकार तमिल देश के चोल तथा पल्लव शासकों ने भी कृष्णा नदी को पार कर दक्षिण एवं आंध्रप्रदेश के राज्यों को आक्रांत किया। तुंगभद्रा नदी का आर्थिक दृष्टि से भी महत्त्व रहा है। इस पर बंधे हुए बाँध से होयसल राज्य में जलापूर्ति की जाती थी।

कावेरी

कावेरी नदी का तमिलवासियों के सांस्कृतिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिस प्रकार उत्तर के लोग गंगानदी को पवित्र मानते हैं। तमिल साहित्य में स्थान – स्थान पर उसकी पवित्रता के गुणगान करते हुये उसके प्रति स्तुति के भाव प्रकट किये गये हैं। वस्तुतः तमिल संस्कृति का विकास इसी नदी के काँठे में हुआ। इसे पल्लवों की बल्लभा कहा गया है। यह कर्नाटक के कुर्ग जिले में तलकावेरी के पास ब्रह्मगिरि से निकलती है तथा दक्षिण कर्नाटक एवं तमिलनाडु को अपने जल से सींचती हुई तंजौर जिले में अनेक धाराओं में फूटकर बंगाल की खाङी में गिरती है। यह 760 किलोमीटर लंबी है। कंबनी, हेमावती, अकीवती आदि इसकी सहायक नदियाँ हैं। इनके द्वारा कावेरी नदी सदा जलवती रहती है। सिंचाई के साधन के रूप में इस नदी का सर्वाधिक महत्त्व था। चोल राजाओं ने इसका भरपूर उपयोग किया। इसी नदी के तट पर कावेरीपत्तन नामक प्रसिद्ध बंदरगाह था।

दक्षिण की प्रमुख नदियों में – गोदावरी, नर्मदा तथा कावेरी को संपूर्ण भारतवासी पवित्र मानते थे। इनकी गणना गंगा, यमुना, सरस्वती तथा सिंधु के साथ करते हुए स्नान के समय इनके आह्वान का विधान था।

दक्षिण भारत की प्राकृतिक विशिष्टता ने यहाँ के इतिहास तथा संस्कृति को प्रभावित किया है। इस विशिष्टता के परिणामस्वरूप गोदावरी के दक्षिण में एक ऐसी संस्कृति विकसित हुई, जो उत्तर की आर्य संस्कृति से भिन्न थी। इसे द्रविङ संस्कृति नाम दिया जाता है। बहुत समय तक यहाँ आर्य संस्कृति का प्रवेश नहीं हो पाया। कुछ विद्वान भारत में द्रविङ तत्व का अस्तित्व आर्य तत्व से भी पहले सिद्ध करते हैं। उत्तर-पश्चिम में द्रविङ परिवार की एक भाषा ब्राहुई का पता चलता है। तिमिलदेश में आर्य संस्कृति का प्रवेश संगमकाल के कुछ पूर्व हुई। परंपरा के अनुसार ऋषि अगस्त्य ने दक्षिण में आर्य संस्कृति को पहुँचाने का कार्य किया। यह निश्चित नहीं है कि द्रविङ जातियों की उत्पत्ति किस मूल प्रजाति से हुई। उनमें चूँकि विभिन्न रूप-रंग वाले लोग हैं, अतः उन्हें विभिन्न प्रभेदों वाली जातियों के सम्मिश्रण से ही उत्पन्न माना जा सकता है। भाषा विज्ञान के आधार पर द्रविङ जाति में समभूमध्यसागरीय मानव प्रकार (प्रोटोमेडीटरेयिन) के तत्त्व अधिक पाये जाते हैं। इसके अलावा तमिलदेश में आरमेनियन (आरर्मेनाएड) तथा केरल में अल्पाइन-आरमेनियन मानव प्रकारों के तत्व भी दृष्टिगोचर होते हैं।

दक्षिण में कई भाषाओं का प्रचलन था। आंध्र में तेलगु तथा तमिलक्षेत्र के पश्चिम में कन्नङ, और मलयालम का बोल-बाला था। तमिल भाषा भी बोली जाती थी। इसे संबद्ध कुछ अन्य बोलियों जैसे कोडगु, कुई, ओरनगोन्डी आदि का भी द्रविङ क्षेत्र में प्रचलन था। संस्कृत तथा द्रविङ भाषा परिवार के अनेक शब्द एक दूसरे से समता रखते हैं। प्रथम वर्ग में मराठी की गणना की जा सकती है, जबकि द्वितीय के अन्तर्गत मुण्डा, खरियां, जुआंग, सवर, गवद तथा कुर्क को सम्मिलित किया जा सकता है।

प्राचीन काल के दक्षिण भारत को दो भागों में विभाजित किया गया है-

  1. दक्षिणापथ अथवा दकन – इस भाग के अंतर्गत उत्तर में नर्मदा नदी से लेकर दक्षिण में तुंगभद्रा (कर्नाटक राज्य) नदी तक का संपूर्ण प्रदेश सम्मिलित था। प्राचीन साहित्य में दक्षिणापथ की सीमा दक्षिण में महिषमंडल तक बताई गयी है। विस्तृत अर्थ में इस शब्द का प्रयोग विन्ध्य पर्वत तथा दक्षिणी समुद्र (हिन्द महासागर) के बीच स्थित विशाल प्रदेश के लिये किया गया है। पेरीप्लस के लेखक ने बेरीगाजा अर्थात् भङौंच से परे प्रदेश को दचिनाबेडीज (दक्षिणापथ) कहा है। इस प्रकार विस्तृत अर्थ में तो दकन के अंतर्गत संपूर्ण दक्षिण भारत को सम्मिलित कर लिया गया था किन्तु संकुचित अर्थ में दक्षिणापथ की परिधि में सुदूर दक्षिण के तमिल राज्यों की गणना नहीं की गयी है।
  2. सुदूर दक्षिण – इस भाग के अन्तर्गत तुंगभद्रा नदी के दक्षिण का समस्त भूभाग सम्मिलित था। इस भाग को द्रविङ अथवा तमिल देश कहा जाता था। अति प्राचीन काल से यहाँ चोल, चेर तथा पाण्ड्य राज्यों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है। पेरीप्लस में इस भाग को दमिरिका (दमिलकम्) कहा गया है। इस तिकोने भूभाग में कृष्णा, तुंगभद्रा, कावेरी तथा उसकी सहायक नदियां बहती हैं।

इस विवरण में हमने दक्षिण भारत के प्रमुख बंदरगाहों का विवरण दिया है, जिनके बारे में परिक्षाओं में कई बार पूछ लिया जाता है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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