इतिहासदक्षिण भारतसंगम युग

संगम साहित्य क्या था

अन्य संबंधित महत्त्वपूर्ण लेख-

  1. संगम कालीन सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक स्थिति क्या थी
  2. संगम काल की शासन व्यवस्था क्या थी
  3. विजयनगर साम्राज्य का राजनीतिक इतिहास

‘संगम’ शब्द का अर्थ –

संगम शब्द का अर्थ है- संघ, परिषद्, गोष्ठी अथवा संस्थान संगम – तमिल कवियों, विद्वानों, आचार्यों, ज्योतिषियों एवं बुद्धिजीवियों की एक परिषद् थी। तमिल भाषा में लिखे गये प्राचीन साहित्य को ही संगम साहित्य कहा जाता है।

Prev 1 of 1 Next
Prev 1 of 1 Next

सर्वप्रथम इन परिषदों काआयोजन पाण्ड्य राजाओं के राजकीय संरक्षण में किया गया। संगम का महत्त्वपूर्ण कार्य होता था, उन कवियों व लेखकों की रचनाओं का अवलोकन करना, जो अपनी रचाओं को प्रकाशित करवाना चाहते थे। परिषद् अथवा संगम की संस्तुति के उपरान्त ही वह रचना प्रकाशित हो पाती थी। प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि, इस प्रकार की तीन परिषदों का आयोजन पाण्ड्य शासकों के संरक्षण में किया गया।

मदुरा मंडल अथवा सम्मेलन में तमिल कवियों के सम्मेलन की चर्चा है। इसका प्रथम उल्लेख इरैयनार अगप्पोरूल (8वीं सदी) के विवरण से प्राप्त होता है। तमिल परंपरा से तीन साहित्यिक परिषदों का विवरण मिलता है। वे पांडय राजाओं की राजधानी में आयोजित की गयी थीं।

तीन संगम निम्नलिखित हैं-

प्रथम संगम- यह मदुरै में आयोजित हुआ। आचार्य अगस्त्य ने इसकी अध्यक्षता की। अगस्त्य ऋषि को ही दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति के प्रसार का श्रेय दिया गया है। तमिल भाषा में प्रथम ग्रन्थ के प्रणेता भी इन्हें ही माना गया है। माना जाता है कि प्रथम संगम में देवताओं और ऋषियों ने भाग लिया था, किन्तु प्रथम संगम की सभी रचनाएँ विनष्ट हो गई।

दूसरा संगम- यह कवत्तापुरम या कपाटपुरम में आयोजित हुआ। इसके अध्यक्ष-अगस्त्य और तोल्कापियम हुए। इसकी भी सभी रचनाएँ विनष्ट हो गई, केवल एक तमिल व्याकरण तोल्कापियम बचा रहा।

तीसरा संगम- मदुरै में आयोजित हुआ। नकीर्र ने इसकी अध्यक्षता की। तीसरे संगम में रचित साहित्य 8 संग्रह ग्रन्थों में संकलित है। इन्हें ऐत्तुतोगई कहते हैं। आठ ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. नण्णिनै- प्रेम पर 400 छोटी कविताएँ हैं।
  2. कुरून्थोकै- प्रेम पर 400 कविताएँ हैं।
  3. एनगुरूनूर- किलार द्वारा रचित प्रेम पर 500 कविताएँ हैं।
  4. पदितुप्पतु- चेर राजाओं की प्रशंसा में आठ कविताएँ हैं।
  5. परिपादल- देवताओं की प्रशंसा में 20 कविताएँ हैं।
  6. करितोगई- 150 कविताएँ हैं।
  7. अहनानुरू- रूद्रश्रमण द्वारा रचित 400 कविताएँ हैं।
  8. पुरनानुरू- राजा की स्तुति में 400 कविताएँ है।

उपर्युक्त आठ ग्रन्थ एवं दस ग्राम्य गीत मेलकन्कु के नाम से जाने जाते हैं। ये दस ग्राम्य गीत पतुपतु में संकलित हैं। मेलकन्कु आख्यानात्मक साहित्य को कहा गया है।

इन रचनाओं के वर्गीकरण के कई आधार हैं। रचनाओं के वर्गीकरण का एक आधार है कि इसका विभाजन अगम और पुरम में हुआ है। अगम (अंतरंग) प्रेमसंबंधी, पुरम (बाह्य)-राजाओं की प्रशंसा संबंधित इनके विभाजन का दूसरा आधार भी है और यह विभाजन क्षेत्र के अनुसार भी किया गया है।

सम्पूर्ण साहित्य को पाँच तिनै (क्षेत्रों) में विभाजित किया गया है जो निम्नलिखित हैं-

1. कुरुंजी (पर्वत)- विवाह से पूर्व के प्रेम तथा पशुओं के आक्रमण से संबंधित कविताओं के लिए है। इसमें अर्थव्यवस्था का आधार आखेट और संग्रहण था। यह जाति-समुदाय करवर और बेलट के लिए थी।

2. पलै (पलई) (निर्जल स्थल)- ये प्रेमियों के दीर्घकालीन विरह तथा ग्रामीण पक्ष को नष्ट करने वाली कविता के लिए था। इसमें आर्थिक गतिविधि-आखेट और डकैती थी। जाति-ऐनियर और मरवर इसके सामुदायिक पक्ष थे।

3. मुल्लै (मुल्लई) (जंगल)- जंगल प्रेमियों के अल्पकालीन वियोग के लिए तथा आक्रमण की साहसिक यात्रा के लिए मुल्लै होता था। इसकी आर्थिक गतिविधि पशुपालन, झूम की खेती से संबंधित थी। जाति और समुदाय-चरवाहा (आयर और इटैयर) आदि थे।

4. मरूदम-(कृषि के लिए जुते मैदान)- यह विवाह के बाद के प्रेम अथवा वेश्याओं के कपट व्यवहार के लिए होता था। इसकी आर्थिक गतिविधि कृषि एवं उससे संबंधित पक्ष थे। इससे जुड़ी जाति-उसवर और वेल्लार थी।

5. नेयतल-(समुद्र तट)- यह मत्स्य जीवियों के पत्नी वियोग तथा स्थायी युद्ध के लिए होता था। इसकी आर्थिक गतिविधि थे- मछली पकड़ना, मोती निकालना, नमक बनाना।

किलकन्कु

  • इनमें 18 लघु ग्रन्थ है। तमिल साहित्य की दूसरी तह में आर्य प्रभाव बहुत अधिक मात्रा में दृष्टिगोचर होता है। जैन प्रभाव की प्रधानता व्याप्त है। यह साहित्य नीतियुक्त है। इनमें दो ग्रंथ तिरुक्कुराल और नलदियार महत्त्वपूर्ण हैं। तिरुक्कुराल को तमिल साहित्य का बाइबिल कहा गया है। किलकन्कु साहित्य उपदेशात्मक साहित्य को कहा गया।

तीसरे प्रकार का साहित्य-महाकाव्य था तीन महाकाव्यों की रचना हुई –

  • महाकाव्य का प्रथम ग्रन्थ – शिल्पादिकरम है। इस रचना को तमिल जनता का राष्ट्रीय काव्य माना गया हैं। शिल्पादिकरम में श्रीलंका के शासक गजबाहु की भी चर्चा की गई है। माना जाता है कि वह उस समय उपस्थित था जिस समय सेनगुटुवन के द्वारा कन्नगी के लिए एक मंदिर स्थापित किया जा रहा था।

शिल्पादिकरम का अर्थ होता है नुपूर की कहानी। इसकी रचना इलगोअदिगल द्वारा की गई जो चेर शासक शेनगुट्टुवन का छोटा भाई था। इस ग्रंथ का कथानक पुहार (कावेरी पट्टनम) के व्यापारी कोवलन पर आधारित है। कोवलन का विवाह कन्नगी से हुआ था। बाद में कोवलन की भेंट माधवी नामक एक वेश्या से हो जाती है। माधवी के प्रेम में कोवलन कन्नगी को भूल जाता है। अपनी सम्पूर्ण संपत्ति लुटाने के बाद जब उसे होश आता है तब वह अपनी पत्नी के पास लौट जाता है। कन्नगी उसे अपना एक नुपुर देती है जिसे बेच कर वे दोनों व्यापार की इच्छा से मदुरा आते अआते हैं। वैसा ही एक नुपुर मदुरा की रानी का भी खो जाता है तथा कोवलन को झूठे आरोप में मृत्युदंड दे दिया जाता है। बाद में कन्नगी के श्राप से पूरी नगरी भस्म हो जाती है। कन्नगी मरणोपरांत पुनः स्वर्ग में कोवलन से मिल जाती है।

  • दूसरा महाकाव्य –मणिमेखलाई है। इसकी रचना मदुरा के एक अनाज व्यापारी स्रोत वैशतनर ने की थी। यह एक बौद्ध था। मणिमेंखलाई की नायिका शिल्पादिकरम के नायक कोवलन की वेश्या प्रेमिका माधवी से उत्पन्न पुत्री मणिमेखलाई है। माधवी कोवलन की मृत्यु का समाचार सुनकर बौद्ध बन जाती है। उधर राजकुमार उदयन द्वारा मणिमेखलाई अपने सतीत्व की रक्षा करती है। बाद में वह भी अपनी माँ के कहने पर बौद्ध भिक्षुणी बन जाती है।
  • तीसरा महाकाव्य- जीवक चिन्तामणि है। इसका लेखक तिरूतक्कदेवर है। इसमें जीवक जैसे योद्धा के अद्भुत कार्य का वर्णन किया गया है। किन्तु अंत में वह जैन धर्म ग्रहण कर लेता है। शिल्पादिकरम और मणिमेखलाई, बौद्ध धर्म से प्रभावित हैं तथा जीवक चिन्तामणि जैन धर्म से।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

Related Articles

error: Content is protected !!