इतिहासदक्षिण भारतप्राचीन भारतसंगम युग

संगम काल की शासन व्यवस्था क्या थी

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संगमकाल दक्षिण भारत के प्राचीन इतिहास का एक कालखण्ड है। यह कालखण्ड ईसापूर्व तीसरी शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी तक फैला हुआ है। यह नाम ‘संगम साहित्य’ के नाम पर पड़ा है।सुदूर दक्षिण भारत में कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदियों के बीच के क्षेत्र को ‘तमिल प्रदेश’ कहा जाता था। इस प्रदेश में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व था, जिनमें चेर, चोल और पांड्य प्रमुख थे। दक्षिण भारत के इस प्रदेश में तमिल कवियों द्वारा सभाओं तथा गोष्ठियों का आयोजन किया जाता था। इन गोष्ठियों में विद्वानों के मध्य विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता था, इसे ही ‘संगम’ के नाम से जाना जाता है। 100 ई. से 250 ई. के मध्य दक्षिण भारत में तीन संगमों को आयोजित किया गया।  सर्वप्रथम इन गोष्ठियों का आयोजन पांड्य राजाओं के राजकीय संरक्षण में किया गया था, जिसकी राजधानी मदुरई थी।

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संगमकालीन शासक-

  • हरिहर प्रथम ( 1336-1356ई.)- यह विजयनगर साम्राज्य का संस्थापक था। उसने अपनी पहली राजधानी अनेगोण्डी को बनाया बाद में विजयनगर को अपनी राजधानी बनाया। 1346ई. में उसने होयसल राज्य को जीतकर विजय नगर साम्राज्य में मिलाया। 1352- 53ई. में हरिहर ने मदुरा की सल्तनत पर विजय प्राप्त की और उस पर अधिकार कर लिया।
  • बुक्का प्रथम (1356-1377 ई. )- हरिहर का उत्तरा धिकारी उसका भाई बुक्का प्रथम हुआ यह 1346ई. से ही संयुक्त शासक के रूप में शासन कर रहा था। 1374ई. में बुक्का प्रथम ने चीन में एक दूत मंडल भेजा  था. 1377ई. में उसने मदुरै के अस्तित्व को मिटाकर उसे विजयनगर साम्राज्य में मिला लिया। अब विजयनगर साम्राज्य का प्रसार सारे दक्षिण भारत, रामेश्वरम् तक हो गया इसमें तमिल व चेर ( केरल ) के प्रदेश भी समिल्लित थे। उसने बहमनी सुल्तान मुहम्मद शाह प्रथम के साथ युद्ध किया उसके बाद समझौता किया, जिसके कारण कृष्णा-तुंगभद्रा ( रायचूर ) नदियों के दोआब पर विजयनगर का अधिकार हो गया। धार्मिक दृष्टि से उसने हिन्दू धर्म की सुरक्षा का दावा किया और वेद-मार्ग -प्रतिष्ठान की उपाधि ग्रहण की। परंतु उसने जैन, बौद्ध, इसाई तथा मुसलमान आदि सभी को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। उसने वेद और अन्य धार्मिक ग्रंथों की नवीन टीकाएँ लिखवायी तथा तेलगू साहित्य को प्रोत्साहन दिया। बुक्का प्रथम के समय में कृष्णा नदी को बहमनी और विजयनगर राज्य की सीमा मान लिया गया।
  • हरिहर द्वितीय ( 1377-1404ई. ) –  हरिहर द्वितीय ने महाधिराजाधिराज की उपाधि धारण की। उसने कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, कांची आदि प्रदेशों को जीता और श्रीलंका के राजा से राजस्व वसूल किया। राजचूर दोआब को लेकर उसका बहमनी राज्य से झगङा हुआ परंतु उसमें फिरोजशाह बहमनी ने उसे पराजित किया। हरिहर द्वितीय शिव के विरुपाक्ष का उपासक था, किन्तु वह अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णु था। हरिहर द्वितीय की सबसे बही सफलता पश्चिम में बहमनी राज्य से बेलगाँव तथा गोआ पर अधिकार करना था।
  • देवराय प्रथम ( 1406-1422ई.)-अपने राज्यरोहण के तुरंत बाद उसे फिरोजशाह बहमनी के आक्रमण का सामना करना पङा। बहमनी शासक के हाथों उसकी हार हुई और उसे हूनों, मोतियों और हाथियों के रूप में दस लाख रुपये का हर्जाना देना पङा। उसे सुल्तान फिरोजशाह के सााथ अपनी लङकी की शादी करनी पङी और दहेज के रूप में दोआब क्षेत्र में स्थित बॉकापुर भी सुल्तान को देना पङा ताकि भविष्य में युद्ध की गुंजाइश न रहे। दक्षिण भारत में यह इस प्रकार का पहला राजनीतिक विवाह नहीं था इससे पहले खेरला का राजा शांति स्थापित करने के लिए फिरोज बहमनी के साथ अपनी लङकी की शादी कर चुका था। देवराय प्रथम ने अनेक जनकल्याणकारी योजनाएँ प्रारंभ की। 1410ई. में उसने तुंगभद्रा पर बाँध बनवाकर अपनी राजधानी विजयनगर तक नहरें (जलसेतु या जलप्रणाली ) निकलवाई। इससे राजधानी में जल का अभाव समाप्त हो गया।इसके शासनकाल में इतालवी यात्री निकोलीकोण्टी ने विजयनगर की यात्रा की। उसने नगर और उसके नरेश का उल्लेख करते हुए विजयनगर में मनाए जाने वाले दीपावली, नवरात्र औदि जैसे उत्सवों का भी वर्णन किया है। देवराय प्रथम विद्वानों का भी महान संरक्षक था। उसके दरबार में हरविलासम और अन्य ग्रंथों के रचनाकार प्रसिद्ध तेलगू कवि श्रीनाथ सुशोभित करते थे। उसके विषय में कहा जाता है कि सम्राट अपने राजप्रासाद के मुक्ता सभागार में प्रसिद्ध व्यक्तियों को सम्मानित किया करता था। उसके समय में विजयनगर दक्षिण भारत में विद्या का केन्द्र बन गया।
  • देवराय द्वितीय ( 1422-1446ई.)- यह इस वंश का महानतम शासक माना जाता है। इस शासक के अभिलेख सम्पूर्ण विजयनगर साम्राज्य में प्राप्त हुए हैं और उसका शासनकाल संगम युगीन विजयनगर साम्राज्य के वैभव और समृद्धि की पराकाष्ठा का सूचक हैं। उसकी प्रजा उसे इम्माडि देवराय और साथ ही प्रौढ देवराय या महान देवराय नामों से भी जानती है। सामान्य जन उसे हिन्दू पौराणिक आख्यानों के दैवीय शासक इन्द्र का अवतार मानते थे। उसके अभिलेखों में उसके लिए गडबेटकर उपाधि अर्थात् हाथियों के शिकारी का उल्लेख मिलता है।अपनी सेना को शक्तिशाली बनाने तथा बहमनियों की बराबरी के लिए उसने सेना में मुसलमानों को भर्ती किया तथा उन्हें जागीरें दी। देवराय द्वितीय के समय में फारसी (ईरानी) राजदूत अब्दुर्रज्जाक ने विजयनगर की यात्रा की थी। यह विजयनगर को संसार के सबसे शानदार नगरों में से एक मानता है। नूनिज पुर्तगाली कहता है कि क्विलान, श्रीलंका, पूलीकट, पेगू, तेनसिरिम ( क्रमश: बर्मा और मलाया ) के राजा देवराय द्वितीय को कर देते थे। देवराय द्वितीय साहित्य का महान संरक्षक था और स्वयं संस्कृत का एक निष्णात विद्वान था उसे दो संस्कृत ग्रंथों महानाटक सुधानिधि एवं वादरायण  के ब्रह्मसूत्र पर टीका की रचना करने का गौरव प्राप्त है। देवराय द्वितीय ने कोण्डविदु पर विजय प्राप्त करके उसे अपने साम्राज्य में मिलाया।
  • मल्लिकार्जुन ( 1446-1465ई.)- उसके समय में उङीसा और बहमनी राज्यों ने विजयनगर पर आक्रमण किया। मल्लिकार्जुन को प्रौढ देवराय भी कहा जाता है। उसके शासनकाल में विजयनगर साम्राज्य का पतन आरंभ  हो गया। चीनी यात्री माहुआन 1451ई. में मल्लिकार्जुन के समय में विजयनगर आया था।
  • विरुपाक्ष द्वितीय ( 1465-1485ई.)- यह संगम वंश का अंतिम शासक था।

शासन व्यवस्था-

संगमकालीन साहित्यानुसार इस समय राजा का पद वंशानुगत होता था, जो ज्येष्ठता पर आधारित था। राजा का चरित्रवान, प्रजापालक, निष्पक्ष तथा संयमी होना अनिवार्य था। राजसभा को ‘मनडाय‘ कहा जाता था, जहाँ राजा द्वारा न्यायिक कार्य किये जाते थे। अपने जीवन काल में ही राजा युवराज की नियुक्ति कर देते थे। युवराज को ‘कोमहन’ तथा अन्य पुत्रों को ‘इलेंगों’ कहा जाता था। राजा के नि:संतान मरने पर मंत्रियों तथा प्रजा द्वारा राजा का चुनाव किया जाता था। राजा का जन्म दिन इस युग में महोत्सव के रूप में मनाया जाता था। राज्याभिषेक का प्रचलन नहीं था, लेकिन राजा के सिंहासनारूढ़ होने के समय उत्सव का आयोजन किया जाता था।

राज्य संचालन

राजा अपने परामर्शदाताओं की सहायता से शासन कार्य का संचालन करते थे। मुख्य परामर्शदाता थे- पुरोहित, वैश्य, ज्योतिष एवं मंत्रीगण। परामर्शदाताओं की सभा को ‘पंचवारक‘ कहा जाता था। राजा शासन कार्य के संचालन में गुप्तचरों की भी सहायता लिया करता था। गुप्तचरों को ‘ओर्टर’ कहा जाता था। दण्ड व्यवस्था अत्यन्त कठोर थी। राजा सबसे बड़ा न्यायाधीश होता था। ‘मनड़ाय’ अर्थात् राजसभा राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय था तथा ‘मन्नरम‘ न्याय की सबसे छोटी इकाई थी।

सैन्य प्रबन्धन

राजा के पास रथ, हाथी, अश्व तथा पैदल सेना के चार अंग होते थे। सैनिकों द्वारा जिन शस्त्रों का मुख्यतया प्रयोग किया जाता था, वे थे- ‘वेल’ (भाला), ‘विल’ (धनुष), ‘कोल’ (बाण), ‘वाल’ (खड़ग) तथा ‘कवच’ आदि। शहीद सैनिकों की याद में शिलापट्ट लगाये जाते थे। वीरगति प्राप्त यौद्धाओं की पाषाण मूर्तियाँ बनाकर देवताओं की तरह उनकी पूजा की जाती थी। सेनाओं के लिए एक विशेष समारोह का आयोजन किया जाता था, जिसमें सेनापतियों को ‘एगाडि‘ की विशेष उपाधि प्रदान की जाती थी। नगर एवं ग्राम प्रशासन की मुख्य इकाइयाँ थीं, जहाँ का प्रशासन स्थानीय जनप्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता था। ‘उर’ नाम की संस्था द्वारा नगर प्रशासन का संचालन किया जाता था। ग्राम प्रशासन ‘मन्नरम’, ‘पोदइल’, ‘अम्बलय’ तथा ‘अपै’ के निर्देशन में संभाला जाता था।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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