इतिहासप्राचीन भारत

प्राचीन भारतीय राजत्व की विशेषताएँ

प्राचीन भारत में कई प्रकार के राज्यों के अस्तित्व के प्रमाण साहित्य तथा लेखों से प्राप्त होते हैं, फिर भी यह एक सत्य है, कि शासन की राजतंत्र प्रणाली ही सर्वमान्य एवं सर्वप्रचलित थी। अति प्राचीन काल से ही भारतीयों ने राजा एवं राजपद की महत्ता को समझा एवं सामाजिक व्यवस्था के लिये उसे अनिवार्य माना। भारतीय मनीषियों का स्पष्ट मत है, कि राजा के अभाव में समाज में मात्स्य न्याय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसमें बलवान दुर्बलों का उसी प्रकार भक्षण करने लगते हैं, जिस प्रकार जल में बङी मछली छोटी मछली का करती है। प्राचीन साहित्य को पढने से हमें भारतीय राजत्व की विशेषताओं का पता चलता है, जो निम्नलिखित हैं-

देवत्व

भारतीय संस्कृति धर्मप्राण है, जहाँ प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व के पीछे ईश्वर की सत्ता अथवा प्रेरणा को माना जाता है। राजपद भी इसका अपवाद नहीं है। प्राचीन साहित्य में अनेक उल्लेख मिलते हैं, जिनमें राजत्व को दैवी गुणों से युक्त बताया गया है। राजा की दैवी उत्पत्ति की ओर भी संकेत किया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है, कि देवताओं ने मिलकर इंद्र को राजा बनाया था।

महाभारत में राजा की सृष्टि ब्रह्माजी ने मानव जाति के कल्याण के लिये की।

कौटिल्य के अर्थशास्र में राजा को इंद्र और यम का प्रतिनिधि कहा गया है।

मनुस्मृति में राजा की दैवी उत्पत्ति तथा उसके दैवीगुणों से संपन्न होने का विवरण प्राप्त होता है। इसके अनुसार इस संसार को बिना राजा के होने पर बलवानों के डर से प्रजा के इधर-उधर भागने पर संपूर्ण चराचर की रक्षा के लिये ईश्वर ने राजा की सृष्टि की।इंद्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, चंद्रमा तथा कुबेर का सारभूत नित्य अंश लेकर उसने राजा को बनाया। मनु आगे लिखते हैं, कि बालक राजा भी बहुत बङा देवता होता है। विष्णु पुराण तथा भागवत में कहा गया है कि राजा के शरीर में अनेक देवताओं का वास होता है। भागवत में तो यहाँ तक लिखा हुआ है, कि प्रथम राजा बेण के शरीर के विभिन्न अंगों पर विष्णु के कुछ लक्षण विद्यमान थे।

गुप्त काल तक आते-आते राजपद पूर्णतया दैवी मान लिया गया तथा सम्राट को दैवीगुणों से संपन्न बताया गया। प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को पृथ्वी पर निवास करने वाला देवता कहा गया है, जो वहीं तक मनुष्य था, जहाँ तक लौकिक कार्यों को संपन्न करता था। इसी प्रकार हर्ष को हर्षचरित में सभी देवताओं को सम्मिलित अवतार बताया गया है। भारतीय समाज में जब अवतारवाद का सिद्धांत प्रसिद्ध हो गया तो राजा को देवता का अवतार मान लिया गया। गहङवाल वंशी राजाओं चंद्र तथा गोविन्दचंद्र को लेखों में क्रमशः ब्रह्मा तथा विष्णु का अवतार बताया गया है। इसी प्रकार पृथ्वीराजविजय में पृथ्वीराज को राम का अवतार बताया गया है।

प्रयाग प्रशस्ति की रचना किसने की ?

हर्षचरित की रचना किसने की ?

यूरोप की तरह भारत में देवत्व का सिद्धांत राजा की निरंकुशता का समर्थन करने के लिये प्रतिपादित नहीं किया गया। भारतीय विचारक यूरोपीय विचारकों के इस मत से असहमत हैं, कि राजा कोई गलती नहीं कर सकता।

आनुवंशिकता

भारतीय राजत्व की विशेषता यह भी है, कि यह आनुवांशिक था। राजा का उत्तराधिकारी उसका ज्येष्ठपुत्र ही होता था। वैदिक युग से ही जनपद आनुवांशक बन गया था। राजा के बङे बेटे के शरीर में दोष होने की स्थिति में कनिष्ठ पुत्र को उत्तराधिकार प्राप्त होता था।

महाभारत से पता चलता है, कि धृतराष्ट्र के अंधे होने के कारण राजपद उसके छोटे पांडु को प्राप्त हुआ था। राजा का बङा पुत्र यदि अवयस्क होता था, तो उसके चाचा, माता आदि संरक्षक के रूप में कार्य करते थे। वयस्क होते ही उसको राजपद सौंप दिया जाता था। पुत्रों के अवयस्क होने पर उनकी मातायें संरक्षिका के रूप में शासन करती थी, जैसे सातवाहन वंशीया नायनिका तथा वाकाटक वंशीया प्रभावतीगुप्ता ने अपने पुत्रों की संरक्षिका के रूप में शासन चलाया था।

कुलीनता

प्राचीन भारत में वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रचलन था। प्रत्येक वर्ण के अलग-2 कर्म निर्धारित किये गये। इसके अनुसार राजपद क्षत्रिय वर्ण का विशेषाधिकार था। प्राचीन व्यवस्थाकारों ने कुलीनता अर्थात उच्चकुल में उत्पन्न होना राजा का गुण बताया। कौटिल्य ने अर्थशास्र में सर्वप्रथम इसी गुण का उल्लेख किया है। उसके अनुसार दुर्बल व्यक्ति भी यदि अभिजात (उच्च वर्ण का ) है तो अनाभिजात (निम्नकुलोत्पन्न) बलवान व्यक्ति की अपेक्षा राजा होने के योग्य होता है। ऐसे व्यक्ति का वर्ण की श्रेष्ठता का कारण प्रजा स्वतः सम्मान करती है तथा उसकी आज्ञाओं का पालन करती है। इसके विपरीत शूद्रवंशी राजा घृणा का पात्र होता है।

शक्ति संपन्नता

राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था की सफलता सम्राट की शक्ति पर निर्भर करती है। इसके कुशल संचालन के लिये राजा का शक्ति संपन्न होना अनिवार्य है।

अर्थशास्र में शासक का एक गुण शक्य सामंत अर्थात् सामंतों या राजाओं पर नियंत्रण में रखने में समर्थ होना बताया गया है। महापद्मनंद, चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, कनिष्क, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य आदि महान शक्तिशाली शासक हुये, जिन्होंने चक्रवर्ती सम्राट की अवधारणा को व्यावहारिक रूप दिया। इसके विपरीत दुर्बल शासक अपना राज्य सुरक्षित नहीं रख सके तथा उन्हें राजपद से वंचित होना पङा।

प्रयाग लेख में सम्राट का आदर्श, धरणिबंध अर्थात् पृथ्वी को बांधना (जीतना) तथा उदयगिरि गुहालेख (चंद्रगुप्त द्वितीय कालीन) में कृत्स्नपृथ्वीजय अर्थात संपूर्ण पृथ्वी को जीतना बताया गया है। इस प्रकार सार्वभौमिकता अथवा शक्ति संपन्नता हिन्दू राजत्व का मुख्य आधार है।

अनिरंकुशता

प्राचीन काल के शासक शक्ति संपन्न होते थे, परंतु वे निरंकुश नहीं होते थे। वे अपने अमात्यों तथा जन-प्रतिनिधियों के परामर्श से ही शासन करते थे। वे अपने को प्रजा का सेवक ही समझते थे। प्राचीन शास्रकारों ने राजा को निरंकुश होेने से बचाने के लिये अनेक नियमों का विधान किया था। शुक्रनीतिसार में कहा गया है, कि प्रजा को अधिकार है कि वह अन्यायी राजा को हटाकर उसके स्थान पर न्यायशील राजा को सिंहासनासीन कर दे। याज्ञवल्क्य राजा को सलाह देते हैं, कि वह अत्याचार से दूर रहे, क्योंकि इसके द्वारा निकली हुयी कोपाग्नि उसके यश, कुल तथा जीवन का अंत कर देती है। कौटिल्य ने लिखा है, कि यदि काम, क्रोध या अज्ञानतावश दंड का प्रयोग किया जाता है, तो जनसाधारण को कौन कहे, वानप्रस्थी तथा संयासी तक क्षुब्ध हो जाते हैं।

उदारता तथा सहिष्णुता

प्राचीन भारतीय शासकों ने व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक जीवन में उदारता एवं सहिष्णुता की नीति अपनाई।

मौर्य सम्राट अशोक की बौद्ध भक्ति तो प्रसिद्ध ही है तथापि इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिलते कि उसने बौद्धेतर सम्प्रदायों का उत्पीङन किया। उसके लेख इस बात के साक्षी हैं, कि उसके विशाल साम्राज्य में विभिन्न धर्मों तथा संप्रदायों के अनुयायी रहते थे और राज्य की ओर सभी को सहायता मिलती थी। सातवें शिलालेख में अशोक अपनी धार्मिक इच्छा को व्यक्त करते हुये कहता है, कि सभी मतों के व्यक्ति सभी स्थानों पर रहे, क्योंकि वे सभी आत्मसंयम तथा ह्रदय की पवित्रता चाहते हैं।

प्रजावत्सलता

प्राचीन भारत के सम्राट अपनी प्रजावत्सलता के लिये प्रसिद्ध हैं। वे अपनी प्रजा के साथ पुत्रवत आचरण करते थे। तथा उसकी भलाई को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे। राजत्व संबंधी उनकी अवधारणा पितृपरक थी। अशोक के प्रथम शिलालेख में अशोक अपनी प्रजावत्सल भावनाओं को इस प्रकार व्यक्त करता है- सभी मनुष्य मेरी संतान है। जिस प्रकार मैं अपनी संतान के लिये इच्छा करता हूँ कि वह सभी लौकिक एवं पारलौकिक हित और सुख से संयुक्त हों उसी प्रकार सभी मुनष्यों के लिये मेरी इच्छा है।

लोकोपकारिता

प्राचीन भारतीय सम्राटों ने जन कल्याण को अपना लक्ष्य बनाया। उनकी दृष्टि में इससे बढकर कोई दूसरा कार्य नहीं था। अशोक अपने 6 वें शिलालेख में राजत्व के इस उदात्त आदर्श को इस प्रकार व्यक्ति करता है, कि सर्वलोक हित मेरा कर्त्तव्य है। सर्वलोकहित से बढकर कोई दूसरा काम नहीं है। मैं जो कुछ भी पराक्रम करता हूँ वह इसलिये कि भूतों के ऋण से मुक्त हो जाऊँ। मैं उनको इस लोक में सुखी बनाऊं और वे परलोक में सुख की प्राप्त सकें। इसी क्रम में वह अपने प्रतिवेदकों को आदेश देता हैस कि वे प्रत्येक समय तथा स्थान में उसे जनता के कर्यों की सूचना दें, क्योंकि वह सर्वत्र जनता का ही कार्य करता है।

नासिक लेख से पता चलता है, कि सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र को प्रजा के सुख-दुख की चिन्ता बराबर लगी रहती थी तथा वह प्रजा के सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझता था। शक महाक्षत्रप रुद्रदामन के जूनागढ लेख से विदित होता है, कि उसके शासन काल में कर, विष्टि (बेगार), प्रणयकर आदि से लोग पीङित नहीं थे। सम्राट स्कंदगुप्त का जूनागढ लेख हमारे सामने उदार तथा लोकापकारी शासन का चित्र प्रस्तुत करता है। इसके अनुसार उस समय कोई कोई भी मनुष्य दुखी, दरिद्र आपत्तिग्रस्त, लोभी या दंडनीय होने के कारण अत्यधिक सताया गया नहीं था। सम्राट हर्ष का काल भी लोकोपकारिता के लिये प्रसिद्ध रहा। ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है, कि हर्ष निरंतर जनता का कार्य करता था और वह अथक था। राजपूत युग में भी हमें कई लोकोपकारी शासकों का उल्लेख प्राप्त होता है।

धर्मनिरपेक्षता

राजा पुरोहित का सम्मान करता था, तथापि वह उसके प्रभाव में नहीं था। राजा के विरुद्ध आचरण करने पर पुरोहित को राज्य के बाहर निकाला जा सकता था। प्राचीन राज्य को धर्मतंत्रात्मक नहीं कहा जा सकता। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है, कि राजा अपनी इच्छानुसार ब्राह्मण को निकाल सकता है।

मौर्य काल तक आते-आते हमें पता चलता है, कि राजा की स्थिति सार्वभौम हो गयी तथा धर्मतंत्र का प्रभाव नगण्य हो गया। अर्थशास्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है, कि राजशासन धर्म, व्यवहार तथा चरित्र इन तीनों से परे होता है। यदि किसी राजाज्ञा के साथ धर्मशास्र का विरोध हो तो राजा का न्याय ही प्रमाण माना जायेगा, क्योंकि देश काल की परिस्थिति के अनुसार उस समय धर्मशास्र के वचन गौङ हो जायेंगे।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

India Old Days : Search

Search For IndiaOldDays only

  

Related Articles

error: Content is protected !!