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जहाँगीर के समय में राजपूत-मुगल सहयोग

जहाँगीर के समय में राजपूत-मुगल सहयोग

जहाँगीर के समय में राजपूत-मुगल सहयोग (Rajput-Mughal cooperation during the time of Jahangir)

जहाँगीर के समय में राजपूत-मुगल सहयोग – राजपूताना पर मुगल आधापत्य को परिपूर्ण करने तथा राजपूतों का सहयोग प्राप्त करने की दिशा में जहाँगीर ने वस्तुतः सराहनीय कदम उठाया था। उसने भी अपने पिता की भाँति राजपूत राजाओं के साथ वैवाहिक संबंधों की नीति को जारी रखा।

लेकिन इन वैवाहिक संबंधों के उपरांत भी वह राजपूतों पर इतना विश्वास नहीं करता था, जितना अकबर करता था। क्योंकि इस समय शाही दरबार में मुसलमान, अकबर के समय की धर्मनिरपेक्ष नीति के कारण अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे।

अतः जहाँगीर ने राजपूतों के साथ वैवाहिक संबंध समानता के आधार पर स्थापित नहीं किये बल्कि वे मात्र राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये स्थापित किये गये थे। आमेर के राजा मानसिंह ने अपनी पौत्री (जगतसिंह की लङकी) का विवाह जहाँगीर को खुश करने के लिये किया था, क्योंकि अकबर के काल में जब उसने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया था, तब अकबर ने उसके पुत्र खुसरो को उत्तराधिकारी बनाना चाहा, उस समय मानसिंह ने खुसरो का समर्थन किया था।

अतः बादशाह बनने के बाद भी जहाँगीर से किया था। इस प्रकार जब 1662 ई. में जहाँगीर के पुत्र खुर्रम ने विद्रोह किया तब उसे दबाने के लिये जहाँगीर ने अपने पुत्र परवेज के साथ जोधपुर के शासक गजसिंह को भी भेजा था। इस प्रकार गजसिंह को परवेज के साथ रहने का अवसर मिला तथा परवेज का विश्वास प्राप्त करने के लिये गजसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह परवेज से किया था।

संभवतः गजसिंह ने सोचा होगा कि खुर्रम के विद्रोही हो जाने से जहाँगीर परवेज को अपना उत्तराधिकारी बना देगा और परवेज के गद्दी पर बैठने पर शाही दरबार में राठौङों का सम्मान बढ जायेगा। मानसिंह की संदिग्ध भूमिका, बीकानेर के राजा रायसिंह का विद्रोही रुख तथा बून्दीके राजा भोज द्वारा अपनी पौत्री का विवाह जहाँगीर से करने की अस्वीकृति देने के कारण जहाँगीर को राजपूतों पर संदेह उत्पन्न हो गया था।

इन सभी परिस्थितियों में जहाँगीर के दरबार में राजपूतों की स्थिति थोङी कमजोर पङ गई थी यद्यपि उसने अपने पिता के समान ही हिन्दुओं को उच्च सरकारी पदों पर नियुक्त करने की नीति जारी रखी, लेकिन ऐसे हिन्दुओं की संख्या में भारी कमी आ गयी थी। अकबर के शासन काल में शाही मनसबदारों में 18.4 प्रतिशत राजपूत मनसबदार थे, लेकिन जहाँगीर के शासन काल में राजपूत मनसबदारों की संख्या केवल 10.5 प्रतिशत रह गयी थी।

जहाँगीर के 22 वर्ष के शासन काल में केवल तीन हिन्दू प्रांतीय सूबेदार नियुक्त किये गये और वह भी बहुत थोङी अवधि के लिये। इनमें से मानसिंह, जो अकबर की मृत्यु के समय बंगाल का सूबेदार था, यथापूर्व अपने पद पर बना रहा। इसके कुछ काल बाद टोडरमल का पुत्र, राजा कल्याण उङीसा का सूबेदार नियुक्त हुआ।

राजा विक्रमाजीत कुछ काल तक गुजरात के सूबेदार के पद पर आसीन रहा हॉकिन्स का मत है कि वास्तव में नियुक्ति करते समय जहाँगीर मुसलमानों को वरीयता प्रदान करता था। इस प्रकार जहाँगीर ने अपने पिता द्वारा स्थापित किये गये सहिष्णुता के रास्ते पर आगे बढने का प्रयत्न नहीं किया।

जहाँगीर के समय में राजपूत-मुगल सहयोग

जहाँगीर के समय संपूर्ण राजस्थान पर मुगलों की सर्वोपरि सत्ता स्थापित होने के बाद राजपूत राज्यों के आंतरिक मामलों में सम्राट और उसके अधिकारियों का हस्तक्षेप बढ गया। ज्येष्ठाधिकार के नियमानुसार राज्यों के उत्तराधिकार निश्चित होना एक सामान्य बात थी, किन्तु सम्राट ने राजपूत शासकों के छोटे पुत्र या किसी दूर के रिश्तेदार को मान्यता देते हुए उत्तराधिकार निश्चित करना आरंभ कर दिया।

बीकानेर का राजा रायसिंह अपने ज्येष्ठ पुत्र दलपत से प्रसन्न नहीं था, अतः उसने छोटे लङके रायसिंह की इच्छापूर्ति कन करने के उद्देश्य से उसने मार्च, 1612 में दलपत को बीकानेर का शासक बनाया। लेकिन जब दलपत को बीकानेर का शासक बनाया। लेकिन जब दलपत ने शाही आदेशों की अवहेलना करना आरंभ कर दिया, तब जहाँगीर ने उसी के छोटे भाई सूरसिंह को ससैन्य बीकानेर भेजा। पराजित दलपत को कैद कर लिया गया और तब सितंबर, 1613 ई. में जहाँगीर ने सूरसिंह को बीकानेर का शासक बनाया।

इसी प्रकार आमेर के राजा मानसिंह के ज्येष्ठ पुत्र महासिंह, मानसिंह का वास्तविक उत्तराधिकारी था। लेकिन उत्तराधिकार संबंधी हिन्दू प्रथा की पूर्ण उपेक्षा कर जहाँगीर ने मानसिंह के एकमात्र जीवित पुत्र भावसिंह को आमेर का शासक बनाया तथा उसे चार हजारी का मनसब और मिर्जा राजा की उपाधि प्रदान की।

इस प्रकार राजपूत राज्यों में उत्तराधिकार एकमात्र मुगल सम्राट को इन राज्यों में अधिकाधिक हस्तक्षेप करने का अवसर मिलता गया। जहाँगीर की यह भी नीति रही कि राजपूताने के किसी राज्य को शक्तिशाली नहीं होने दिया जाए। अतः कछवाहों की बढती हुई शक्ति को नियंत्रित रखने के लिये आमेर की सीमा पर नये राठौङ राज्य किशनगढ की स्थापना की। इसी प्रकार मेवाङ की शक्ति को नियंत्रित रखने के लिये मालवा की सीमा पर रतलाम नामक नये राज्य की स्थापना की गयी। ऐसा प्रतीत होता है कि जहाँगीर राजपूतों को राजपूतों के विरुद्ध लङा कर उनकी शक्ति क्षीण करना चाहता था।

सन् 1619 ई. के बाद जहाँगीर का स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया, जिससे उसका शासन कार्य में भाग लेना प्रायः असंभव हो गया। उसकी प्रियतमा साम्राज्ञी नूरजहाँ पहले ही शासन में बहुत कुछ हस्तक्षेप करती थी, अब तो सारा शासनकार्य उसके हाथों में चला गया। इस समय नूरजहाँ और खुर्रम के बीच तीव्र वैमनस्य चल रहा था। नूरजहाँ के हाथों अपना भविष्य बिगङने की आशंका से 1622 में उसने मालवा में विद्रोह खङा कर दिया।

इस विद्रोह को दबाने के लिये स्वयं जहाँगीर ससैन्य आगरा की ओर गया तथा 19 मार्च, 1623 को उसे बिलोचपुरा के युद्ध में पराजित किया। खुर्रम वापस लौट पङा और रास्ते में आमेर को लूटता हुआ उदयपुर पहुँचा जहाँ राणा कर्ण ने खुर्रम को अपने जगमहल में आश्रय दिया और विदा होते समय राणा और खुर्रम ने पगङी बदल कर भाईचारा व्यक्त किया। तत्पश्चात खुर्रम माण्डू पहुँचा।

जहाँगीर उसका पीछा करता हुआ राजपूताना की ओर गया और 9 मई, 1623 ई. को अजमेर में पङाव डाला। खुर्रम के इस विद्रोह में राजपूताना के किसी शासक ने खुर्रम का साथ नहीं दिया तथा जहाँगीर का आदेश प्राप्त होने पर सभी प्रमुख शासक उसकी सेवा में उपस्थित हो गये। इससे स्पष्ट है कि अकबर ने राजपूत मुगल सहयोग की जो बुनियाद रखी थी, वह कितनी मजबूत हो चुकी थी।

अपनी निरंतर विफलताओं से निराश होकर खुर्रम ने जहाँगीर से क्षमा याचना कर 1625 के अंत में समझौता कर लिया। खुर्रम को मुगल सम्राट बनने के लिये अधिक समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी पङी। 29 अक्टूबर, 1627 ई. को जहाँगीर की मृत्यु हो गई और 4 फरवरी, 1628 ई. को खुर्रम शाहजहाँ के नाम से तख्त पर बैठ गया।

शाहजहाँ के सिंहासनारूढ होने पर मुगल साम्राज्य एक नवीन रूप धारण करने लगा। अकबर का दृष्टिकोण उदार था और जहाँगीर द्वारा अकबर की नीति का अनुसरण पूर्ण रूप से नहीं हो पाया। हिन्दुओं पर अत्याचार किये बिना तथा राजपूतों को उनके पूर्व पदों से वंचित किये बिना जहाँगीर अपने साम्राज्य में मुसलमानों के हितों का अधिक ध्यान रखता था।परंतु शाहजहाँ एक कट्टर मुसलमान था।

शाहजहाँ की माता व दादी दोनों ही राजपूत राजकुमारियाँ थी, किन्तु इन बातों का शाहजहाँ पर कोई प्रभाव नहीं पङा। अपने पिता और पितामह की भाँति शाहजहाँ ने किसी राजपूत राजकुमारी से विवाह नहीं किया और अपने हरम में भी वह राजपूत राजकुमारियों के प्रभाव से मुक्त रहा।

शाहजहाँ से पूर्व जब हिन्दू राजाओं को उपाधियाँ तथा मनसब दिये जाते थे तो सम्राट उनके मस्तिष्क पर टीका लगाया करता था। किन्तु शाहजहाँ ने इस परंपरा को बंद तो नहीं किया, लेकिन टीका लगाने की रस्म सम्पन्न करने का काम अपने प्रधानमंत्री पर छोङ दिया।

सरकारी पदों पर नियुक्तियों के संबंध में शाहजहाँ ने अपने शासनकाल के आरंभ में आदेश जारी किया कि केवल मुसलमानों को ही सरकारी पदों पर नियुक्त किया जावेगा। किन्तु इस आदेश का दृढता से पालन नहीं किया गया।जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह पर शाहजहाँ की विशेष कृपा रही।

जिस समय जसवंतसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा था (1638ई.) तब उसका मनसब चार हजारी जात-चार हजार सवारों का था, लेकिन शाहजहाँ उसके मनसब में निरंतर वृद्धि करता गया, जिसके फलस्वरूप 1653 ई. में उसका मनसब छः हजारी जात – छः हजारी सवारों का हो गया था।

शाहजहाँ के शासनकाल का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि राजपूत अब भी साम्राज्य के शक्तिशाली स्तंभ थे और उच्चतम सरकारी पदाधिकारियों में शामिल थे। जब औरंगजेव दक्षिण का सूबेदार था तो राजपूतों के प्रति द्वेष भावना रखने के कारण शाहजहाँ ने उसकी भर्त्सना की थी।

इससे स्पष्ट है कि शाहजहाँ ने अपने व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन में भले ही राजपूत मुगल सहयोग को अपेक्षित महत्त्व न दिया हो, परंतु राजनैतिक क्षेत्र में उसने इसकी उपेक्षा नहीं की। यही कारण है कि उसके शासनकाल के अंत में लङे जाने वाले उत्तराधिकार संघर्ष में राजपूतों ने उसके ही पक्ष में संघर्ष किया।

शाहजहाँ के शासनकाल में राजपूताना का इतिहास महत्त्वपूर्ण राजनैतिक घटनाओं से विहीन रहा, लेकिन राजनैतिक दृष्टि से यह महत्त्वहीन नहीं कहा जा सकता। मेवाङ के साथ 1615 ई. में संधि होने के बाद राजस्थान में मुगल साम्राज्य के प्रति विरोध का अंत हो गया था। अब सभी राजपूत शासकों का दृष्टिकोण ही बदल गया।

वे सभी मुगल सम्राटों के कृपापात्र बनकर उनसे बङे-बङे मनसब तथा विविध प्रकार के सम्मान प्राप्त करने के लिये उनमें होङ सी लग गयी थी। राजपूत नरेशों की राजभक्ति अब व्यक्तिगत न रहकर साम्राज्य तथा सिंहासन के प्रति होने लगी थी। उधर राजस्थान पर मुगलों का स्थायी प्रभुत्व स्थापित होने के बाद मुगल सम्राट अनेकानेक नये छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना करने लगे तथा बङे राज्यों के अधीन छोटे राज्यों को उनकी अधीनता से निकाल कर उनका मुगल साम्राज्य के साथ सीधा संबंध स्थापित करने की नीति अपनाई गयी। किशनगढ, कोटा, नागौर आदि नये राज्यों की स्थापना इसी नीति के फलस्वरूप हुई थी।

इसी प्रकार राजा भीम सिसोदिया की स्वामिभक्तिपूर्ण सेवाओं के बदले शाहजहाँ ने उसके पुत्र रायसिंह को टोंक तथा टोडे का एक स्वतंत्र राज्य दिया, किन्तु रायसिंह की मृत्यु के बाद वह स्थायी नहीं रह सका। इसके विपरीत राणा अमरसिंह के दूसरे पौत्र सुजानसिंह सिसोदिया को जब शाहजहाँ ने फूलिया परगना दिया तब उसने शाहपुरा नगर के साथ स्थायी रूप से शाहपुरा राज्य की स्थापना की।

मुगल सम्राटों की इस नीति के फलस्वरूप एक तरफ तो राजस्थान में मुगल साम्राज्य की नींव अधिकाधिक सुदृढ हुई, दूसरी तरफ राजस्थान में पारस्परिक विरोध एवं फूट के नये कारण भी उत्पन्न हो गये। अपने दोनों पङौसी राठौङ राज्यों (जोधपुर और बीकानेर) के लिये नागौर का राज्य निरंतर एक काँटा बना रहा। कोटा-बूंदी की आपसी प्रतिस्पर्द्धा ने तो आगे चलकर भयंकर रूप धारण कर लिया। बाँसवाङा, डूँगरपुर और देवलिया पर पुनः अपना आधिपत्य स्थापित करने में सारी शक्ति लगा देना अगले कई वर्षों तक मेवाङ राज्य का एकमात्र लक्ष्य रह गया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : राजपूत-मुगल संबंध

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