इतिहासजापानविश्व का इतिहास

जापान विश्व शक्ति के रूप में

जापान विश्व शक्ति के रूप में – जापान के आधुनिकीकरण ने उसकी विदेश नीति को भी प्रभावित किया। पश्चिमी देशों के साथ की गई पुरानी संधियों को जापान संशोधित करवाना चाहता था, क्योंकि ये संधियाँ उसकी स्वतंत्र एवं सार्वभौम सत्ता पर कलंक का धब्बा थी। बाह्य क्षेत्राधिकार अर्थात् विदेशी नागरिकों के अपराधों एवं अभियोगों की सुनवाई का अधिकार जापानी न्यायालयों के पास न होने से जापान का न्याय शासन पंगु हो रहा था। व्यापार शुल्क निश्चित करने का अधिकार भी जापानी सरकार को न था। इन संधियों का प्रभाव जापान की अर्थव्यवस्था पर भी पङ रहा था। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा पद्धति पर पश्चिमी देशों का नियंत्रण था। इन सभी स्थितियों के साथ ही साथ जापान विश्व शक्ति के रूप में उभरना चाह रहा था।

जापान में औद्योगिक विकास

जापान विश्व शक्ति के रूप में

इन दिनों जापान में सोने का भाव चाँदी के भाव से चौगुना था, परंतु यूरोप में सोने का भाव चाँदी से सोलह गुना था, अतः यूरोपी व्यापारी वहां से चाँदी लाते और जापान से सोना ले जाते और इससे जापान का काफी मुनाफा होता। इस प्रकार जापान का सोना विदेशों में जा रहा था। 1873 ई. में इस काम के लिये जापान ने अपना एक विशेष मिशन विदेशी सरकारों से बातचीत करने के लिये भेजा, परंतु मिशन को अपने काम में तनिक भी सफलता न मिली। 1888 ई. में जापान ने इस विषय में संबंधित विदेशी सरकारों से पुनः बातचीत की, परंतु इस बार भी निराशा ही हाथ लगी। अब जापान को विश्वास हो गया कि शक्ति के आधार पर आरोपित संधियों का अंत अथवा संशोधन केवल शक्ति के प्रदर्शन से ही संभव हो पाएगा, अतः वह अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिये उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। अब तक जापान की सैन्य शक्ति का भी विस्तार हो चुका था।

जापान विश्व शक्ति के रूप में

पङोसी द्वीपों पर जापान का अधिकार

जापान विश्व शक्ति के रूप में

1871 ई. में रयुक्यु द्वीप के कुछ नाविकों को फार्मोसा में मौत के घाट उतार दिया गया। फार्मोसा पर चीन का अधिकार था, परंतु रयुक्यु द्वीप पर चीन और जापान, अपना ही अपना-अपना अधिकार बतलाते थे। उपर्युक्त घटना का राजनीतिक लाभ उठाते हुये जापान ने चीन से क्षतिपूर्ति की माँग की, जिसे चीन इस आधार पर ठुकरा दिया, कि रयुक्यु द्वीप भी उसी का है। इस पर 1874 ई. में जापान ने फार्मोसा पर आक्रमण कर उसके एक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। चीन ने हर्जाना अदा कर जापान से पीछा छुङाया, परंतु इससे अब तक विवादग्रस्त रयुक्यु द्वीप पर जापानी अधिकार को मान्यता मिल गयी। साम्राज्य विस्तार की दिशा में यह जापान की प्रथम सफलता थी।

1875 ई. में जापान ने रूस के साथ समझौता कर लिया। इस समझौते के अनुसार जापान ने साखालिन द्वीप पर अपने दावे को त्याग दिया और बदले में रूस ने कुरील द्वीप पर जापान का अधिकार मान लिया। इस प्रकार, जापान को कुरील द्वीप भी मिल गया। 1878 ई. में जापान ने अपने पङौस में स्थित बोनिन द्वीप समूह पर भी कब्जा कर लिया। तथा जापान विश्व शक्ति के रूप में सामने आया।

कोरिया की समस्या

जापान के ठीक सामने समुद्र के दूसरे किनारे पर चीन की सीमा पर कोरिया स्थित था। जापान और कोरिया के बीच केवल एक पतली खाङी थी। कोरिया और चीन की सीमा को यालू नदी विभाजित करती थी। मंचू शासन काल में कोरिया पर चीन का प्रभुत्व कायम हो गया और जापान के साथ उसके पुराने राजनीतिक संबंधों का अंत हो गया। जिस समय जापान में जागरण की लहर चल रही थी, कोरिया की समस्या उसके लिये अत्यधिक संकट का विषय़ बन गयी। रूस ने इस समय तक अपनी सीमा का विस्तार कोरिया की सीमा तक कर लिया था और वह कोरिया में प्रवेश करने की सोचने लगा था। चीन और कोरिया, दोनों ही सैनिक दृष्टि से अति कमजोर थे और विदेशी आक्रमण को रोकने में असमर्थ थे। पश्चिमी देश भी कोरिया में अपने पैर फैलाने की योजना बना रहे थे। जापान के लिये स्वतंत्र कोरिया अथवा जापान के अधीनस्थ कोरिया का भारी महत्त्व था, क्योंकि महाद्वीप में पैर रखने के लिये कोरिया होकर जाने का मार्ग ही उपलब्ध था। साम्राज्य प्रसार के लिये भी कोरिया की स्थिति अनुकूल थी। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए मुत्सोहितो ने कोरिया के शासक को जापान की अधीनता स्वीकार करने का आमंत्रण भेजा, जिसे उसने ठुकरा दिया।
1875 ई. में कोरिया ने एक जापानी युद्धपोत पर आक्रमण कर दिया। इस पर जापान ने कोरिया के सामने कई प्रकार की माँगें प्रस्तुत कर दी। अन्ततः 1876 ई. में दोनों में समझौता हो गया, जिसके अनुसार जापान ने कोरिया की स्वतंत्रता को मान्यता दे दी और बदले में कोरिया ने जापान को व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान की और बाह्य क्षेत्राधिकार भी प्रदान किया। इस प्रकार जापान ने चीनी दावे पर प्रहार किया, क्योंकि चीन अभी तक कोरिया को अपने अधीन मानता आया था। कोरिया में भी दो दल बन गये थे। एक दल जापान के पक्ष में था और उसके सहयोग से कोरिया का आधुनिकीकरण करना चाहता था। दूसरा दल चीन के पक्ष में था। 1882 ई. में चीन समर्थक दल ने कई जापानियों को मार डाला। जापान के कार्यवाही करने पर कोरियाई सरकार ने जापान से क्षमा प्रार्थना की, उसे हर्जाना दिया और उसे कुछ और व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान की। कुछ समय बाद चीन ने अपने सैनिकों को कोरिया में भेज दिया। इसी समय जापान समर्थक कोरियाई दल ने सरकार का तख्ता पलटने का प्रयास किया और इस सिलसिले में उनकी चीनी सैनिकों से झङप हो गयी, जिसमें फिर कुछ जापानी मारे गये। जापन ने भी अपनी सेना कोरिया में भेज दी। एक बार पुनः कोरियाई सरकार को झुकना पङा। 1885 ई. में चीन और जापान में कोरिया के प्रश्न पर आपसी समझौता हो गया।

प्रथम महायुद्ध (1914)

1914 ई. में प्रथम महायुद्ध शुरू हो गया । जापान ने मित्र राष्ट्रों का पक्ष लेकर जर्मनी और आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया। युद्ध काल में जापान ने प्रशांत महासागर में स्थित जर्मन द्वीपों तथा चीन में जर्मनी के प्रभाववर्ती क्षेत्रों पर ही अधिकार नहीं किया, अपितु चीन के सामने इक्कीस माँगें रखकर चीन को अपना आर्थिक उपनिवेश बनाने का प्रयत्न किया। महायुद्ध के समय में जापान के व्यापार-वाणिज्य तथा उद्योग धंधें का जबरदस्त विकास हुआ।

चूँकि इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, इटली आदि राष्ट्र युद्ध में फँसे हुये थे, अतः एशिया में माल पहुँचाने में असमर्थ थे। जापान ने इस कमी को पूरा और एशिया का प्रत्येक देश जापानी माल का अच्छा ग्राहक बन गया। जापान के उद्योग धंधों का विकास इस महायुद्ध का एक प्रमुख परिणाम सिद्ध हुआ। वह सारे एशिया का कारखाना बन गया। तथा जापान विश्व शक्ति के रूप में उभरकर सामने आया।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
Wikipedia :जापान विश्व शक्ति के रूप में

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